वकक्‍तृत्वकला के बोज पांचवाँ भाग

समसनन्‍दय अकाशुन

प्र० स० प्रकाशक मोतीलाल पारख जनसुखलाल एण्ड कंपनी ब्रह्मदेवसिह ०/० भगवतप्रसाद रणछोडदास ४०७ ४४, न्यू क्लोथ मार्केट अहमदाबाद-२ है प्रथम आवृति : २००० ५. बसन्त पचमी वि० स॒० २०२८ जनवरी १४६७२ है? मूल्य * पांच रुपये पचास पैसे संपर्क सूत्र मुद्रक . सजय साहित्य सगम, रामनारायन मेड़तवाल दासविल्डिग न०-५ श्रीविष्णु प्रिंटिंग प्रेस

विलोचपुर, आगरा-२ राजा की मडी, आगरा-२

उन जिज्नसुओ फो, जिनफी उर्वेर मनोन्ृमि में + » थे बीज * भकुरित पुष्पित फलित हो, अपना विराद रूप प्राप्त कर सकें |

प्राप्तिकेन्द्र

जनसुखलाल एड कंपनी

०/० भगवतप्रसाद रणछोडदास ४४, न्यूकलोथ मार्केट अहमदादाद-२

श्री सम्पतराय बोरड

०/० मदनचंद सम्पतराय ४०, धानमडी,

श्री गगानगर (राजस्थान)

मोतीलाल पारख

दि अहमदाबाद लक्ष्मी कॉटनमिल्स क० लि० पो० बा० न० ४२

अहमदाबाद-२२

अाककथन

मानव जीवन में वाचा की उपलब्धि एक बहुत बडी उपलब्धि है | हमारे प्राचीन आचायों की दृष्टि मे वाचा ही सरस्वती का अधिष्ठान है, वाचा सरस्वती भिषग्‌'--वाचा ज्ञान की अधिष्ठात्री होने से स्वय सरस्वती रूप है, और समाज के विकृृत आाचार-विचा र- रूप रोगो को दूर करने के कारण यह कुशल वैद्य भी है

अन्तर के भावों को एक दूसरे तक पहुँचाने का एक बहुत वढा माध्यम वाचा ही है। यदि मानव के पास वाचा होती तो, उसकी क्या दशा होती ? क्‍या वह भी मभूकपशुओ की तरह भीतर ही भीतर घुटकर समाप्त नही हो जाता ? मनुष्य, जो गू गा होता है, वह अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए कितने हाथ-पर मारता है, कितना छटपटाता हैं फिर भी अपना सही आशय कहा समझा पाता है दूसरो को ? है

बोलना वाचा का एक गुण है, कितु बोलना एक अलग चीज है, और वक्ता होना वस्तुत एक अलग चीज है। बोलने को हर कोई बोलता है, पर वह कोई कला नही है, कितु वक्‍तृत्व एक कला हैं वक्ता साधारण से विपय को भी कितने सुन्दर और मनोहारी रूप से प्रस्तुत करता है कि श्रोता मत्रमुग्ध हो जाते हूँ। वक्ता के बोल श्रोता के हृदय मे ऐसे उतर जाते हैं कि वह उन्हें जीवन भर नही भूलता

कमेयोगी श्रीकृष्ण, भगवानमहावीर, तथागतवुद्ध, व्यास और भद्रबाहु आदि भारतीय प्रवचन-परम्परा के ऐमे महान्‌ प्रवक्ता थे,

यजुर्वेद १६॥१२

(३ .)

जिनकी वाणी का नाद आज भी हजारो-लाखो लोगो के हृदयो को

आप्यायित कर रहा है महाकाल की तूफानी हवाओ मे भी उनकी वाणी की दिव्य ज्योति बुझी है ओर वुझेगी

हर कोई वाचा का धारक, वाचा का स्वामी नहीं वन सकता। वाचा का स्वामी ही वाग्मी या वक्ता कहलाता है। वक्ता होने के लिए ज्ञान एव अनुभव का आयाम बहुत ही विस्तृत होना चाहिए। विशाल अध्ययन, मनन-चितन एव अनुभव का परिपाक वाणी को तेजस्त्री एव चिरस्थायी बनाता है। विना अध्ययन एवं विपय की व्यापक जानकारी के भाषण केवल भपण (भोकना) मात्र रह जाता है, वक्ता कितना ही चीखे-चिल्लाये, उछले-कुदे यदि प्रस्तावित विपय पर उसका सक्षम अधिकार नही है, तो वह सभा मे हास्यास्पद हो जाता है, उसके व्यक्तित्व की गरिमा लुप्त हो जाती है। इसीलिए बहुत प्राचीनयुग में एक ऋषि ने कहा था--वक्ता शतसहल्नपु, अर्थात्‌ लाखो मे कोई एक वक्ता होता है।

शतावधानी मुनि श्री घनराज जी जैनजगत के यश्ञस्वी प्रवक्ता हैं। उनका प्रवचन, वस्तुत प्रवचन होता है। श्रोताओं को अपने प्रस्तावित विषय पर केन्द्रित एव मंत्र-मुग्ध कर देना उनका सहज कर्म है। और यह उनका वक्‍्तृत्व--एक बहुत बडे व्यापक एवं गभीर अध्ययन पर जाघारित है। उनका सस्क्ृत-प्राकृत आदि प्राचीन भाषाओं का ज्ञान विस्तृत है, साथ ही तलस्पर्शी भी ! मालूम होता है, उन्होंने पाडित्य को केवल छुआ भर नही है, किंतु समग्रशक्ति के साथ उसे गहराई से अधिन्रहण किया है। उनको भ्रस्तुत पुस्तक 'बक्‍्तृत्वकला के चीज” में यह स्पष्ट परिलक्षित होता है

प्रस्तुत कृति में जैन आगम, वौद्धवाइ मय, वेदों से लेकर उपनिपद ब्राह्मण, पुराण, स्मृति आदि वैदिक साहित्य तथा लोककथानक, कहा- बतें, रूपक, ऐतिहासिक घटनाएं, ज्ञान-विज्ञान की उपयोगी चर्चाएँ--

(, ७, .)

||

इसप्रकार श्खलाबवद्ध रूप मे सकलित है कि किसी भी विषय पर हम बहुत कुछ विचार-सामग्री प्राप्त कर सकते हैं। सचमुच ववतृत्व- कला के अगणित वीज इसमे सन्निहित हैं सुक्तियों का तो एक प्रकार से यह रत्नाकर ही है अग्रेजी साहित्य अन्य घमग्रथो के उद्धरण भी काफी महत्वपूर्ण हैं। कुछ प्रसग और स्थल तो ऐसे हैं, जो केवल सुक्ति और सुभापित ही नही है, उत्तमे विषय की तलस्पर्शी गहराई भी है और उसपर से कोई भी अध्येता अपने ज्ञान के आयाम को और अधिक व्यापक बना सकता है। लगता है, जैसे मुनि श्री जी वाड मय के रूप में विराट पुरुष हो गए हैं। जहा पर भी दृष्टि पडती * है, कोई-न-कोई वचन ऐसा मिल ही जाता है जो हृदय को छू जाता है और यदि प्रवक्ता प्रयत॒ अपने भाषण में उपयोग करे, तो अवश्य ही श्रोताओं के मस्तक झूम उठेंगे

प्रश्न हो सकता है--'वक्तृत्ककला के बीज” मे मुनि श्री का भपना क्‍या है ? यह एक सग्रह है और सग्रह केवल पुरानी निधि होती है, परन्तु मैं कहुँग-- कि फूलो की माला का निर्माता माली जब विभिन्न जाति एवं विभिन्न रगो के मोहक पुष्पो की माला बचाता है तो उसमे उसका अपना क्‍या है ? बिखरे फूल, फूल हैं, माली नही माला का अपना एक अलग ही विलक्षण सोन्दर्य है। रग-बिरगे फूलो का उपयुक्त चुनाव करना और उनका कलात्मक रूप मे सयोजन करना--यही तो मालाकार का कर्म है, जो स्वयं में एक विलक्षण एवं विदिष्ट कलाक् है मुनि श्री जी वक्‍्तृत्वकला के बीज मे ऐसे ही विलक्षण मालाकार हैं विषयो का उपयुक्त चयन एवं तत्सम्बन्धित सूक्तियो आदि का सकलन इतना शानदार हुआ है कि इस प्रकार का सकलन अन्यत्र इस रूप में नही देखा गया

एक वात और--श्री चन्दनम्रुनि जी की संस्कृत-प्राकृत 'रचनाओो ने मुझे यथावसर काफी प्रभावित किया है। में उनकी विद्वत्ता का प्रशसक रहा हुँ। श्लरी घनमुनि जी उनके बड़े भाई हँ---जब यह मुझे

,

ज्ञात हुआ तो मेरे हर की सीमाओं का और भी अधिक विस्तार हो गया अब मैं कँसे कहूँ कि इन दोनो मे कौन वडा है और कौन छोटा ? अच्छा यही होगा कि एक को दूसरे से उपमित कर दूँ उनकी बहुश्र्‌ तता एवं इनकी सग्रह-कुशलता से मेरा मन मुस्ध हो गया है

मैं मुनि श्री जी, और उनकी इस महृत्वपूर्णक्ृति का हृदय से अभिनन्दन करता हूँ। विभिन्न भागो में प्रकाशित होने वाली इस विराट कृति से प्रवचनकार, लेखक एव स्वाध्यायप्रेमीजन मुनि श्री के प्रति ऋणी रहेंगे वे जब भी चाहेगे, वकक्‍तृत्व के बीज मे से उन्हें कुछ मिलेगा ही, वे रिक्तहस्त नही रहेगे ऐसा मेरा विश्वास है

प्रवक्‍तू-समाज--मुनि श्री जी का एतदर्थ आभारी है और आभारी रहेगा

जैन भवन आश्विन शुक्ला-3 --उपाध्याय अमरसुनि

आगरा कु

[सतीश

वक्‍तृत्वगुण एक कला हैं, और वह बहुत बडी साधना की अपेक्षा करता हैं।आगम का ज्ञान, लोकव्यवहार का ज्ञान, लोकमानस का ज्ञान और समय एवं परिस्थितियों का ज्ञान तथा इन सबके साथ निस्पृहता, निर्भयता, स्वर की मधघुरता, ओजस्विता आदि गरुणो की साधना एवं विकास से ही वक्‍तृत्वकला का विकास हो सकता है, और ऐसे वक्ता वस्तुत. हजारो लाखो मे कोई एकाघ ही मिलते हैं।

तेरापथ के अधिणास्ता युगप्रधान आचार्य श्रीतुलसी में वक्‍तृत्वकला के ये विशिष्ट ग्रुण चमत्कारी ढंग से विकसित हुए है। उनकी वाणी का जादू श्रोताओं के मन-मस्तिष्क को आन्दोलित कर देता है। भारतवर्ष की सुदीर्घ पदयात्राओ के मध्य लाखो नर-नारियो ने उनकी ओजस्विनी वाणी सुनी है ओर उसके मधुर प्रभाव को जीवन मे अनुभव किया है

प्रस्तुत पुस्तक के लेखक मुनि श्री धनराजजी भी वास्तव मे वक्‍तृत्वकला के महान ग्रुणो के घनी एक कुशल प्रवक्ता सत हैं। वे कवि भी है, गायक भी है, और तेरापय शासन में सर्वेप्रथम अवधानकार भी है, इन सबके साथ-साथ बहुत बडे विद्वान तो है ही उनके प्रवचन जहा भी होते है, श्रोत्राओ की अपार भीड़ उमड आती है। आपके विहार करने के वाद भी श्रोता आपकी याद करते रहते है

आपकी भावना है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी वक्‍्तृत्वकला का विकास करे और उसका सदुपयोग करें, अत. जब- समाज के लाभार्थ आपने वक्‍तृत्व के योग्य विभिन्न सामग्रियो का यह विशाल सग्रह प्रस्तुत किया है

( १० )

बहुत समय से जनता की, विद्वानो की और वक्‍्तृत्वकला के अभ्यासियो की माँग थी कि इस दुर्लभ सामग्री का जन- हिताय प्रकाशन किया जाय तो बहुत लोगो को लाभ मिलेगा जनता की भावना के अनुसार हमने मुनिश्री की इस सामग्री को धारणा प्रारभ किया। इस कार्य को सम्पन्न करने से श्री डू गरगढ, मोमासर, भादरा, हिसार, टोहाना, नरवाना कैथल, हासी, भिवानी, तोसाम, ऊमरा, सिसाय, जमालपुर, सिरसा और भर्टिडा आदि के विद्यार्थियो एवं युवको ने अथक परिश्रम किया है। फलस्वरूप लगभग सौ कापियो १५०० विपयो में यह सामग्री सकलित हुई है हम इस विभाल सग्रह को विभिन्न भागो मे प्रकाशित करने का सकलल्‍प लेकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हुए है

वक्‍्तृत्वकला के वीज का यह पाचवाँ भाग पाठकों की सेवा में प्रस्तुत हैं। इसके प्रकाशन का समस्त अर्थभार श्री जनसुखलाल एड कंपनी, अहमदाबाद ने वहन किया हैं। इस अनुकरणीय उदारता के लिए हम उनके हृदय से आभारी है।

इसके प्रकाशन एवं प्रूफ सशोघधन आदि मे श्रीचन्द जी सुराना 'सरस' तथा श्री ब्रह्मदेवसिह जी आदि का जो हादिक सहयोग प्राप्त हुआ है--उसके लिए भी हम हृदय से कतज्ञता-जापित करते है। आशा है यह पुस्तक जन-जन के लिए, वक्ताओ और लेखकों के लिए एक इनसाईवलोपीडिया (विश्वकोश) का काम देगी और युग-युग तक इसका लाभ

मिलता रहेगा.. . के

एज त्मान

मनुष्य को प्रकृति का बदलना अत्यन्त कठिन हैं-यह सूक्ति मेरे लिए सवा सोलह आता ठीक साबित हुई बचपन मे जब मैं कलकत्ता--श्री जैनेश्वेताम्बर-तेरापथी-विद्यालय में पढता था, जहाँ तक याद है, मुझे जलपान के लिए प्राय प्रति- दिन एक आना मिलता था | प्रकृति में सग्रह करने की भावना अधिक थी, अत मैं खर्चे करके भी उसमे से कुछ कुछ वचा ही लेता था इस प्रकार मेरे पास कई रुपये इकट्ठे हो गये थे और मैं उनको एक डिब्बी मे रखा करता था

विक्रम सवत्‌ १६७६ मे अचानक माताजी को मृत्यु होने से विरक्त होकर हम (पिता श्री केवलचन्द जी, मैं, छोटी वहन दीपांजी और छोटे भाई चन्दनमल जी) परमक्पालु श्री कालुगणीजी के पास दीक्षित हो गए। यद्यपि दोक्षित होकर रुपयो-पैसो का समग्रह छोड दिया, फिर भी सग्रहत॒ त्ति नही छूट सकी वह धनसग्रह से हटकर ज्ञानसग्रह की ओर झुक गई। श्री कालुगणी के चरणो में हम अनेक बालक मुनि आगम- व्याकरण-काव्य-कोष आदि पढ रहे थे लेकिन मेरी प्रकृति इस प्रकार को वन गई थी कि जो भी दोहा-छन्द-श्लोक-ढाल- व्याख्यान-कथा आदि सुनने या पढने मे अच्छे लगते, मैं तत्काल उन्हे लिख लेता या ससार-पक्षीय पिताजी से लिखवा लेता फलस्वरूप उपरोक्त सामग्री का काफी अच्छा सग्रह हो गया उसे देखकर अनेक मुनि विनोद की भाषा मे कह दिया करते थे कि “धन्न्‌ तो न्‍्यारा मे जाने की (अलग विहार करने की) तैयारी कर रहा है।' उत्तर मे में कहा करता-“दया आप गारटी दे सकते हैँ कि इतने (१० या १५) साल तक आचार्य श्री हमें अपने साथ हो रखेंगे ? क्या पता, कल ही अलग विहार करने

( ९१२ )

का फरमान करदे व्याख्यानादि का सग्रह होगा तो धर्मोपदेश या धर्म-प्रचार करने मे सहायता मिलेगी ।”

समय-समय पर उपरोक्त साथी मुनियो का हास्य-विनोद चल ही रहा था कि वि० स० १३८६ मे श्री कालुगणी ने अचा- नक ही श्रीकेवलमुनि को अग्रगण्य बनाकर रतननगर (थेलासर) चातुर्मास करने का हुक्म दे दिया। हम दोनो भाई (मैं और चन्दन मुनि) उनके साथ थे। व्याख्यान आदि का किया हुआ सग्रह उस चातुर्मास में वहुत काम आया एवं भविष्य के लिए उत्तमोत्तम ज्ञानसग्रह करने की भावना वलवती बनी हम कुछ वर्ष तक पिताजी के साथ विचरते रहे उन्तके दिवगत होने के परचात्‌ दोनो भाई अग्रगण्य के रूप में पृथक्‌ू-पृथक्‌ विहार करने लगे

विशेष प्रेरणा--एक वार मैंने वक्ता बनो' नाम की पुस्तक पढी उसमे वक्ता वनने के विषय मे खासी अच्छी वाते बताई हुई थी पढ़ते-पढते यह पक्ति दृष्टिगोचर हुईं कि “कोई भी प्रन्थ या शास्त्र पढो, उसमे जो भी वात अपने काम की लगे, उसे तत्काल लिख लो ।” इस पक्ति ने मेरी सग्नह करने की प्रवृत्ति को पूवपिक्षया अत्यधिक तेज वना दिया। मुझे कोई भी नई युक्ति, सृक्ति या कहानी मिलती, उसे तुरत लिख लेता फिर जो उनमें विज्ेप उपयोगी लगती, उसे औपदेशिक भजन, स्तवन या व्याख्यान के रूप में गुथ लेता | इस प्रवृत्ति के कारण मेरे पास अनेक भाषाओं मे निवद्ध स्वरचित सैकडो भजन और सैकडो व्याख्यान इकट्ठे हो गए फिर जैन-कथा साहित्य एवं तात्विकसाहित्य की ओर रुचि वढी फलस्वरूप दोनों ही विपयो पर अनेक पुस्तकों की रचना हुई। उनमे छोटी-वड़ी लगभग २४ पुस्तक तो प्रकाश मे चुकी, शेप ३०-३२ अप्रकाशित ही है

हक.)

एक बार सगृहीत-सामग्री के विषय मे यह सुझाव आया कि यदि प्राचीन सग्रह को व्यवस्थित करके एक ग्रन्थ का रूप दे दिया जाए, तो यह उत्कृष्ट उपयोगी चीज बन जाए मैंने इस सुझाव को स्वीकार किया और अपने प्राचीन सग्रह को व्यवस्थित करने मे जुट गया। लेकिन पुराने सग्रह मे कौन-सी सूक्ति, श्लोक या हेतु किस ग्रत्थ या शास्त्र के है अथवा किस कवि, वक्ता या लेखक के है--यह प्राय लिखा हुआ नही था अत ग्रन्थोी या शास्त्रों आदि की साक्षिया प्राप्त करने के लिए--इन भाठ-नौ वर्षो में वेद, उपनिपद्‌, इतिहास, स्मृति, पुराण, कुरान, बाइबिल, जेनगास्त्र, वीद्धशास्त्र, नीतिशास्त्र, वेद्यकद्मास्त्र, स्वप्नश्ास्त्र, शकुनशास्त्र, दर्शन-शास्त्र, सगीत- शास्त्र तथा अनेक हिन्दी, अग्रेजी, सस्क्ृत, राजस्थानी, ग्रुजराती मराठी एवं पजाबी सूक्तिसगहों का ध्यानपुर्वक यथासम्भव अध्ययन किया उससे काफी नया सगम्रह बना और प्राचीन सग्रह को साक्षी सम्पन्न बनाने मे सहायता मिली फिर भी सेद है कि अनेक सूक्तियाँ एव ग्लोक आदि विना साक्षी के ही रह गए | प्रयत्न करने पर भी 'उनकी साक्षिया नही मिल सकी | जिन-जिन की साक्षिया मिली है, उन-उनके आगे वे लगा दी गई हैं। जिनकी साक्षिया उपलब्ध नही हो सकी, उनके आगे स्थान रिक्त छोड दिया गया है। कई जगह प्राचीन सगह के आधार पर केवल महाभारत, वाल्मीकि रामायण, योग-थास्त्र आदि महान्‌ ग्रन्थों के नाममात्र लगाए है, अस्तु

इस ग्रथ के सकलन में किसी भी मत या सम्प्रदाय विशेष का खण्डन-मण्डन करने की हृप्टि नही है, केवल यही दिखलाने का प्रयत्न किया गया है कि कौन क्या कहता है या क्या मानता है | बचद्यधपि विश्व के विभिन्न देशनिवासी मनीपियों के मतों का सकलन होने से ग्रन्थ मे भाषा की एकरूपता नहीं रह

( १४ )

सकी है। कही प्राकृत-सस्कृत, पारसी, उद्द एवं अग्नेजी भाषा है तो कही हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, पजाबी और बगाली भाषा के प्रयोग है, फिर भी कठिन भाषाओं के ध्लोक, वाक्य आदि का अर्थ हिन्दी भाषा में कर दिया गया है | दूसरे प्रकार से भी इस ग्रन्थ मे भाषा की विविघता है। कई ग्रन्थों, कवियो, लेखको एवं विचारको ने अपने सिद्धान्त निरवच्यभापा में व्यक्त किए है तो कई साफ-साफ सावद्यभाषा में ही बोले है मुझे जिस रूप मे जिसके जो विचार मिले है, उन्हे मैंने उसी रूप मे अकित किया हैं, लेकिन मेरा अनुमोदन केवल निर्वद्-सिद्धान्तो के साथ है

ग्रन्थ फी सर्वोपियोगिता--इस ग्रन्थ मे उच्चस्तरीय विद्वानों के लिए जहाँ जैन-बौद्ध आगमो के गम्भीर पद्य है, वेदों, उप- निषदो के अद्भुत मत्र हैं, स्मृति एवं नीति के हृदयग्राही इलोक है वहाँ सर्वसाधारण के लिए सीघधी-सादी भाषा के दोहे, छन्द, सूक्तियाँ, लोकोक्तियाँ, हेतु, दृष्टान्त एवं छोटी-छोटी कहानियाँ भी है। अत. यह ग्रन्थ नि.सदेह हर एक व्यक्ति के लिए उपयोगी सिद्ध होगा--ऐसी मेरी मान्यता है। वक्ता, कवि और लेखक इस प्नन्थ से विशेष लाभ उठा सकेंगे, क्योकि इसके सहारे वे अपने भाषण, काव्य और लेख को ठोस, सजीव, एवं हृदयग्राही बना सकेंगे एव अदभुत विचारों का विचित्र चित्रण करके उनमे निखार ला सकेंगे, अस्तु ! _

ग्रन्थ का नामकरण-इस बन्थ का नाम ववतृत्वकला

वीज' रखा गया है ववक्‍तृत्वककला की उपज के निमित्त यहाँ केवल बीज इकट॒ठे किए गए हैं। छीजो का वपन किसलिए, कैसे, कव और कहा करना-यह वप्ता (बीच बोनेवालो) की भावना एवं वुद्धिमत्ता पर निर्भर करेगा। फिर भी मेरी मनोकामना तो यही है कि वप्ता परमात्मपदप्राप्ति रूप फलोी

( १५ 9)

के लिए शास्त्रोक्तविधि से अच्छे अवसर पर उत्तम क्षेत्रों मे इन बीजो का वपन करेगे अस्तु !

यहाँ मैं इस बात को भी कहे बिता नहीं रह सकता कि जिन ग्रन्थो, लेखो, समाचार पत्रो एवं व्यक्तियों से इस ग्रन्थ के सकलन में सहयोग मिला हैं--वे सभी सहायक रूप से मेरे लिए चिरस्मरणीय रहेगे

यह ग्रथ कई भागो मे विभक्त हैं एव उनमे सैकड़ो विषयो का सकलन है उक्त सग्रह बालोतरा मर्यादा-महोत्सव के समय मैंने आचार श्रीतुलसी को भेट किया। उन्होने देखकर बहुत प्रसन्नता व्यक्त की एव फरमाया कि इसमे छोटी-छोटी कहानियाँ एवं घटनाएँ भी लगा देनी चाहिये ताकि विशेष उपयोगी बन जाए आचार्य श्री का आदेश स्वीकार करके इसे सक्षिप्त कहानियाँ तथा घटनाओ से सम्पन्न किया गया।

मुनिश्वी चन्द्नमलजी, डू गरमलजी, नथमलजी, नगराज जी, मधुकरजी, राकेशजी, रूपचन्दजी आदि अनेक साधु एव साध्वियो ने भी इस ग्रन्थ को विशेष उपयोगी माना | वीदासर- महोत्सव पर कई सतो का यह अनुरोध रहा कि इस संग्रह को अवश्य धरा दिया जाए!

सर्वे प्रथम वि० स० २०२३ में श्री डू गरगढ के श्रावको ने इसे धारणा शुरू किया फिर थली, हरियाणा एवं पजाब के अनेक ग्नरामो-नतगरो के उत्साही युवकों ने तीन वर्षो के अथक- परिश्रम से घारकर इसे प्रकाशन के योग्य वनाया !

मु हृहविश्वास है कि पाठकंगण इसके अध्ययन, चिन्तन एवं मनन से अपने बुद्धि-वेभव को क्रमण, बढाते जायेगे--

वि० स० २०२७ मृगसर बदी मगलवार, रामामडो, (पजाव) “+घनमुनि 'प्रथर्मा

(अनुक्रमणिका

पहला फोष्ठफ पृष्ठ से ६६

श्रावक (श्रावक की पूर्व भूमिका), श्रावक का स्वरूप, श्रावक के ग्रुण, श्रावक धर्म, श्रावक के विपय में विविध, सामायिक, सामायिक के विपय में विविध, सामायिक का प्रभाव, नाम की सामायिक, १० पौपघ, ११ तप, १२ तप से लाभ, १३ तप कैसे और किसलिए, १४ तप के भेद, १५ अनश्यन, १६ उपवास, १७ प्रायश्चित्त १८ प्रायश्चित्त के भेद, १९ आलोचना, २० आलोचना के विपय में विविध, २१ आलोचना के दोप, २२ आवश्यक, २३ वैयावृत्य

( १७ ) दूसरा फोष्ठक पृष्ठ ६७ से १३८

ध्यान, ध्यान से लाभ, ब्याता (ध्यान करने वाला), स्वा- व्यायब्यान की प्रेरणा, समाधि, आहार, भोजन, भोजन की विधि, भोजन कंसा हो २, १० भोजन के भेद, ११ भोजन में मावश्यक तत्व, १२ रासायनिक तुलनात्मक चार्ट, १३ भोजन का ध्येय, १४, भोजन की शुद्धि, १४ भोजन का समय, १६ भोजन के समय दान, १७ भोजन के बाद, १८ भोजन की मात्रा, १९ मित भोजन, २० अति भोजन, २१ अधिक खाने वाले आदमी, २२ राक्षसी खुराकवाले व्यक्ति, २३ मुफ्त का खाने वाले, २४ रातिभोजन निपेघ, २५ राविभोजन से हानि, २६ रात्रि भोजन के त्याग से लाभ, २७ भुख, २८ भूल में स्वाद, २६ भूखा, २० भूखा कया नही करता, ३१ पेट, ३२ पानत्ती

तीसरा फोष्ठक पृष्ठ १४२ से २०३

मोक्ष (मुक्ति), मोक्ष की परिभापाए, रे मोक्ष-स्थाव, मोक्ष-मार्य, मोक्ष के साधन, मोक्षेगामी कौन, मुक्त आत्मा, सिद्ध भगवान, मुक्ति के सुख, १० ससार, ११ संसार का स्वरूप, १२ ससार के भेद, १३ दु खरूप ससार, १४ सबको दु ख, १५ सुख- दु खमय ससार, १६ गतानुगतिक ससार, १७ परिवरतंनशील ससार, १८ संसार का पागलपन, १६ ससार का स्वभाव, २० दृष्टि के समान सृष्टि, २१ ससार की उपमाएं, २२ दुनिया की ताकत, २३ जग्रत को वद्य करने के उपाय, २४ संसार की विज्यञालता, २५ नरक संसार, २६ नरक के दुख, २७ नरक में जाने के कारण, २८ भरकगागी कौन ? २६ देव मसार, ३० दँविक चमत्कार की विचिन वातें।

चौथा फोप्ठक पृष्ठ २१७ से ३२३

तियंडझ्च ससार, आइचयंकारी निर्यक्च, दुश्यमान विश्व

६385.

में पशु-पक्षी, मनुष्य ससार, मनुष्य का स्वभाव, मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य के लिए शिक्षाएँ, मनुष्य का महत्व, मनुष्य की दस अवस्थाएँ, १० मनुष्य के प्रकार, ११ मनुष्य जन्म"की प्राप्ति १२ मनुष्य जन्म की श्रेष्ठता, १३ मनुष्य जन्म की दुल्लंभता, १४ दुलंभ मनुष्य जन्म को हारो मत, १४ मानवता, १६ आइचर्यकारी मनुष्य, १७ आइचर्यकाॉरी मनुष्यणिया, १८ मनुष्य के विषय मे ज्ञातव्य बातें, १६ मनुष्य लोक, २० वैज्ञानिको के मतानुसार पृथ्वी आदि का जन्मकाल, २१ दुृश्यमान जगत की आबादी, २२ भारत की कतिपय विशेष ज्ञातव्य बाते

चारो कोष्ठको मे कुल १०७ विषय तथा दस भागों मे लगमभेंग१५०० विषय हैं

पाँचवां भाग

वक्‍तृत्वकला के बीज

र्ाक्र

बन

5२०67 + 2४४ 25४४6:

>> कट आम ज्ल्न्जी

पहला कोण्द्क ऑगक बक

अआवक की पूर्वेशुसिका-7

न्‍्यायंसम्पन्नविभर्व - प्रशसकः लगीलसमे साद्ध कृतोद्ाहोन्यग गेत्रज ४४७७१ पापभीर प्रसिद्ध 3 देशाचार समाचरच्‌ |

कृतसज्भ सदाचारे-मातापित्रोदच पूजकः च्यजन्नुपप्लुत स्थान-मप्नवृत्तरच गहिते ॥५०॥

व्ययमायोचिंत कुंवर! अष्टर्मिर्धीगुणयु क्त :

बेषवित्तानुसारत शुण्वानो धर्ममन्वहम्‌ ॥४१॥

अजीरो भोजनत्यागी, काले सोक्ती चे सात्म्यत'

अस्योन्याइप्रतित सटे त्त। यथावदरतिथों साधौ,

त्रिवर्गमपि साधथयन श्र दीने प्रतिपत्तिक्ृत पक्षपाती गुणेपु वे ॥५३॥

बलावलम ) पूजक पोष्यपोषक ॥रैंडी।

सदा इ्नशिनिविष्टश्च, अदेश कालयोइचर्यो, व्यजन जानने चूसस्थज्ञानवुद्धाना,

बकत॒त्वकलां के वीज

दीर्घदर्शी विशेषज्ञ, कृतज्ञों लोकवल्लभ सलज्ज सदय- सौम्य, परोगक्ृतिक्र्मठ' ॥५५॥ भन्तरज्भारिषड्वर्ग - परिहार - परायणा *। वणीक्ृतेन्द्रियप्रामो, . ग्रृहिर्माय कल्पते ।।५६॥ -योगशास्त्र ग्ृहस्थधर्स को पालन करने का पात्न अर्थात्‌ क्षावक वह होता हैं, जिसमे निम्नलिखित विशेषताएं हो-- (१) न्याय-नीति से धन उपार्जन करनेवाला हो (२) शिप्टपुरपो के आचार की प्रशसा करनेवाला हो (३) अपने कुल और शील में समान भिन्न गोत्रवालो के साथ विवाह-सम्बन्ध करनेवाला हो (४) पापों से डरनेवाला हो (५) प्रसिद्द देशांचार का पालन करे (६) किसो की और विशेषरूप से राजा आदि की निन्‍्दा ने करे। (७) ऐसे स्थान पर घर बनाए, जो एकदम खुला हो और एकदम गुप्त ही हो (८) घर में वाहर निकलने के द्वार अनेक हो (६) सदाचारी पुग्षो की मगति करता हो (१०) माता-पिता की सेवा-भवित करे (११) रगडे-झगड़े और व्खेडे पैदा करतेवाली जगह से दूर रहे, अर्थात्‌ चित्त में क्षोम उत्पन्न करनेवाले स्थान मे रहे (१२) किसी भी निन्‍्दनीय काम मे प्रवृत्ति करे (१३) आय के अनुसार ही व्यय करे | (१४) अपनी आधिवम्थिन्रि के अनुसार वस्त्र पहने

पाचवा भाग पहला कोष्ठक डरे

(१५) के आठ गुणों से युक्त होकर प्रतिदिन धर्म-श्रवण करे (१६) अजीर्ण होने पर भोजन करे | (

१७) नियत समय पर सच्तोष के साथ भोजन करे

१८) पर्म के साथ अथनपुरुपार्थ, काम-पुरुषार्थ और मोक्ष-पुरुषार्थ का इस प्रकार सेवन करे कि कोई फिसी का वाघक हो

(१६) अतिथि, साधु और दीन-असहायजनों का यथायोग्य सत्कार करे |

(२०) कभी दुराग्रह के वणीभूत हो

(२१) गुणों का पक्षपाती हो--जहाँ कही ग्रुण दिखाई दे, उन्हें ग्रहण करे और उनकी प्रश्मसा करे

(२२) देश और काल के प्रतिकूल आचरण करे

(२३) अपनी शवित और असवित को समझे अपने सामथ्य का विचार करके हीं किसी काम में हाथ डाले, सामर्थ्य होने पर हाथ डाले

(२४) सदाचारी पुरुषो की तथा अपने से अधिक ज्ञानवान्‌ पुरुपो की विनय-भवित करे

(२५) जिनके पालन-पोप्रण करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर हो, उनका पालन-पोपण करे

(२६) दीषंदर्णी हो अर्थात्‌ लागे-पीछे का विचार करके कार्य करे।

(२७) अपने हित-अहित को सम'े, मलाई-बुशई को समझे

(२८) लोकण्िय हो अर्थात्‌ अपने मदाचार एवं सेवा-कार्य के द्वारा

जनता का प्रेम सम्यादित करे

(-६) एनज् हो अर्थात्‌ अपने प्रति किये हए उपकार फो नम्रता- पदक स्वीकार कर

वबतृुत्वकला के बोज

(३०) लज्ञांशील हो, अर्थात्‌ अनुचित कार्य करने मे लज्जा का अनुभव करे (३१) दयावान्‌ हो

(३२) सोम्य हो--चेहरे पर शान्ति और प्रसन्नता झलकती हों

(३३) परोपकार करने में उद्यत रहे | दूसरो की सेवा करने का अवसर आने पर पीछे हटे

(३४) कम्म-त्रोधादि आन्तरिक छह शभज्ुओ को त्यागने में उद्चत हो। (३५) इन्द्रियों को अपने वश में रखे ?

जैसे बीज बोने से पहले क्षेत्र-शुद्धि की जाती है। ऐसा किया जाए तो यथेष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती तथा दीवार खड करने से पहले नीव मजबूत कर ली जाती है नीव मजबूत से की जाय तो दीवार के किसी भी समय गिरजाने का खतरा रहता है। इसी प्रकार गृहस्थधम-श्रावकत्नत को अंगीकार करने से पहले आवश्यक जीवन-शुद्धि कर लेना उचित है यहाँ जो वात वतलाई गई हैं, उन्हे ग्रहस्थ-धर्म की नीव या आधार-भूमि समझना चाहिए इस आधार-भूमि पर ग्रहस्थधर्म का जो भव्यप्रामाद

स्वुडा होता है, वह स्थायी होता है। उसके गिरने का भय नहीं रहता

इन्हें मार्गानुसारी के ३५ गुण कहते हैं इनसे कई ग्रुण ऐमे हैं, जो केवल लोकिक्जीवन से सम्बन्ध रखते हैं। उन्हे ग्रहस्थन्य्म का आधार वतलाने का अर्थ यह है कि वास्तव मे जीवन एक

पाँचवा भाग पहला कोष्ठक प्‌

अखण्डवस्तु है। अत लोक-व्यवहार मे ओर पघर्म के क्षेत्र मे उसका विकास एक साथ होता है जिसका व्यावह्वारिकजीवन पतित और गया-वीता होगा, उसका धार्मिकजीवन उच्चश्र णी का नही हो सकता अत ब्नत्तमय जीवनयापन करने के लिए व्यावहारिक्जीवन को उच्च बनाना परमग्वध्यक है। जब व्यव- हार में पवित्रता आती है, तभी जीवन धम-साबना के योग्य बन पाता है

मोगशास्त्रकार श्री हेमचन्द्रनचायं के मन्तब्य से

गा

ग्।

भावक का स्वरूप

श्रद्धालुता श्रातिपदार्थचिन्तनाव्‌, भनानि पात्रेषु वपत्यनारतम्‌ | किरत्यपुण्यानि सुसाबुसेवना- -देतोपि तं श्रावकमाहुरत्तमा

--श्राद्धविधि, प्रृष्ठ ७२, इलोक श्रा-वह तत्त्वार्थचिन्तन द्वाना श्रद्धालुता को सुहृढ करता है। व-निरम्तर सत्पात्रों में धनस्प बीज बोता ह# | क-शुद्धसावु की सेवा करके परापध्ृथि को दूर फंकता रहता

है अत उसे उत्तमपुरुषो मे श्रावक कहा हैं। शा-श्रद्धावान हो, ब-विवकी हो, क-क्रियावान हो, वह श्रावक है --धासीरामजी स्थामी

उपासन्ते सेवन्ते साधन, इति उपासका श्रावका !

--उत्तराष्ययन टीका साधुओं की उपासना-मेवा करते है अत श्रांवक उपासक बे ताते है अश्रमणानुपास्ते इति श्रमस्गोपासक *

--+उयपासकदज्ञा टीका

द्ध तर

पाँचवा भाग पहला कोष्ठक |

श्रमणो-साधुओ की उपासना करने से श्रावक श्रमणोपासक कह- लाते हैं अपि दिव्वेसु कामेसु, रति सो नाधिगच्छति | तिण्हक्खयरति होति, सम्मा वुद्धसावकों --धम्मपद १६७ दिव्य काम-भोगो मे जिसे रति नहीं होती एव तृष्णा के क्षय होने से सुख होता है, वही बुद्ध का सच्चा श्रावक है सागारा अनगारा च, उभो अज्ज्योब्ध्य निस्सिता। आराधघयन्ति सद्धम्म, योगक्सेम अनुत्तर --इतिवुत्तक ४८ गृहस्थ और प्रत्नजित (साथु) दोनों ही (एक-दूसरे के सहयोग से कल्याणकारी सर्वोत्तम सदधर्म वा पालन करते है

रे

श्रावक के गुण

१. केयवयकम्मों तह सीलवं, गुएणव उज्जुबवहारी

गुरु सुस्सूसो पवयरा-कुसलो खलु सावगो भावे ॥।

-धर्मरत्न प्रकरण ३३ (१) जो ब्रतो का अनुप्ठान करनेवाला हैं, जीलवान है, (२) स्वाध्याय-तप-विनय आदि गुगयुक्त है, (३) सरल व्यवहार करनेवाला है, (४) सद्‌गुरु की सेवा करनेवाला है, (५) प्रववनकुशल है, वह 'भावश्नावक' है।

शील का स्वरूप इस प्रकार है-

र्‌.

(१) धामिकजनो युक्त स्थान मे रहना,

(२) आवश्यक कार्य के विना दूसरे के घर जाना,

(३) भडकीली पोशाक नही पहनना,

(४) विकार पैदा करनेवाल वचन बोलना,

(५) दूत आदि खेलना,

(६) मधुरनीति से कार्यसिद्धि करना

इन शीलो से युक्‍त श्रावक शीलवान' होता है।

से जहानामए समणोवासगा भवंति | अभिगय-जीवाजीवा, उवलद्ध-पुण्ण-पावा, आसव-संवर-वेयणा -रिज्जरा-किरिया- हिगरणा-वंध-मोक्ख-कुसला, असरहेज्ज-देवासुर-ताग- सुवण्ण- जक्ख-रकक्‍्खस-किन्नर किपुरिस-गरुल-गधव्व-महोरग।इहि देव-

गणेहि निरगन्थाओं पावयरणाओ अणाइकक्‍्कमरिज्जा, इण- पद

पाँचवा भाग पहला कोष्ठक &्‌

भेव निःग्गथपावयरों निस्सकिया रिक्कखिया निब्विति- गिच्छा लद्धट्ठा गहियद्ठा पुच्छियद्वा विरिणच्छियट्वा अभिगयट्ठा अटि्ठ-मिज्जपेमाणपू रागरत्ता--“अयमाउसो ! निग्गथे पाव- यरो अटठे, अय परमटठे, सेसे अणशट॒ठे-- ।” उसिय-फलिहा, अवगुय-दुवारा, अचियत्ततेउर-परघर-पवेसा, चाउह्सट्ठ- मुहिट्उ-पुण्णिमासिणीसु पडिपुन्न पोसह सम्म अणुपालेमाणा समणोे निग्गथे फासु-एसणिज्जेणा असण-पाण-खाइम-साइ- मेण वत्य-पडिग्गह-कम्बल-पायपुच्छणेण ओसह-भेसज्जेण पीढ-फलग-सेज्जा-सथारएण पडिलाभेमाणा, बहूहि सील- व्वय-गुण-वरेमण-पच्चक्खारा-पोसहोववासे हि. अहापरिग्ग- हिएहि. तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणा विहरति। ते णं एयारूवेरणा विहारेण बहूइ वासाइ समणोवासग- परियाग पाउणुति, पाउशित्ता आवाहसि, उप्पन्नसि वा अरुप्पन्न सि वा बहूइ भत्ताईं अणसणाए पच्चक्खायंति, बहइ भत्ताइ अणसरणाए पच्चक्खाएत्ता, बहूुइ भत्ताड बण- सणाए छेदे ति, वहुइन भत्ताइ अणसरणाए छेइता आलोइय- पछिक्क्रता समाहिपत्ता कालमासे काल किच्चा अन्नयेरसु देवनोएसु देवत्ताए उववत्तारों भवति, जहा--महड्डिएसु महज्जुइएसु जाव महासुक्खेसु

-+सूुत्रकृताग श्रू २२२४ जैसे कि कई श्रमणोपासक छोते हैं। वे जीव-अजीव के ज्ञाता, पृष्य- पाप के रहस्य के जाननेवाले, आश्रव, नवर, वेदना निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के ज्ञान में कुझल, किसी की सहायता से रहित, देख, जसुर, किन्नर, यक्ष सादि देवगणों के

१०

नए +

वक्‍्तृत्वकला के बीज

हारा निम्न॑न्थप्रवचन से हटने के लिए वाघ्य किये जाने पर, निग्र न्थप्रवचन में शट्झा, काइक्षा, विविकित्सा से रहित, अर्थ- आशय को पाकर, ग्रहणकर, पूछकर निदचय करनेवाले, जानने वाले, वे अस्थि-मज्जा मे निग्र न्थ-प्रवचन के प्रेम से रगे हुए, उनका कहना है कि-“आयुप्मन्‌ ! यह निग्रन्थप्रवचन ही अर्थ है, पर- मार्थ है, इसके सिवा शेप व्यर्थ है ।” उनके ग्रह-द्वारों की अगला खुली रहती है अर्थात्‌ साधुओ के लिए उनके द्वार खुले रहते है | वे दूसरे के अत पुर या घर मे प्रवेश करने की लालसा नहीं रखते वे चउदस, आठम, अमावस और पूनम के दिन प्रतिपूर्ण पौपध का सम्यक्‌ पालन करते है श्रमण-निम्न न्‍्थ को भिरवच, एपणीय खान-पान, मेवा-मुखवास, वस्त्र पात्र, दवाई, पाट-पाटिए गादि देते है और बहुत से शीलब्नत, ग्रुणव्रत, विरमणकब्नत, प्रत्या- स्यानव्रत, पौपब-उपवास आदि ग्रहण किए हुए तप कर्मो के द्वारा आत्मा को भावित करते रहते हैं इस प्रकार बहुत वर्षो तक श्रमणोपासक-अवस्था का पालन करके, रोगादि बाबायें उत्पन्न होने या होने पर, अनक्षन करके ओर आलाचना प्रति- क्रमण करके, शाति से मरकर देवलोक में महृद्धिक, महा द्य तिवाले एवं महसुखी देवता होते हैं धम्मरयणास्पजोगो, अक्वुद्दों रूवव पगइ्सोम्मों। लोयप्पियो अक्कूरो, भीर असठों युदक्खिब्नों। लज्जालुओ दयालु, मज्यत्थो सोम्मदिद्वी गुण रागी सक्‍कह सपक्खजुत्तो, युद्ीहदसी विसेसस्तू बुइढाणागों विशणीओ, कयन्नुओ परहिअत्थकारी तह चेव लद्ध लक्खो, एगवीसगुणों हवड साइडो। --प्रवचन सारोद्धार २३६ गाथा १३५६ से १४घश८ सर्वज्ञभाषित धर्म के योग्य श्रावक के २१ ग्रुण कहे है। यथा-

पाँचवा भाग पहला कोष्ठक ११

अक्षुद्र, रूपवान्‌, हे प्रकृत्तिसौम्य, लोकप्रिय, अक्र,र पापभीरु, अशठ (छल नही करनेवाला), सदाक्षिण्य (धर्मकार्य में दूसरों की सहायता करनेवाला), लज्जावान, १० दयालु, ११ रागढ्व परहित (मध्यस्थमाव मे रहनेवाला), १२ सौम्यहृष्टिवाला, १३ गुणरागी, १४ संत्यक्थन में रूचि. रखनेवाले - धार्मिक्परिवारयुत्त, १५ सुदीर्घदर्णी १६ विज्लेषज्ञ, १७ वृद्ध महापुरुषों के पीछे चलनेवाला, १८बिनीत, १६ कृतज्ञ (कए हुए उपकार फो समझनेवाला), २० परहित्र करनेवाला, २१ लब्वलद्षप् (जिसे लक्ष्य की प्राप्ति प्राय हो गई हो ।)

पृ

श्रावक-धर्म

१. परे अणुव्वयाईं, ग्रुणब्वयाइ हुति तिन्‍्नेव। सिक्खावयाइ चउरो, सावगधम्मो दुवालसहा।

--आवकधर्म प्रज्मप्ति पाच अणुब्रत, तीन गरुणब्रत, और चार शिक्षात्रत--इस प्रकार 'श्रावकधर्म' वारह प्रकार का है

२. अगारि सामाइयंगाइ, सडढी काएश फासए। पोसहं दुहओ पक्‍ख, एगराय हावए॥।

-+5उत्त राष्ययन ५२३ श्रद्धालु-आ्रवक को नि शद्धित आदि सामायिक के आठो अग्रो का पालन करना चाहिए। दोनो पक्षों मे अमावस्या-पूर्णिमा को पोपषध करना चाहिए, कदाचित्‌ दो हो सकें तो एक तो अवश्य करना ही चाहिए

श्रावक के प्रकार--- १. उवासगो दुविहो, पण्णत्त , त॑ जहा-वती, अवती वा “-निशी+4 उ० १६ चूणि उप्रामक-श्रावक दो प्रकार के होते हैं--- ब्रती, और अव्रती--[सम्यगृहप्टि ॥) ४. नामादि चडभेओ, सड्छडो भावेश इत्थ अह्िगारो, तिविहो य. भावसडढो, दसगण॒न्‍्वय-उत्तरगुरोहि। --शाद्धविधि गाया १२

पाँचवा भाग पहला कोष्ठक १३

नामश्नावक, स्थापनाश्रावक, हे द्रग्यश्रावक, ४॑ भाव- श्रावके, इस प्रकार ध्रावक के चार भेद हैं) यहा भावश्वावक का अधिकार है भाव शक्रादक के तीन प्रकार-- दर्शनश्रावक-कृष्ण-श्रं णिक आदिवत्‌ अन्नतीसम्यग्दृष्टि, ब्रती श्रावक-पाँच अणुन्नतधारी, पु उत्तरगुणाश्रावक-सम्पूर्ण वारहन्रत घारण करनेवाला चवबदे चुक्‍यो बारह भुल्यो, नही जाणे काया का नाम गाँव ढढरो फेरियो, श्रावक म्हारों नाम! -राजस्थानी दोहा चतारि समणोवासगा पण्णत्ता, जहा- अम्मापिइसमाणे, भाइसमाणे, मित्तममाणों, सवत्तिसमाणं +स्थानाड़्ू ४॥३१३२१ पार प्रकार के श्रावक कहे हैं-- माता-पितासमान-एकान्त में हितक्षिक्षा देकर साधुओ को सजग करनेवाले भारसमान-साधुओ को प्रमादी देखकर चाहे ऊपर से क्रोध भी करे, किन्तु हृदय में हित की इच्छा करनेवाले | मित्रममान-साघधुओ के दोषो की उपेक्षा करके केवल ग्रुण को लेनेवाले सपत्नीसमान-साधुओ के छिद्र देखनेवाले | चतारि समणोव्रासगरा पण्णत्ता, त्त जहा-

अद्यागसमारणो, पडायसमाणे, खाखुसमाणे, लरकटसमांणे स्यानाहु ४।३३२१

श्४

बवतृत्ववाला के बीज

श्रावक चार प्रकार के कहे हैं---

की

दर्पण-समान-साधु के बताये हुए हत्व को यधावत्त्‌ प्रति+ पादन करनेवाने

पताका-रमान«ध्वजावत हवा के साथ इधरूउधर खीचे जानेवाले-अग्घिस्मस्तिष्क के | स्थाणु-समान-सूसे लकडे की त्तह्‌ कथओर--अपना कदाग्रह नही छोडनेवाले कण्टक-समान-समझाने पर भी भानकर कुबचनरूप-काँटां चुजानेवाले |

प्रा

नं

श्रावक के विषय में विविध

श्राचवक के चार विश्वाम--

१, समणोवासगस्स चत्तारि आसासा पण्णत्ता, जहा--जत्थ विय सीलव्वय-गुणव्वय-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोव- वासाइ पडिवज्जइ, तत्थ विय से एगे आमासे पन्नत्त जत्थ वियण सामाइय देसावगासिय सम्ममणुपानेड, तत्थ वि से एगे आसासे पनन्‍्नत्त | जत्थ वि रण चाउहसद्व रे हिट्व- पुण्णिपासिग्गीसु पडिपुण्ण पोसह सम्म जणशुपालेड, तत्थ विय से एगेआसासे पन्‍नत्त | जत्य विय ण॒ अपच्छिम- मारणतियसंलेहरगा-भ्सणाभूसिए भत्तपाणवयडियाइक्खिए पाओवगए कालमणावकखमाणं विहरइ, तत्थ वि यसे एगे आसासे पन्‍नत्त >स्थानाज़ ४३३१४

भारवाहक को भाँति श्लावक के चार विश्वाम है--

4

ठे

जिस नमयथ श्रावक पाँच अगुनश्नत, तीन गुण॑त्रत, नवकारसी आएि प्रत्यास्यान तथा अप्टमा-चनुदंशी आदि के दिन उप- बाद बारण करता है, उस समय प्रथम विश्वाम होता है जब धावक सामाप्रिक एवं देशावक्राशिक ब्रत का पालन पफरता है, तब दूसरा विधाम होता है

चनुदंगी, अप्दमी, अमावस्या, पृणिमा आदि परव्व-तिथियों श्प्‌

१८

ववतृत्वकला के बोज

दसवीं प्रतिमा से श्रावक अपने लिए बनाया हुआ भोजन नही करता कोई हजामत करवाता है एवं कोई शिखा भी रखता है घरसम्बन्धी कार्यों के विपय में पूछने पर मैं जानता हु या नहीं जानता इन दो वाक्यों से ज्यादा नही बोल सकता

ग्यारह॒वीं प्रतिमा मे श्रावक साधु के समान वेष धारण करता है एवं प्रतिलिखन आदि क्रियाएं करता है, लेक्नि सासारिक प्रेम अपमान के भय से अपने स्वजन-सम्बन्धियों के घरो से ही भिक्षा लेता है तथा क्षुर॒से हजामत करता है और कोई-कोई साधु की तरह लोच भी करता है।

श्रावक श्री रूपचन्दजी- जन्म १६२३ जेठ सुदी १०, स्वरंवास १६८३ फाल्गुन सुदी ७, एक घटा पाँच मिनट का संथारा स्नान में पाँच सेर जल, घटाते- घटाते अन्त मे ४५ तोला रखा रेल मे जलपान भी नहीं, वि. १६७२ के वाद रेल का त्याग छत्ता नही , शयन मे तकिया नही | जवान के पावन्द, स्पप्टववता, कपडा ५६ हाथ, सामायिक- पौपध में प्राय फिरते नहीं, सहारा लेते नहीं। सामायिक अन्तिम दिन तक, आचार्य डालगणी को विशेष कृपा --'श्रावक रूपचन्दजी' पुस्तक से

प्र

<०

सासमाधिक

समानि ज्ञान-दर्शन-चा रित्राणि,, तेंपु अयन-गमन समाय , एवं सामाधिकम्‌

मोक्षमार्ग के साधन ज्ञान-दर्शन-चारित्र सम कहलाते हैं, उनमे अयन यानी प्रवृत्ति करना सामा यिक्क है

समभावो सामाइय, तर/-कचरण-सत्त -मित्त विसउ त्ति

शिरभिस्सग॒ चित्त, उचियपवित्तिप्पाण च। “-पचाशक

चाहे तिनका हो, चाहे सोना, चाहे शग्नु हो, चाहे मित्र, सर्वश्न अपने मन को राग-#प की आसक्ति से रहित रखना तथा पाप- रहित उचित धामिकप्रवृत्ति करना, 'सामायिक' है, समभाव ही सामायिक है।

समता सर्वभूतेपु, सयबम शुभ-कामना आर्तरौद्र-परित्याग-स्तद्धि सामायिक ब्रतम्‌

सब जोबो पर समतान्सप्रभाव रखना, पाँच इन्द्रियो का संयम- नियप्रण करना, अन्तहं दय में घुभभावना शुमसकत्प रखना, आतं-रौद्र दुर््यानों का त्याग करके घमंब्यान का चिस्तन करना मामायिक है

त्वक्तारतं-रौद्र ध्यानस्य, त्यक्तसावच्कर्मण

मुहर्ता समता या ता, विदु' सामायिक ब्रतम्‌ “>-योगशारस ३॥८२

१६

ववतृत्वकला के बीज

आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान का त्याग करके तथा पापमय कर्मो का त्याग करके मुहूर्त-पर्यन्व समभाव में रहना 'सामायिवद्रत' है सामाइय नाम सावजञज्जजोगरिवज्जण निरवज्जजीग- पडिसेवण --आवश्यक-गवबचूरि

सावद्य अर्थात्‌ पापजनक कर्मों का त्याग वरना और निरबद्य अर्थात्‌ पापरहित कार्यो को स्वीकार करना सामायिक' है

आया सामाइए, आया साथाइयस्स अटठे --भगवती १६

है आर्य ! आत्मा हो सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का भ्र्थ-फल है

सामायिक का महत्त्व--

सामाइयम्मि कए, समणो इव सावओ ह॒वइ जम्हा | एएणर कारणेण, वहुसो सामाइय कुज्जा ॥! --विशेषावहक््यक-भाष्य २६६० >+तथा आव्ययक-निर्श क्ति ८००११ सामायिकब्रत भलोभाति ग्रहण करलेने पर श्रावक भी साधु जेसा हो जाता है, आव्यात्मिक-उच्चदशा को पहुच जाता है, अत' श्रावक का कर्त्तव्य है कि वह अधिक से अधिक सामायिक करे |

सामाइय-वय-जुत्तो, जाव मणो होइ नियमसंजुत्तो छिन्नइ असुह कम्मं, सामाइय जत्तिया वारा ॥! --आवदयक नियुक्ति ८००२ चंचल मन को नियत्रण में रखते हुए जब तक नामायिक व्रत की अग्पण्डबारा चालू रहती है तव तक अशुभकर्म बराबर क्षीण

28 20082 होने रहते हैं

पाँचवा भाग - पहला कोष्ठक २१

६. जे के वि गया मोक्‍्ख, जेवि गच्छति जे गमिस्सति

ते सब्वे सानाइय- पभावेश मुणेयव्व

जो भी साधक अतोतकाल में मोक्ष गये है, वर्तमान मे जा रहे

हैं और भविष्य मे जायेंगे, यह सब सामांयिक का प्रभाव है

कि तिव्वेण तवेश, कि जवेश कि चरित्त ण।

समयाइ विण झुक्‍्खों, हु हओ कहुवि हु होइ --सामायिकप्रवचन, प्रृष्ठ ७८

चाहे कोई कितना ही ततीन्र तप तपे, जप-जपे अथवा म्ुनि-वेष

घारण कर स्थूल क्रियाकाण्डरूप चारित्र पाले, परन्तु समताभाव

रूप सामायिक के विना किसी को मोक्ष हुआ है और होगा

पृ

हा

सामायिक के विषय में विविध

१. सामायिक्क के अधिका री--

जो समो सब्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य।

तस्स सामाइय होइ, इइ केवलि-भासिय

जस्स सामाणिओ अप्पा सजमे णियमे तवे )

तस्स सामाइय होइ, इंइ केवलि - भासिय |

जो साधक श्रस-स्थावररूप सभी जीवों पर समभाव रखता है, उसी का सामायिक शुद्ध होता है--ऐसा केवली-भगवान्‌ ने कहा है

जिसकी आत्मा सयम, तप और नियम मे सलग्न हो जाती है, उसी का सामायिक शुद्ध होता है--ऐसा केवली-भगवान्‌ ने कहा है।

सामायिक के भेद--

दुविटे सामाइए पण्णत्त, जहा--आगा रसामाइए चेव, अरशागारसामाइए चेव -स्थानाज़ २३ सामायिक दो प्रकार का कहा है-

(?) आगारसामायिक और (९) अनयार सामायिक सामायिक के अतिचार--

एयरस नवमस्स साझाइयवयस्स, पच अब्यारा जाणियव्वा, समायन्यव्वा, ते जहा-मण-दुप्पणिहाणों, वय-दुप्स

णज्र कर

पाँचवा भाग पहला कोष्ठक र्‌३

खिहाणे, काय-दुप्पणिहारों , समाइयस्स सइ-अकरणाया, सामाइयस्स अणवद्ठियस्स करणया, तस्स मिच्छामि दुक्‍्कई --श्रावक-आवश्यक इस नौोवें सामायिकश्मत के पाच अतिचार जानने योग्य हैं, लेकिन धावक के लिए वे आचरन योग्य नही | यथा-- मच की दुष्प्रवृत्ति, वचन की दुप्प्रदृत्ति, काया की दुष्प्रदृत्ति, सामायिक की स्मृति रखना, सामायिक को अव्यवस्थित करना

४. सामायिक के ३.२ दोष-- सन के दस दोष-- अविकेक जसो-कित्ती, लाभत्थी गव्ब-भय नियाणत्थी ससय-रोस अविणलो, अवहुमाणए दोसा माशियवा अविवेक, यश -कीति, लाआार्थ गयव भय निदान संशय रोप €£ अविनय १० अवहुमान। दचन के दस दोप--

कुवयरा/-सहसाकारि, नच्छद-सलेव कलह च। विगह्दा विहासो5सुद्ध , निरवेक्खों सुशार्णा दस दोसा कुबतत सहसावंगर , मे सच्छन्द , नक्षप ,

/ कलह, विकथा, हास्य, बशुद्ध,, £€ निस्पेक्ष, १० मुम्मन

२४ ववक्‍्तृत्वकला के वीज

३. काय के बारह दोप-- कुआसण चलासण चलादिट्ठी , सावज्जकिरिया-लंवरणा-कुचण-पंसारण | आलस-मोडन-मल-विमासण , निद्दा वेयावच्चत्ति, वारस कायदोसा ॥| ---सासायिकपश्नवचन, पृष्ठ १२ कुआसन, चलासन, ३२ चलह ण्टि, सावद्य क्रिया, आलवन, आकुल्चन-प्रसारण, बालस्यथ, 5 मोडन मल, १० विमासन, ११ निद्रा, १२ बैयावृत्य (इसका विवेचन देखो श्रावक ध्ं प्रकाश पुज मे)

प्र

गा

है]

सामाधिक का प्रभाव

गीदड़बाहा का एक ज॑नश्रावक सानसामडी से १८ हजार रुपये लेकर वस में जा रहा था। डाकू मिले और वोले दिलाओ सव अपना-अपना सामान ! श्रावक ने मुहपत्ति पूजनी एवं माला दिखाकर कहा-मेरे सामायिक का नियम है डाकू वोले-मुहपद्ठिए का चेला है ! ये साथु अच्छे होते हैं, यो कहकर श्रावक को छोड दिया--अन्य सभी को लूट कर घननमाल ले गये

उदयचच्द सुराना का पन्ने का कठा एक आदमी ले गया समता रखी। फिर सामायिक करते समय एक दिन वापिस पहना गया

डाकू आनेवाले थे, घर के सब द्वार खोलकर सेठ ने सापर्वार सामायिक ले लिया | साधु समझकर डाकू वापस तठौद गये के

नास की सामायिक

सामायिक में समता भाव, गुड की भेली कुत्ता खाय --राजस्थानी कहावत

सास घर में सामायिक कर रही थी ।इतने मे एक कुत्ता

आया। वहू ने ध्यान नही दिया | सास से रहा नही गया

और नवकार-मंत्र का जाप करती हुई कहने लगी--

लंबड़ पुंछो लंका पेटो घर मे पेठौजी ! णस्रो भरिहुत्ाणं

बहू समझ तो गई, लेकिन कुत्ते को निकाल कर अपना

काम करती रही | कुत्ता रसोई में घुसने लगा | तब सास

ने कहा--

उज्जलदन्तो कायरचित्तो रसोई को किवाड़ खोल्यो जी !

णमो सिद्धाणं |

फिर भी वह ने गोर नहीं किया

सास पुन बॉली--

दृध-दही रा चाडा फोड्या घी के चार्ड दृक्योजी !

णमो आयरिआण

इतने पर भी वहू नही आई, तब भुभलाकर सास ने फिर

कहा--

उजाड़ तो इण वहुलो कीघो बहुवर भेद पायोजी !

णम्तोी उवज्कायाणं। २६

पाँचवा भाग * पहला कोष्ठक रछ

आखिर हस कर बहू ने इस प्रकार मत्र की पूर्ति की-- सामायिक तो सारे पिहरे भी करता पण किरिया नहों देखीजी ! णमो लोए सब्बसाहूणं

३े. सेठ सामायिक कर रहे थे बहू घर मे काम कर रही थी वाहर से सेठ को पूछता हुआ एक आदमी आया बहू ने कहा-सेठजी मोची की दुकान पर जुत्तें खरीद रहे है जाकर देखा तो वहां मिले वापिस आकर पूछा। उत्तर मिला कि अब कपडे की दुकान पर कपड़ा देख रहे हैं वहा जाकर भी खाली आया वहू बोली-वे तो इन्कम- टेक्स के दफ्तर भें गये है। इस प्रकार आगन्तुक को कई जगह घुमाकर अत में कहने लगी अब सेठजी सामायिक कर रहे है) इतने में सेठ सामायिक करके बाहर आये | और बहूपर क्रूद्ठ होने लगे | बहू ने विनम्र शब्दों मे कहा- पिताजी ! केवल मूह बाघने से सामायिक नही होती, बतलारटा आप सामायिक करते समय मन से मोची आदि #े यहा गये थे या नही ! सेठजी चुप रहे क्‍यों कि वास्तव में बह की बात सत्य थी।

8५

पोषध पोप धर्मस्य धत्ते यत्‌, तज्भवेत्‌ पौपधन्नतम्‌ --उपदेशप्रासाद जो ब्रत धर्म को पुष्ट बनाता है, उसे पौषछब्नत कहते हैं।

आहार-तनुसत्कारा-5ब्रह्म-सावद्यकमंणाम्‌ ,

त्यागः प्व॑चतुष्टय्या, तह्िदु पौपधन्रतम्‌ +-पर्मसग्रह १।२७

आहार, शरीर का सत्कार, अन्रह्मचयं, और सावद्यकार्य-चारो पर्व॑ तिथियो (अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्थ और पूर्णिमा) में इन सबका त्याग करना पौषधक्नत है

बौद्ध परम्परा मे पौपध की भाँति उपोसथ का विधान है बुद्ध के अनेक भक्त (उपासक) अष्टमी चतुढंगी, अमाव- स्या और पूणिसा को उपोसथ किया करते थे। (देखें- पेटावत्थु अदुकथा गाथा २०६ तथा विनुस्पिटक महावग्ग) उपोसथ में उपासक निम्न आठ शीलका पालन करता हँै-- (१) प्राणातिपात-विरति, (२) अदत्तादान-विरति, (३६) काय भावना-विरति, (४) मृपावाद-विरति, (५) मादक द्व्यों वा सेवन नहीं करना, (६) विवाल मोजन नहीं करना, (७) नृप, गीत

शरीर की विभूषा आदि नहीं करता, (5) उच्चासन तेथा सजी-

हे

धगी शय्मा का त्यान कंरना | --आगम और त्रिण्टिक . एक अनुशीलन पृष्ठ ६५

र्८

है % है तप

१. तापयति अप्टप्रकार कर्म ईइति तप --आवद्यक सलयगिरि खण्ड २अ

जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है, उसका नाम तप! है श्ड्‌

इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठान तप +-नीतिवाक्यामृत १२२

का

पाँच इन्द्रिय (स्पर्णन-रसना-प्राण-चक्षु-श्रोत्र) और मन को वश में करना या बढती हुई लालसाओ को रोकना तप है।

वेदस्थोपनिपत्‌ सत्य, सत्यस्योपनिपद्‌ दम दमस्योपनिषद्‌ दा, दानस्योपनिपत्‌ तप

-+महाभारत शान्ति पर्णम अ० २५११११ वेद का सार है सत्यवचन, सत्य बाग सार है इन्द्रियों का संयम, सयम का सार है दान और दान का सार है 'तपस्या'

तपोहि परम श्र य' , समोहमितरत्सुखम्‌ -+-वाल्मीफिरासायण ७८४४६ तप ही परम कल्याणकारी है। तप से भिन्न सुख तो मात्र बुद्धि के सम्मोह को उत्पप्त करनेवाला है।

तपस्या जीवन की सव से बडी कला है >गाघी परवक सिज्जा तब्रसंजममि +-देशवैकालिफ ८।४१ तपन्गयम में पराफ्मम करना नाहिए। डरा

बढ

तप से लाभ तवेण परिसुज्मड --5त्तराध्ययन २८३५ तपस्या से आत्मा पवित्र होती है तवेणश वोदाण जणयइ --उत्तराष्ययन २९६॥२७

तपस्या से व्यवदान आर्थात्‌ कर्मो की शुद्धि होती है

भवकोडीसचिय कम्म, तवसा निज्जरिज्जद “--उत्तराध्ययन २०१६

करोडो भवो के रांचित कर्म तपस्या से जीर्ण होकर झड जाते हैं

तपसा प्राप्यते सत्त्व सत्त्वात्‌ सप्राप्यते मन मनसा प्राप्यते त्वात्मा, ह्यात्मापत्त्या निवर्त्त ते

--मन्नायणी आरण्पक १४ तप द्वारा नत्त्व (ज्ञान) प्राप्त होता हैं, सत््व से मन में आता है, मन वश में आने से आत्मा की प्राप्ति होती है ओर आत्मा की प्राप्ति हो जाने पर ससार से छुटकारा मिल जाता है तपसंव महोग्न ण, यद्दुराप तदाप्यते

-योगवाशिप्ठ ३+६८।१४

जो दुष्प्राप्य वस्तुए हैं, वे उग्रतपस्या से ही प्राप्त होती हैं

यद्दुस्तर यद्दुराप, यद्दुर्ग यच्च द्‌प्करम्‌।

सर्वे तु तपसा साध्य, तपों हि दू रतिक्रमम +मनुस्मृति ११।२३८

30

पाँचवा भाग * पहला कोष्ठक ३१

जो दुस्तर है, दुष्प्राप्य है, दुर्गम है, और दृष्कर है--वह सब तप द्वारा सिद्ध किया जा सकता है, वयोंकि तप दुरततिक्रम है। इसके आगे कठिनता जैसी कोई चीज नही है। ७. तपसा कृत बुद्धों, देहों तन स्थान्मलीमस --हिगुलप्रकरण तपस्या से शुद्ध किया हुआ शरीर फिर मैला नही होता ८. तवसा अवहटूटलेस्सस्स, दंसण परिसुज्कइ। +दशाश्षत स्कन्‍्घ ५६ तपस्था से लेश्याओो को सबृत करनेवाले व्यक्ति का दर्शन- सम्यवत्व परिशोधित होता है प्र

तप से लाभ

तवेण परिसुज्भाड --उत्तराष्ययन २८३४५ तपस्या से आत्मा पवित्र होती है

तवेण वोदाण जणयइ --उत्तराध्ययन २६।२७ तपस्या से व्यवदान अर्थात्‌ कर्मो की शुद्धि होती है

भवकोडीसचिय कम्म, तवसा निज्जरिज्जइ --उत्तराष्ययन्न २०१६

करोडो भवो के राचित कर्म तपस्या से जीर्ण होकर झड जाते हैं

तपसा प्राप्यते सत्त्व सत्त्वात्‌ संप्राप्पते मन मनसा प्राप्यते त्वात्मा, द्यात्मापत्त्या निवरत्त ते

--मेत्रायणी आरण्पक १।४ तप द्वारा नत्त्व [ज्ञान) प्राप्त होता है, सत्त्व से मन वश में आता है, मन में आने से आत्मा की प्राप्ति होती है और आत्मा की प्राप्ति हो जाने पर ससार से छुटकारा मिल जाता है तपसंव महोग्र रा, यद्दुरापं तदाप्यते

>योगवाशिप्ठ ३।६८।१४

जो दुृष्प्राप्य वस्तुए हैं, वे उग्रतपस्या से ही प्राप्त होती है |

यददस्तर यद्दराप, यददंग यच्च दण्करम्‌।

सर्व तपसा साथ्य, तपो हि द.रतिक्रमम +-मनुस्मृति ११२

£25।

बवा भाग * पहला कोष्ठक ३१

जो दुस्तर है, दुष्प्राप्य है, दुर्गंम है, और दुष्कर है--वह्‌ सब तप द्वारा सिद्ध किया जा सकता है, वेबोकि तप दुरतिक्रम है) इसके भागे कठिनता जैसी कोई चीज नही है

तपसा कृत शुद्धों, देहो स्थान्मलीमस --हिंगुलप्रकरण तपस्या से शुद्ध किया हुआ शरीर फिर मैला नही होता तवसा अवहट्टलेस्सस्स, दसरा परिसुज्माइ | --दशाशत स्कनन्‍्ध ४१६

तपस्था से लेद्याओ को सबृत करनेवाले व्यक्ति का दर्शन- सम्यवत्व परिशोधित होता है द्र

तप कंसे और किसलिये ?

बता थाम च्‌ पेहाए, सद्धामारोग्गमप्पणो खेत्त काल विज्ञाय. तह॒प्पाण निजुजए --दशर्वकालिक ८॥३४

अपना बल, हृढता, श्रद्धा आरोग्य तथा क्षेत्र-काल को देखकर आत्मा को तपद्चर्या मे लगाना चाहिए

तदेव हि. तप कार्य, दुर््यन यत्रनों भवेत्‌। ये योगा हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियारिग --तपोप्टक (यशोविजयकृत)

त्तप चंसा ही करना चाहिए, जिसमे दुर्घ्यान हो, योगो में हानि हो और इन्द्रियाँ क्षीण हो !

नन्‍नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठेज्जा |

--दरश्शावका लिक ६॥४ वेः्वल कर्म-निर्ज रा के लिए तपस्या करना चाहिए इह्लोक-पर- लोक यश कीति के लिए नहीं

णो पूयण तवसा मावहेज्जा। “-सूनकृताग ७२७ तपस्या द्वारा पूजा की उच्छा करती चाहिए

ग््ध्ट्य हा

पँचवा भाग : पहला कोज्ठक रेरे

४. तेंसि पिन तवो सुद्धो --सुच्रकृतोंग घारे४ड जो कीति आदि को कामना से तप करते हैं, उनका तप एछुद्ध नही है

६. हु बालतवेण मुक्खुत्ति --आचारांग तियु फित २१४

अज्ञानन्तप से कभी मुवित नही मिलती

भर

तप के भेद

सो तवो दुविहो बुत्तो, बाहिरबव्मितरों तहा बाहिरो छव्विहों वुत्तो, एवमब्मितरो तवो॥ --उत्तराध्ययन ३०८ तप दो प्रकार का है--वाह्मय और आम्यन्तर | वाह्मतप अनशन आदि छा; प्रकार का है एव आभ्यन्तर तप के प्रायश्चित्त भादि भेद हैं। अशणसरामूणोयरिया, भिक्खायरिया रसपरिच्चाओ कायकिलेसों सलीणया य, वज्कमो तवो होइ पायच्छित्त विशाओ, वेयावच्च तहेव सज्ञाओ | भांण विउस्सग्गो, एस अब्भितरों तवों --उत्त राध्ययन ३० वाह्य तप के छ' भेद हैं- अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायवलेश, प्रतिसली- नता आम्यन्तरतप के भेद हैं-- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत््य, स्वाब्याय, % ध्यान, कायोत्मर्ग देव-ट्विज-पुरु-प्राज्-पुजतन शौचमार्जवम्‌ ब्रह्मचर्यमहिसा च, शारीर तप उच्यते १४॥ अनुद्रे गकरं वाक्‍्यं, सत्य प्रियहितं यत्‌ |

स्वातस्यायाभ्यसनं चेव,वाडमयं तप उच्यत।। १५ ॥। > 84]

पाॉँचवा भाग पहला फोष्ठक 584

मन प्रसाद सौम्यत्व , मौनमात्मवबिनिग्रह भावसजुद्धिरित्येतत, तपो मानसमुच्यतें १६॥ श्रद्धवा परया तप्त, तपस्तत्त्रिविध्ष नरे अफलाकाइ क्षिभिपु क्त ,सात््विकपरिचक्षते १७॥ सत्कारमानपूजार्थ , तपो दम्भेन चेव यत्‌ क्रियतें तदिह प्रोक्त, राजस चलमन्नुवम्‌ १८ मूढाग्रहेणात्मनो यत्‌, पीडया क्रियतें तप परस्योत्सादनार्थ वा, तत्तामसमुदाह्ृतम १६ ॥। ल्गीता १७ देवता ब्राह्मण, गुरु एवं ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रद्मानयं और अध्िसा---ये शारीरिक तप है। दूसरो को उद्विग्न करनेवाले सत्य, प्रिय हितकारी वचन और सत-णास्त्रों का अध्ययन-वाचिक (-वाणी का) तप कहलाता है। मन की प्रसन्नता, शानभाव, मौन, आत्मसयम और भावों की पविश्रता मानसिक[-मन फा) तप कहा जाता है। पूर्वोत्त तीनो प्रकार का तप यदि फल की आकाक्षा किए बिना परम श्रद्धापूर्वक किया जाए तो चह सात्विक कहलाता है, यदि वह तप सत्कार, मान एवं पूजा-प्राप्ति के लिए दंभपुर्वक किया जाए तो वह राजस कहा गया है, उसके फलस्वरुप झक्लणणिक- भौतिक पुस्त मिल जाता है अविवेकियो हारा दुराग्रहबण जो घशरीर को पी्ित किया जाता है अथवा दूसरों का नाथ करने के लिए जो तप क्या जाता है वह ताम्रस कहा गया है।

प्र

१५ अनशन

१. तपोनानशनात्‌ परम यद्धि पर तपस्तद्‌ दुर्धर्पम्‌ तद्‌ दुराधर्पम्‌

--मंत्रायणी आरण्यक १०६२ अनशन से वढकर कोई तप नहीं है, साधारण सावक के लिए यह परम तप दुधंपं है अर्थात्‌ सहन करना बडा ही कठिन है

आहार पच्चक्‍्खाणेण जीवियाससप्पओगं वोच्छिदइ --उत्तराध्ययन २६।३४*

आहार प्रत्यास्यान अर्थात्‌ अनद्वन से जीव आशा का व्यवदेद करता है यानी जीवन की लालसा से छूट जाता है

३. विपया विनिवर्तन्ते, निराहार॒स्य देहिन +गीता २।५६

आहार का त्याग करनेवाले व्यक्ति से शब्दादि इन्द्रियों के विषय निवृत्त हो जाते हैं

४. अणसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-इत्तरिए य, आवकहिए इत्तरिए अणेगविहे पण्णत्ते, जहा--चउत्ये भत्त , छट्ठे भत्ते .... जाव छम्मासिए भत्तोि आवकहिए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-- प्राओवगमण ये, भत्तपच्चक्खाणं य। -भगवती २५-७

डर

पाँचवा भाग * पहला कोष्ठक ३७

अनशन--आहार त्याग दो प्रकार का कहा है---

(१) इत्वरिक (२) यावत्कथिक

इत्वरिक के अनेक भेद हैं--चतुर्थभक्त--उपवास, पष्ठभवत--

वेला, यावत्‌ पाण्मासिकभवत (छ महिनो का तप)

यावत्कथिक--थावज्जीवन आहारत्याग दो प्रकार का कहा है---

(१) पादपोपगमन (२) भक्‍्तप्रत्यास्थान

जो सो इत्तरिओं तवो, सो समासेण छव्विहो।

सेढितवों पयरतवो,घणो तह होइ वग्गो ॥॥ १० ॥॥

तत्तो वर्गवर्गो, पचम छट्ठओ पइराणतवो

मराइच्छियचित्तत्थो, नायव्यो होइ इत्तरियों ११ |॥ --उत्तराध्ययत्त अ० ३०

इत्वरिक तप सक्षिप्तत्प मे छ. प्रकार का है---

(१) श्रणितप, (२) प्रतग्तप, (६) घनतप, (४) वर्गतप, (५)

वर्ग-वर्गतप, (६) प्रकीर्णतप--यह इत्वरिक त्तप मन-इच्छित फल

देनेवाला है

सवच्छरं तु पढम, मज्मिमगाणट्ठमासिय होई।

छम्मासं पच्छिमस्स उ, माण भणिय तवुक्कोस

->व्यवहारभाष्य उ० प्रथधमतीय वर वा एक वर्ष, मध्यतीर्थ घरों का अप्टमास एवं चस्मतीर्य कर का उत्कृष्ट तप पद्मास था।

१६, पे उपवास

चतुविधाशनत्याग उपवासो मतो जिने | --सुभाषितरत्न-सदोह अशन बादि चारो प्रकार के आहार का त्याग करना भगवान के द्वारा उपवास माना गया है

२. उपवास विज्ञय', सर्वभोगविवर्जित --मार्गशीर्ष-एकादशी

सभी भोगो का त्याग करना उपवास नामक ब्रत है

आरोग्य रक्षा का मुख्य उपाय है उपवास

४. मर्यादा मे रहकर उपवास करने से बहुत लाभ होता है

५. साधु एक उपवास में जितने कर्म खपाता है, उतने कर्म हजारो वर्ष मे भी नरक के जीव नहीं खपा सकते | वैले में साथ जितने कर्मों का नाश करता है, नारक-जीव लाखो वर्षो में उत्तने कर्म नही खपा सकते साधु तेले में जितनी कर्म-नर्जरा कर्ता है, नारक-जीव उतनी कर्म- निर्जरा बरोटों वर्षो से भी नही कर सकते | साधु चोले में जितने कर्म नप्ट करता है, नारक-जीव कोटि-कोटि वर्षा में भी उतने कर्म नप्ठ नहीं कर सकते

--भगवत्ी 2६॥४

श्छ ॥]|

पाँचर्वा भाग * पहला कोष्ठक ३६

६. (क) उपवास से पहले तीन बातें सत करो-- (१) गरिष्ठ भोजन, (२) अधिक भोजन, (३) चटपटा सुस्वादु भोजन (ख) उपवास में तीन बातें मत करो | (१) क्रोध, (२) अहकार, (३) निन्‍्दा (ग) उपवास मे तीन बातें अवश्य करो ! ब्रह्मचर्य का पालन, शास्त्र का पठन, आत्म-स्वरूप का चिन्तन | (घ) तीन फो उपवास नही करना चाहिए-- गर्भवती स्त्री को, दूध पीते बच्चे की माता को, दुर्बल-अजीर्ण के रोगी को --'तीन बाते” नामक पुस्तक से

प्र

१७

प्रायश्चित्त

प्रायः पाप विनिदिष्टं, चित्त तस्य विद्योधनम्‌

-धर्मंसंग्रह मधिकार प्राय का अर्थ पाप है और चित्त का अर्थ उस पाप का शोघन करना है अर्थात्‌ पाप को शुद्ध करनेवाली क्रिया का नाम प्राय- द्चित्त है

अपराधो वा प्राय चिक्त-शुद्धि प्रायस चित्त प्रायब्चित्त-- अपराध-विश्युद्धि --राजवातिक ६२२१ अपराध का नाम प्राय है और चित्त का अर्थ शोघन है। प्राय- श्चित्त अर्थात्‌ अपराध की बुद्धि पावं छिदइ जम्हा, पायच्छित्त ति भण्णइ तेण ॥|

--पचाशक सटीक विवरण १६।३ पाप का छेदन करता है अत प्राकृत भाषा में इसे 'पायच्छित्त कहते हैं प्रायइत्युच्यते लोक-स्तम्य चित्त मनो भवेत्‌ ततच्चित्त-ग्राहक कर्म, प्रायण्चित्तमिति स्मृत्तम्‌

--प्रायश्चित्तसमुच्चयधृत्ति प्रायः का अर्थ लोक-जनता है एवं चित्त का अर्थ मन है। जिस क्षिया के द्वारा जनता के मन में बादर हो, उस क्रिया का नाम प्रायस्चित्त है

पाँचवा भाग : पहला कोष्ठक ४१

४- पाप को शुद्धहदय से मान लेना भी प्रायदिचत्त है

गांधी ज्ञी ने कर्जदार से तग आकर एक वार घर से एक तोला सोना चुराकर कर्ज तो चुका दिया, कितु चोरी के अपराध से हृदय कूलसने लगा। लज्जावश सामने कहने का साहस होने से पिता को एक पत्र लिखा एवं भविष्य में ऐसा काम करने का हढसकल्प किया। पिता ने माफी दे दी प्रायश्चित्त की तीन सीढ़ियाँ होती हैं--

आत्मग्लानि, पाप करने का निरचय,

आत्मशुद्धि -+जजुन्नेद बगदादी

प्रायश्चित से लाभ-

पायच्छित्तकरणेण पावकम्मविसोहि जणुयइ, निरश्यारे यावि भवह सम्म पायच्छित्त पडिवज्जमाणे मग्गं मरगफल विसोहेइ, आयार आयारफन भाराहेद। --5त्तराश्ययन २६।१६ प्रायध्चित्त करने से जीव पापो की विशुद्धि करता है एवं त्तिर- तिचार-निर्दोप बनता है सम्यक प्रायश्चित्त अगीकार करने से जोच सम्मक्‍त्त' एवं सम्यकक्‍त्व के ज्ञान को निर्मल करता है तथा चारित्र एव चारितफल-मोक्ष की आराधना करता है। 4

पद प्रायश्चित्त के भेद

१. पायच्छित्ते दसविहे पण्णत्ते, जहा--आलोयरशारिहे पडिक्कमणारिहे, तदुभयारिहे,विवेगारिहे, विउसग्गारिहे, तवारिहे, छेदारिहे, मूलारिटह, अण॒वद्ग॒प्पारिहे, पारचिया रिहे।

नत्यानाज़ १०७३० तथा भगवती २५॥७७६६

प्रायश्चित्त के दस भेद कहें हैं-

आलोचनाहुं, प्रतिक्रमणाहं, तदुभयाहँ, विवंकाहं, व्युत्सर्गाह, तपाहं, छेदाहं, मूलाहं, भनवस्थाप्पाह, १० पाराब्चचिकाई

(१) आलोचनाहूँ-

सयम में लगे हुए दोप को ग्रुरु के समक्ष स्पष्ट बचनों से सरलतापूर्वक प्रकट करना आलोचना है। आलोनना मात्र से जिस दोप की शुद्धि हो जाए, उसे आलोचनाहई-दोघष कहते हैं। ऐसे दोप को आलोचना करना आलोचना हुँ- प्रायश्चित्त है गोचरी--पण्चमी आदि में लगे हुए अति- चारो की जो गुरु के पास आलोचना की जाती है, वह इसी प्रायब्चित्त का रूप है। (२) प्रतिक्रमणाहं- बिए हुए दोष से पीछे हटना अर्थात्‌ उपके पश्चालाप स्वल्प मिच्छामिद्रवकड “मेरे पराप-स्थ्या (निप्पल) हो” ऐसी धर

पाँचवा भाग पहला कोप्ठक डरे

भावना प्रकट करना प्रतिक्रमण है हा तो जिस दोप की मात्र प्रतिक्रमण से (मिच्छामिदुक्‍्कडं कहने से) शुद्धि हो जाए, वह प्रतिक्रमणाहु-दोष एवं उसके लिए प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमणाहई-प्रायश्चित्त है समिति-गुप्ति मे अकस्मात्‌ दोप लग जाने पर “मिच्छामिदृवकड कह कर उक्त प्रायव्चित्त लिया जाता है। फिर गुरु के पास आलोचना करने की आवश्यकता नही रहती

तदुभया ह-

आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करने से जिस दोष की शुद्धि हा उसके लिए आलोचसना-प्रतिक्रमण करना तद्ुभयाहूँ- प्रायश्चित्त है एकेन्द्रियादि जीवों का सधटद्टा होने पर साधु द्वारा उक्त प्रायश्चित्त लिया जाता है, भर्थात्‌ भिच्छा- मिदुककड बोला जाता है एवं बाद में गुरु के पास इस दोप की आलोचना भी की जाती है

विवेकाहई --

विसी वस्तु के विवेक-त्याग से दोप की शुद्धि हो तो उसका त्याग करना विवेफाहुं-प्रायश्चित है | ऊँसे--आधाकर्म बादि आहार भा जाता है तो उसको अवद्य परठना पडता है, ऐसा करने मे हो दोप को शुद्धि होती है।

च्युत्गर्गाई पर

बयुत्मर्ग परने से जिस दोप की शुद्धि हो, उसके लिए व्युस्मर्ग फरना (घरीर के व्यापार लो रोककर ्मेययस्नु मे उपयोग लगाना) प्पुत्सगहिं-प्रायद्चत्त है नदी आदि पार करने द्ाए यह प्रायध्चित्त लिया जाता है अर्थात्‌ फायोत्सगं डिया ना है

तपगाहँ--

पेप आन से विस दाप वी छुद्धि शो, इनके लिए तप करना

वकक्‍तृत्वकला के वीज

तपाहूँ-प्रायश्चित कहलाता है इस प्रायश्चित्त मे निविकृति- आयम्विल-उपवास-वेला-पाचदिन दस-दिन-पन्द्रहदिन मास- चार मास एवं मास तक का तप किया जाता है।

(७) छेंदाहँ--

दीक्षापययि का छेद करने से जिस दोष की शुद्धि होती है उसके लिये दीक्षापर्याय का छेदन करना छेदाहँ-प्रायड्िचित्त है इसके भी मासिक, चातुर्मासिक आदि भेद हैं। तपरूप प्रायश्चित्त से इसका काम बहुत कठिन हैँ, क्योकि छोटे साधु सदा के लिए बडे बन जाते हैं ज॑ंसे--किसी ने छेदरूप चातुर्मासिक प्रायश्चित्त लिया तो उसकी दीक्षा के बाद चार महीनो मे जितने भी व्यवित दीक्षित हुए हैं, वे सत्र सदा के लिए उससे बडे हो जायेंगे, क्योकि उसका चार मास का सावुपना काट लिया गया

(5) मुलाहई--

(€

वकिजनमी

जिस दोप की शुद्धि चारित्रपर्याय को सर्वथा छेदकर पुन महात्रतों के आरोपण से होतो है, उसके लिए वैसा करना भर्थात्‌ दुवारा दीक्षा देना मूलाहँ-प्रायश्चित्त है [मनृप्य- गाय-भेस बादि की हत्या, हो जाए ऐसा भरूठ, शिप्यादि की चोरी एवं ब्रह्मचयं-मज्ञ॒जंसे महान्‌ दोषों का सेवन करने से उबत प्रायश्चित्त जाता है |

अनवस्थाप्याहँ--

जिस दोप की घुद्धि संधम से अनवस्थापित-झलग होकर विशेष तप एच ग्रहस्य का वेष घार कर फिर से नई दीक्षा लेने पर होती है, उसके लिए पृ्वोक्‍त बार्य करता-अनबस्था- ध्याई-प्रायड्चित है

पाँचवा भाग पहला कोष्ठक ड्श

(१०)पाराश्चिकाई--- जिस महादोष की शुद्धि पाराझिचक अर्थात्‌ वेष और क्षेत्र का त्यायकर महातप करने से होती है, उसके लिए वैसा करना पाराज्चिकाहुं-प्रायश्चित्त है। स्थानाज़ ५११।३६८ में पाराड्चिक-प्रायश्चित्त के पाँच फारण फहे गए हैं, पथा--- (१) गण में फूट डालना, (२१ फूट डालने के लिए तत्पर रहना, (३) साधु आदि को मारने की भावना रखना, (४) मारने के लिए छिद्र देखते रहना, (५) बार-बार असयम के स्थानरुप सावद्य अनुष्ठान की पूछताछ करते रहना अर्यात्‌ अड्गुप्ठ-कु उय भादि प्रइनों का प्रयोग करना, (इन प्रश्नों से दीवार या अनूठे में देवता बुलाया जा सकता है ) इन पाँच कारणों के सिवा साध्वी या राजरानी का शीलभद्भ करने पर भी यह प्रायश्चित्त दिया जाता है इसकी शुद्धि के लिए मास मे लेकर बारह वर्ष तक गण, साधुवेष एवं अपने लेत्र को छोड कर जिनकल्पिक- साधु की तरह कठोर तपस्या करनी पड़तो है एवं उकत कार्य सम्पन्न होने के वाद नई दीक्षा दी जानी है टीकाकार कहता है कि यह महापराक्तमवाले आचार्य को ही दिया जाता है। उपाध्याय के लिए नीवें प्रायश्चित्त तक और सामान्य साधु के लिए आठवें प्रायश्चित्त तक का विधान है यह भी कहा गया है कि जब तक चौदह-पूवंधारी एवं वद्ध- क्रपन-नाराचसहननवाले साधु होते हैं, तभी तक थे दसो प्राय- श्वचित्त रहते हैं। उनका विच्छेद होने के बाद केवल बाद प्रावय- श्नित्त रहते है, अन्तु ! ल्‍३

आलोचना

१. अभिविधिना सकलदोषाणा, लोचना-गुरुपुरत प्रका- गना आलोचना | -भगवती २५।॥७ दोका मर्यादा में रहकर निष्फपटभाव से अपने सभी दोपो को ग्रुरु के आगे प्रकट कर देने का नाम आलोचना है।

छत्तीसगुण-समन्नागएण, तेशवि अवरसकायकब्या। परसक्खिया विसोहि, सुट्ठु वि ववरहारकुसलेगण जह सुकुसलो वि विज्जो, अन्नस्स अत्तरणो वाहि विज्जुवएस सुच्चा, पच्छा सो कम्ममायरइ

->गच्छाचार प्रकीर्णक १२-१३ आचार्य के छत्तीसगुणयुवत्र एवं ज्ञान-क्रिया-व्यवहार में विशेष- निपुण मुनि को भी पाप वी शुद्धि परसाक्षी से करनी चाहिए। अपने-आप नही | जैसे--परमनिपुण वैद्य भी अपनी बीमारी दूसरे वद्य से कहता है एवं उसके कथानुसार कार्य करता हैं

३. आलोयणायाएगं माया - नियाण - मिच्छादसणसल्लारां मोक्खमग्ग-विग्घाणं अणशातसंसारवड्ढणारां उद्तरण वारेइ, उज्जुभाव॑ं जणायइ उज्जुभावपडिवन्ने विय जीवे अमाई इत्वीवेय नपुसगवेय चर बचढइ, पुव्वबद्ध ते निज्जरेड -उत्तराष्ययन २६५

१“.

॥।

पाँचवा भाग पहला कोष्ठक

आलोचना से जीव मोक्षमार्ग-विघातक, अनन्तससार-वर्धक-ऐसे माया, निदान एवं मिथ्यादर्शन शल्य को दूर करता है और ऋजु- भात्र को प्राप्त करता है। ऋजुभाव से सायारहित होता हुआ सत्रीवीदरे और नप्‌ सकवेद का बन्ध नहीं कर्ता पूर्वबन्ध की निर्जरा कर देता है।

उद्वरियसब्वसल्लो, आलोइय-निदिओ गुरुसगासे होइ अतिरेगलहुओ, ओहरियमारोब्व भारवहों

-ओघनियु क्ति 5०६

जो साधक गुस्जनों के समक्ष मन के समस्त इल्यो (काँटो) को निकाल कर आलोचना, निन्‍्दा (आत्मनिन्दा) करता है, उसकी आत्मा उसी प्रकार हल्की हो जातो है, जैसे--सिर का भार उतार देने पर भारवाहक

जह बालो जपत्तो, कज्जमकज्ज उज्जय भवई। त॑ तह आलोएज्जा, मायान्मर्यावष्यमुक्कों उ॥ “--ओघनियु क्ति ८०१ बालक जो भी उचित या अनुचित कार्य कर लेता है, वह सब सरलभाव से वाह देता है। इसीप्रकार साधक को नी गृरुूजनों के समक्ष दभ और बभिमान से रहित रोकर यवार्॑-आत्मा- लोच ना करनी चाहिये ६. आजोयणापरिणिाओ, सम्म॑ सपद्रिओ गुरुसगास जद अतरो काल, करेज्ज आराहओ तह बि॥ “आवद्यफ नियु क्ति हुतपापों को आवोचना यरने की भावना से जाता शूजा द्यविन यदि दोच #े मर जाए सो भी वह आपस है

वक्‍्वृत्वकला के बीज

लज्जाए गारवेर य, जे नालोयति ग्रुरुसगासमि |

घतपि सुय-समिद्धा, हु ने आराहगा हुति -मरणसमाधिप्रकीर्णंक १०३

लज्जा या गव के वश जो ग्रुरुके समीप आलोचना नही करते

वे श्रृत से अत्यन्त समृद्ध होते हुए भी आराधक नही होते

जो साधु आलोचना किए बिना काल कर जाता है, वह

भाराधक नही होंता एवं जो साधु कृतपापो की आलोचना

करके काल करता है, वह सयम का आराधक होता है --भगवती १०२

ञ््

२० आलोचना के विषय में विविध

१. आलोचना करने करने के कारण--

तीन कारणों से व्यक्ति कृतपापो की आलोचना करता है। वह सोचता है कि आलोचना नहीं करने से इहलोक परलोक एवं आत्मा निदित होते है तथा सोचता है कि आलोचना करने से ज्ञान-हर्शन-चरित्र की शुद्धि होती है तीन कारणों से मायी-पुरुष कृतपापो की आलोचना नही करता वह सोचता है कि मैंने भुूतकाल में दोप-सेवन किया है, वर्तमान में कर रहा हैं और भविष्य में भी किए विना नही रह सकता तथा यह सोचता है कि आलोचना आदि करने से मेरे कीति, यश, एवं पूजा-सत्कार नष्ट हो जायेंगे नस्यानाज़ू १३

ल्‍्प्

आलोचना कौन करता है ? दस ठाणोहि सम्पन्ते अणगारे अरिहड भत्तदोसे आलो- इत्तए, जहा--१ जाइसपन्ते, कुलमपन्न विशयसपन्ने शाणमसपत्न, दंसणसंपन्ने, चरित्तमम्पन्ने, खंते, दंते, अमाई, १० अपच्छाणुत्तावी “भगवती २५॥७४७६६ तथा स्वानाएडू १०७४३ ४६

आए हा

च्रु०

ववतृत्वकला के बीज

दस गुणों से युक्‍तत अनगार अपने दोषों की आलोचना करने योग्य होता है, वे इस प्रकार हैं---

जातिसम्पन्न- उच्चजातिवाला, यह व्यक्रित, प्रथम तो ऐसा बुरा काम करता ही नहीं, भूल से कर लेने पर वह शुद्धभन से भालोचना कर लेता है।

कुलसम्पन्न- उत्तमकुलवाला, यह व्यक्ति अपने द्वारा लिए गए प्रायश्चित को नियमपूर्वक अच्छी तरह से पूरा करता है

विनयसम्पन्न- विनयवान्‌ू, यह बडो की बाते मानकर हृदय से आलोचना कर लेता है

ज्ञानसम्पन्न- ज्ञानवानू, यह मोक्षमार्ग की आराघना के लिए क्या करना चाहिए और वया नहीं, इस बात को मलीप्रकार समझकर आलोचना कर लेता है | दर्शनसम्पन्न- श्रद्धावानू, यह भगवान के वचनों पर श्रद्धा होने के कारण यह शज्ञास्त्रों मे बताई हुई प्रायश्चित से होने- वाली शुद्धि को मानता है एव आलोचना कर लेता है |

चारित्रसम्पन्न- उत्तमचरित्रवाला, यह अपने चारित्र की शुद्ध करने के लिए दोपो की आलोचना करता है।

घान्त- क्षमावान्‌, यह किसी दोप के कारण गुरु से भत्संना

या फटकार मिलने पर क्रोध नही करता, किन्तु अपना दोप स्वीकार करके आलोचना कर लेता है

दान्त- इन्द्रियो घबो. वध में रखनेवाला, यह इन्द्रियों के दिपयो में अनासयत होने के कारण कठोर से कृठोर प्राय- व्चित को भी द्षीघ्र स्वीकार कर लेता है एवं पापों की

आलोचना भी शुद्धहदय से करता है

पाँचवा भाग पहला कोष्ठक ५१

अमायी- माया-कपटरहित, यह अपने पापो को बिना छिपाये छुले दिल मे आलोचना करता है।

१० अपइचात्तापी- आलोचना कर लेने के बाद पह्चा- त्तापन करनेवाला, यह आलोचना करके अपने आपको धन्य एवं कृतपुण्य मानता है।

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२१

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आलोचना के दोष

दस आलोयणादोस पण्णत्ता, जहा-- आकंपयित्ता-अणुमाणइत्ता, दिट्ठु बायर सुहम वा | छुन्‍त सद्दाउलये, बहुजणा अव्यत्त तस्सेवी

-भेगवती २५॥७॥७६४५ तथा स्थानाड्र १०७३३ जानते या अजानते लगे हुए दोष को आचार्य या बडे साधु के सामने निवेदन करके उसके लिए उचित प्रायश्चित्त लेना आलोचना” है। आलोचना का द्वब्दार्थ है, अपने दोषों को अच्छी तरह देखना आलोचना के दस दोप हैं अर्थात्‌ आलोचना करते समय दस प्रकार का दोप लगता है यथा---

"आवांपणित्ता-प्रसमश्न होने पर गुरु थोडा प्रायश्चित्त देंगे, यह सोचकर उन्हे सेवा आदि से प्रसन्न करके फिर उनके पास दोपों की आलोचना करना | अणुमाणइत्ता--पहले छोटे से दोप की आलोचना करके, आचार्य कितना-क दण्ड देते हैं, यह अनुमान लगाकर फिर आलोचना करना अथवा प्रायण्चित्त के भेदों को पूछकर दण्ड का अनुमान लगा लेना एवं फिर आलोचना करना दिु॒ठ (हप्ट)--जिस दोष को आचार्य आदि ने देख लिया हो, उसी की आलोचना फरना * बायर॑ (स्यूल)--मसिर्फ बड़े बडे दोपो की आलोचना करना सुदुर्म (सृक्ष्म)--जों अपने छोटे-छोटे अपराधों थी भी आलो-

श्र

पाँचवा भाग पहला कोप्ठक २३

टे

चना करता है, वह वडे दोषोको कैसे छिपा सकता है-यह विश्वास उत्पन्न करने के लिए केवल छोटे-छोटे दोपो की आलोचना करना

छन्न (प्रच्छन्न)--लज्जालुता का प्रदर्णन करते हुए प्रच्छन्नस्थान में आचार्य भी सुन सके--ऐसी आवाज से आलोचना करना सहाउलय (शब्दाकुल)--दूसरो को सुनाने के लिए जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना )

वहुजण (बहुजन )--एक ही दोप की चहुत से गुरुओ के पास आलोचना करना, प्राय प्रशसार्थी होकर ऐसा किया जाता है। अव्वत्त (अव्ययत )--किस अतिचार का क्या प्रायश्चित्त दिया जाता है, इस बात का जिसे ज्ञान नही हो, ऐसे अगीतार्थ साधु के पास आलोचना करना

तस्सेवी (तत्सेवी )--जिस दोप की आलोचना करनी हो, उसी दोष को सेवन. करनेवाले आचार्याद के पास, यह सोचते हुए आलोचना करना कि स्वय दोषी होने के कारण उलाहना देगा वीर प्रायदिचित्त भी कम देगा।

प्रतिसिवना के दस प्रकार हैं-

दसविहा पण्सिवणा पण्णत्ता, जहा-- दष्प-प्पमाद-5णाभोग, आाउरे आवतीति य,

शसफिन्ने सहसकया हे, भय-प्पजोसा वीमसा

-भेगवत्ती २५७ तथा स्थानाऊु गण्र३ पाप था दोपो ये सेवन में होॉनेवाली संगम थी विशाधघना यो प्रतिसिदनता गहने हैं, यह दर्ष झांदि दस कारणों से होनी # झत दस प्रकार ही बढ़ी नई है दर्पप्रतििवना-- भहकार से होने बाली संयम की

प््ड

वक्‍्तृत्वकला के बोज

विराधना

२. प्रमादप्रतिसिवना--मद्यपान, विपय, कसाय, निद्रा और

(३)

(४)

(६)

(७)

(८)

विकथा--इन पाँच प्रकार के प्रमाद के सेवन से होनेवाली

सयम की विराघना।

अनाभोगप्रतिसेवना- अज्ञान के वश होनेवाली संयम की

विराघना

आतुरप्रतिसेवना- भुख, प्यास आदि किसी पीडा से

व्याकुल होकर की गई सायम की विराधना

आपत्मतिसेवना-- किसी आपत्ति के आने पर संयम की

विराधना करना आपत्ति चार प्रकार की होती है -

(क) द्रव्यापत्ति- प्रायुक आहारादि मिलना

(ख़) क्षेत्रापत्ति- अठट्वी आदि भयक जगल मे रहना पडे

(ग) कालापत्ति- दु्िक्ष आदि पड जाए

(घ) भावापत्ति- वीमार हो जाना, शरीर का अस्वस्थ होना

संकीर्णप्रतिसिवना- स्वयक्ष एस परपक्ष से होनेवाली जगह

की तगी के कारण समय का उल्लंघन करना अ्षथवा

सड्धित-प्रतिसेवना ग्रहण करने योग्य आहार आदि में कसी

दोप की घट्ढा होजाने पर भी उसे ले लेना

सहसाकारप्रतिसेवना- अकस्मात्‌ अर्थात्‌ विना सोचेन्समझे

किसी अनचित काम को कर लेना |

भपप्रतिसेवना- भय से संयम वी विराधना करना, जंसे-

पाँचवा भाग पहला कोष्ठक ६९4

लोकनिन्दा एव अपमान से डरकर भूठ बोल जाना, संयम को छोड कर भाग जाना और आत्महत्या आदि कर लेना

(६) प्रद्व पश्रतिसेचना- किसी के प्रद्वप या ईर्ष्या से ( भूठा कलइडू आदि लगाकर ) संयम की विराघना करना। यहाँ प्रदह्प से क्रोधादि चारो कपायो का ग्रहण किया गया है |

(१०) विमर्शप्रतिसेवना- थिष्यादि की परीक्षा के लिए ( उसे घमकाकर या उस पर भूठा आरोप लगाकर ) की गई विराधना इस प्रकार दस कारणों से चारित्र मे दोष लगता है इनमे से दर्ष, प्रमाद और हु के कारण जो दोष लगाए जाते हैं, उनमे चारित्र के प्रति उपेक्षा का भाव और विपय- कपाय की परिणति मुस्य है भय, आपत्ति और सकीर्णता में चारित्र के प्रति उपेक्षा तो नही, किन्तु परिस्थिति की विपपता-ावदकालीन अवस्था को पास्वर उत्समे की स्परिति पर पहुँछने की भावना है। अनाभोग और अक- स्मात्‌ में तो अनजानेपन से दोप का सेवन हो जाता है और विमर्ध मे चाहकर दंष्प लगाया जाता है। यह भावी इिताहित को समभने के लिए है। इससे भी चारिय की उपेक्षा मरी होटी।

(३) आलोचनादाता पे आठ चुण-- अद्गहि ठारोहि सम्प्ने कर्गारे अन्हिए आलोयर्ण पटिच्छ-

५६

(१)

(२)

(३)

ववतृत्वकला के घीज

त्तए, तजहा-आयारवं, आहारवं, ववहारव, उत्वीलए,

पकुग्वए, अपरिस्सावी निज्जवए अवायदंसी गे --भगवती २५॥७ तया स्थानाड़ ८६०४ आठ गुणों से युक्त साधु आलोचना सुनने के योग्य होता

आचारवान्‌--ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारिन्नाचार, तप- आचार, एवं वीर्याचार, जो इन पाँचो आचारो से सम्पन्न हो।

आधारवान्‌ू--(अवघारणावान्‌) -आलोचक के बतलाए हुए दोपो को वरावर याद रख सकनेवाला हो, क्योंकि गम्भीर अतिचारो को दो या तीन बार सुना जाता है एवं आग्र- मानसार उनका प्रायक्चित्त दिया जाता है। प्रायब्नित्त देते समय आलोचनादाता को आलोचक के दापो का स्म- रण बराबर रहना चाहिए ताकि प्रायण्नित्त कम-ज्यादा दिया जाए

व्यवहारवान्‌ू--आगम आदि पाँचो व्यवहारों का ज्ञाता एव उचित विधि से प्रवर्तनकर्ता हो मोक्षाभिलापी बात्माक्षो की प्रवृत्ति-निवृत्ति को एवं तत्कारणशूत जञान-विशेष को ७0 अं +स्थानाज़ ५३४२१ मे व्यवहार के पाँच भेद किए गए है--(१) आगम-व्यवहार, (२) श्र तव्यवहार, (३) भाज्ञाव्यवहार, (४) धारणा- व्यवहार, (५) जीत-व्यवहार 7?

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१. जेसण द्वारा लिखी पुस्तक “मोक्ष प्रकार्शा पुंज १० प्रध्न मे

इुसवा विस्तृत घिवेनन देखिए [

पाँचवा भाग : पहला कोष्ठक श्७

(४)

(५)

(६)

अप्रवीड़क- लज्जावण अपने दोपषो को छिपानेवाले शिष्य की मधुर वचनो से लज्जा दूर करके अच्छी तरह आलो- चना करानेवाला हो

प्रकु्वक- आलोचित अपराध का तत्काल प्रायद्चित्त देकर अतिचारो की शुद्धि कराने में समर्थ हो। तत्त्व यह है कि प्रायक्ष्चत्तदाता को प्रायब्चित्तविधि पूरी तरह याद होनी चाहिए अपराधी के मागने के वाद प्रायच्तचित्त देने में विलम्व करना निपिद्ध है

अपरिस्रावी--आलोचना करनेवाले के दोपो का दूसरे के सामने प्रकट नही करनेवाला हो शास्त्रीय विधान है कि याद आलोचनादाता आलोचना के दोपो को दूसरों के सामने कह देता है तो उसे उतना ही प्रायश्चित्त आता है, जितना उसने आलोचनाकर्ता को दिया था

(७) निर्मापक--अदववित या और विसी कारणचवणश एक साथ

पूरा ध्यध्चित्त लेने में असमर्थ साधु को घोड़ा-थोडा प्राय- क्लित्त देवर उसका निर्वाह करनेवाला हो

अपाययर्शो- व्यलोचना करने में सकोच करनेवाले व्यवित्त वो जागमानू सार परलोया वा वय एव अन्य दोप दिखा- कर उसे भालोचना लेने का इच्छुक बनाने में निपुण हो।

आलोचना किसके पास ? आलोचना सर्वप्रथम जपने आचारय॑-उप्रध्याय ये पॉस

प्र्द

वक्‍तृत्वकला के बीज

करनी चाहिए, वे हो तो अपने साभोगिक बहुश्नू तसाधु के पास, उनके अभाव में समानरूपवाले बहुश्न्‌ तसाधु के पास, उनके अभाव में परच्छाकडा (जो संयम से गिरकर श्रावकत्रत पाल रहा है, किन्वु पूर्वकाल मे सयम पाला हुआ होने से उसे प्रायश्चित्तविधि का ज्ञान है--ऐसे) श्रावक के पास एवं उनके अभाव में जिनभकत बहुश्र.त यक्षादि देवो के गास अपने दोपों की आलोचना करनी चाहिए भावी- वश इनमे से कोई भी मिले तो ग्राम या मगर के बाहर जाकर पूर्व-उत्तरदिणा (ईगानकोणश) मे मुख करके विनम्र- भाव से अपने अपराधों को स्पष्टरूप से बोलते हुए अरि- हन्त-सिद्ध भगवान की साक्षों से अपने आप प्रायश्चित्त

लेकर शुद्ध हो जाना चाहिए -व्यवहार उ० बोल ३४ से ३६

आलोचना के भेदं--

(क) एक्क्रेक्का चउकन्ना दुवग्ग-सिद्धावसाणा +औओघनियु क्ति गाया १२

आलोचना के अनेक भेद £-जैसे चनुष्कर्णा, पट्कर्णा एवं

अप्टकर्णा

यदि सादु-साधु से या साध्वी-साध्वी से आलोचना करे

तो वह आलोचना चनुप्कर्णा चार कानोवाली होती है,

क्योंकि तीसरा ब्यवित उनके पारा नहीं होता

यति साइब्री स्यबिर साथु के पास आलोचना करे तो उसे

साध्ची के साथ ज्ञानदर्शनन्यम्पन्त एवं प्रौद्ययवालो एक

पाचिवा भाग * पहला कोष्ठक फ्ह

[खि]

6३

साध्वी अवश्य रहती है, अत त्तीन व्यक्ति होने से यह भालोचना पटकर्णा छः कानोवाली कहलाती है | यदि आलोचना करानेवाला साधु युवा-जवान हो तो उसके निकट प्रौढद्ययवाला एक साधु भी अवद्य रहता है। अतः दो साधु और दो साध्वियों के समक्ष होने से यह आलो- चना अप्टकर्णा माठ कानोबाली मानी जाती है [यह विवेचन गम्भीर दोपो की अपेक्षा समझना चाहिए] (यह विवेचन बृहत्कल्पभाष्य गाया ३६५, ३६६ के आधार पर किया गया है ।) पेयणमचित्त' दव्च, जणवय सद्ठाणे होइ खेत्त मि दिखर्ननसि सुभिवख-दुभिकव, काले भावमि हेंद्वियरे द्रव्ययदि ढी अपेक्षा से आागोचना के चार प्रकार हैं -- द्रव्य से---अकल्पनीयद्रब्य का सेवन फिया हो--फिर वह चाहे बनसित्त है, सचित्त हो या मिश्र हो छसेत् से--ग्राम, नगर, जनपद मार्ग भे दोपसेबन किया हो | फाल ने--दिन - रात में या दुर्निक्ष - सुशिक्ष में दोषमेबन मिया शो भार शे--प्रमम्तन्थप्यप्न, अहंकार एवं ग्लामि जादि कसी भी परिशिनि से दोषमेबन शिया हों) सभी प्रकार गे दोपों को वाल्सेचना रफे शुद्ध घन जाना चाहिए मिन्छामि दघवाह-- पर सि मिठ् - महल

हु लि दोधाग्गहाद्श ह्ॉड

कक

ववतृत्वकला के बोज

मिं! त्ति मेराइठिओ , <(ु' त्ति दुगछ्ामि अप्पाण ॥६5६॥ का त्ति कडं में पाव, <ड' त्ति डेवेमि उवसमेणं एसो 'मिच्छादुक्कड - पयक्ख रत्यो समासेण ॥६८७॥ --आवश्यक नियु क्ति ता कदेशे नामग्रहणम', इस न्याय के अनुसार 'मि' कार मृदुता- कोमलता तथा अहंकार रहित होने के लिए है। 'छ' कार दोषों को त्यागने के लिए है। 'दु/ कार पापकर्स करनेवाली अपनी आत्मा की निन्‍दा के लिए है। 'क' कार कृत-पापो की स्वीकृति के लिए है। और 'ड' कार उन पापों का उपशमन करने के लिए है--यह “मिच्छामिदुवकड' पद के अक्षरों का अर्थ है

श्र आवश्यक

१, समण सावएस 7) अवस्स कायब्ब हवइ जम्ही ! अतो अह्दोतिसंस्स से तम्हा आवस्सय नाम --अनुयोगद्वार दिन-रात की संधि के समय साधु-शावक को यह अवश्य करना होता है) डुसमलिए इसका नाम अधदद्यक्क है

२. जे भिवक्‍खू कालाइक्कमेण वेलाइक्कमेण समयाइक्कमेणों आलसायमाण आशोवओगे पमते अविदीए अस्नेसि वें

सेशगोयमा ' महापायच्छिती भवेज्जा

_महानिणीयष्य अ- जो भिक्षु आवश्यवान्गम्बंधी कोल, बेला एवं समय का अतिन्नमण करके आलम्य, उपयोगपुूर्यता, प्रमाद और अविधि के सेवन द्वारा अन्य माधु-ताएची-प्रावा-श्राविवाओ में अल्षद्धा उससन करना हुआ छः आवण्यको मे में किसी एक आवश्यक की भी यदि प्रमाद- घद्य नहीं फरता तो है गोतम बह महाप्रायश्िच ता नग भागी होता है

ग्कँ

आवस्सस चउब्विह पण्णत्त त॑ जहाज नामावस्सय, झत्ग्पावस्सयव) टब्यावम्मय, जावावस्मय --अनुपोगद्धार शआवश्यदा पिशतर घ्र्‌

श्र

ववतृत्वकला के बीज

आवश्यक चार प्रकार का कहा है--

नाम-आवश्यक, स्थापना-आवधश्यक, द्रव्य-आवश्यक भाव-आवबध्यक |

प्रतिक्रणण---

स्वस्थानाद्‌ यत्‌ पर स्थांन, प्रमादस्य वाद गत तत्रेव क्रमण भुय, प्रतिक्रमणमुच्यते क्षायोपशमिकाद भावा-दौदयिकरय वश गत |

तत्रापि एवार्थ प्रतिक्ूलगमात्‌ स्मृत --मावद्यक,

प्रमादवश अपने स्थान को छीडकर दूसरे स्थान--हिंसा आदि में गये हुए आत्मा का लौटकर अपने स्थान--आत्मग्रणो में भा जाना प्रतिक्रमण हूँ तथा क्षायोप्रभिकभाव से औदबिकभाव में गये हुये आत्मा का पुनः मूलभाव में आजाना प्रतिक्रमण है

पचविह्े पडिक्कमरो, पण्णत्तीि, जहा--आसबवदार-

पडिक्कमरो, मिच्छत्तपटिक्कमणों, कसायपडिक्कमणो, जोगपडिक्कमणों, भावपटिक्कमरो

--स्थानाज़ ५॥३।४६७

तथा आवद्यफ हुरिभद्रीय

पाँच प्रकार का प्रतिक्रमण कहा है---

आसवद्वार--हिसाआदि का प्रतिक्रमण ३२ मिथ्यात्व-प्रतति- फमण कपाय-भ्रोषादिका ग्रतित्रमण योग-अशुभयोगो का प्रतिक्रमण ५. भाव-प्रतित्रमण [मिन्फामि दूबबरटे बोलफ़र पृन्न बढ़ी दुष्कृत्य करते रहना द्रव्य-परलिप्रमण है और दबारा उसका सेवन तरना भाव-पअत्तिक्षमण है ।)

पाँचवा भाग . पहला कोष्ठक दर

पडिसिद्वाण करणे, किच्चाणमकरणे पडिक्कमण, असहृहण ये तहा, विवरीय परूवणाए य। --अआवश्यक नियुक्ति १२६८ हिसादि निपिद्ध कार्य करने का, स्वाब्याय प्रतितेखनादि कार्य करने का, त्तत््वों मे अश्रद्धा उत्पन्न होने का एवं शाम्त्र-विरुद्ध प्रस्यणा करने का प्रतिक्रमण किया जान चाहिए पड़िक्कमर ण' वयछिद्दाणि पीहेइ। --उत्तराध्ययन २६१

प्रतिक्रणण करने से जीव श्रतो के छिद्रों को ढक देता है

सपडिक्क्रमणशो घम्मो, पुरिमस्स पच्छिमस्स जिणस्स मज्मिमयाण जिएणाण, कारणजाए पड़िक्कमण ॥३४७॥ गमणागमण-वियारे, साय॑ पओ पुरिमन्वरिमाण नियमेण पडिक्कमण, अइयारो होइ वा मा वा ३४८॥। --इहत्फल्पभाष्य-६ प्रथम और अन्तिम तीर्थ करो का सप्रतिकमण धर्म है | मध्यम- बाइम तीर्थ करो के समय स्खलना होने पर प्रात्तक्षमण करने का विधान है प्रथम अन्तिम तीर्घ करो के साघुओ के गमन-आगमन में एव. उच्चार आदि परठने में चाहे सपलना हो या हो, उन्हें सुबह-भाम पड़ावस्यवारूप प्रतिक्रमणण अवब्य करना ही चाहिए

चैंदिक सघध्या--

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ओउऊउम्‌ मसूर्ययप्च मा मन्युष्च मन्युपतयदत मन्युकृतेम्य' परापेश्यों रक्षल्ताम। यदरात्र्पा [यदद्वा] पापमवार्प मनसा वाचा हस्ताम्पा पदस्यामुदरेगा शिव्ना राभिस्तदवलुम्बनु ययू उिझ्चिंद्‌ दस्ति मंयि रृदमहमापोष्मसयोनी सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ॥]._ ->तित्यश्म दिपि पृष्ठ ३२

९४ वक्‍तृत्वकला के बीज

है सूर्यनारायण | यक्षपति और देवताओं मेरी प्रार्थना है कि यक्ष विपयक तथा क्रोध से किए हुए पापों से मेरी रक्षा करे ! दिन- रात्रि में मन, वाणी, हाथ, पर, उदर और शिश्न-लिड् से जो पाप हुए हो, उन पापो को मैं अमृतयोनि सूर्य मे होम करता हैं इसलिए उन पापो को नष्ट करें |

संध्या के तीन अर्थ हैं- उत्तम प्रकार से परमेश्वर का ध्यान करना परमेश्वर से मेल करना दिन-रात की संधि में किया जानेवाला कर्म

है

देयावृत्य देगावृत्त्यम-मवतादिमिर्धमों प्र (खस्तुभिस्पमह-कररे

चर्म भे सहारा दनेवाली भीहारि आदि वम्नुओ हारा उपप्रह-महा भता करने के मय में वेयादृत्य दावद आता हैं

(देयापृत्य मे ईत्‌ सेवा)

दसविंदे वेयवरच्चे पण्णहों, ते जहा: है आयरिमवेयावच्चे, उवजकायवेयावच्चे, रे थेरवेयावच्चे, तवस्सिवेबावच्च

५. गिलाणवियावन्त महवेयावच्चे कुलवेयावच्ते गगावियावच्चे सघवेयावच्ध २० साहम्मियवेयावच्चे | सस्‍्थानाग रैक:

दम प्रकार की वेयादत्य कही हैए आचार्य दी वष्यादृत्य «५ उपाध्याय को बयादुत्त, स्थविर की वेसाएईप्ये, सपस्यवी मी वैवाशप्य, नि पुनि की वेंयादेसत्य नवदीक्षित मुनि की ईधादत्य, ऊँणे [एक आचाय को सतत्ति सं ऋन्द्र व्यादि साधु मसमदापी ही वाइफ संप [गण वा समूश ) वी बेयादुत्य, ३० साइमिकनयाफु बंयायत्य ! चनो पागा समग्पासंगों (से) पटिलेग़लायमनित मद्भाणों राया तेगों दटगार गेलस्नमन्द 5 $ __रपदातर भाप्य दे। ९० गे १२ पर

5९६

(५)

वक्‍तृत्वकला के बीज

आचार्य आदि को--१ आहार देना, पानी देना, शब्या देना, आसन देना, उनका पडिलेहण करना, पाव पूंछना, नेवरोगी हो तो औपघ-भेपज लाकर देना, मार्ग मे (विहार- आदि के समय) सहारा देना, राजा के क्र द्ध होने पर उनकी रक्षा करना, १० चोर आदि से उन्हे बचाना, ११ अतिचार-सेवन कर के आएं हो तो उन्हें दण्ड देकर शुद्ध करना, १२ रोगी हो तो उनके लिए आवश्यक वस्तुओं का सपादन करना, १३ लघुशब्डा- निवाणार्थ पात्र उपस्थित करना उपयु वत १३ प्रकार से आचाये आदि की व॑यावृत्त्य की की जाती हैँ। वेयावच्चेण तित्थयरनाम गोय कम्मं॑ निरवंधेइ -उत्तराष्ययन २९। हे आचार्यादि की वंयावृत््य करने से जीव तीर्थंकर नाम-योग्रकर्म का उपाजन करता है

जे भिक्‍्खू गिलाणं सोच्चा णचक््चा गवेसईं, गवेसंतं वा साइज्जद_ आवज्जड चउम्मासिय परिहारठाण अगुर्घाइय

+निशीयमाष्य १०१३७ यदि कोई समर्थ साधु किसी साधु को बीमार सुनकर एवं जानकर वेपरवाही से उसको सार-सभाल करें तथा करनेवाले की अनुमोदना करे तो उसे गुर चातुर्मासिक प्रायश्चित आता है !

था

शी

दूसरा कोष्ठक ध्यान

घ्यान तु विपये तस्मि-न्नेकप्रत्ययसत्ततिः -अभिधानचिन्तामणि १।घ४ं ध्येय मे एकाग्रता का हो जाना ध्यान है चितरयसेगग्गया हवड काणा | -आवदयकनिरय क्ति १४५६ फिसी एक विषय पर चित्त को एकाय-स्थिर करना ध्यान है

एकाग्रचिन्ता योगनिरोधो वा ध्यानम

“जंनसिद्धान्तरी पिशा ५१२८ एकाग्रचिन्तन एवं मनन्वचनन्याया पी प्रवन्िस्प यगोगों को रोकना ध्यान है

उपयोंगे विजातोय-प्रत्ययवाव्यवधानभाक शुम्नेकप्रत्ययों ध्याने, सूक्ष्यामोगसमस्वितम्‌

>ड्रायिशददा धिशका १८११ स्थिर दोपफ की लो के समान मा शुमलक््य में खोने और बिरापी सद्य मे व्यवागनरहित शान, जो सृध्म विषयों के आमोचवनमतिति हो, उसे ध्यान 7ह्े है मुहतस्तर्मना स्थेर्ये, ध्याने छदुमस्थन्योगिनाम

ब्योगधार्त ४११५ ध्ड

वक्‍तत्वव्ला के बीज

अस्तमुहिर्त तक मन को स्थिर रचना छद्ममस्थयोगियों का

ध्यान है

स्वात्मान स्वात्मनि स्वेन, ध्याते स्वस्प॑ स्वतो यत' |

पटकारकमयस्तस्माद,, ध्यानमात्मेत्र निदवयात्‌ -तत्वानुशासन ७४

बात्मा का गात्मा मे, आत्मा द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा से हो

ध्यान करना चाहिए निश्चयनय मे पटुकारकमयन्यह आत्मा ही

ध्यान है

निष्चयाद्‌ व्यवहाराच्च, ध्यान द्विविघमागमे

स्वख्यालम्वन पूर्व, परालम्बनमुत्तरम -तत्त्वानुशासन ६६

निषवचयहष्टि से और व्यवहारहप्टि से ध्यान दो प्रकार का है प्रथम मे स्वरूप का आलम्बन है एवं दूसरे में परवस्तु का आल-

' म्वन!' है ' ध्यानमृद्रा-

अन्तण्चेतोी बहिष्चक्षु-रध-स्थाप्य सुखासनम्‌ !

समत्व घथरीरस्य, ध्यानम्रुद्रेत्ति कथ्यते। -गोरक्षाशतथ- ६५

चित्त को अन्तमुसी वनावर, दृष्टि को नीचे की ओझोर नाझाय

पर स्थापित करके सुस्ासन से बंठना तथा शरीर कोसीया रसना

घ्यानमुद्दा करलाती है

लेचरीमुद्रा:--

कपालकरे जिल्ला, प्रविप्टा विपरीतगा अञ्रवोरस्तर्गता हृष्टि-पुंद्रा भवति सेचरी।

पाँचवा भाग : दूसरा कोप्ठक ६६

२०

रोगी मरण तस्य, निद्रा क्षुधा तृपा। मूर्च्छा भवेत्तस्य,मुद्रा यो वेत्ति खेचरीम।

-गोरक्षाशतक ६६-६७ जीभ को उलटकर कपालकुहर-तालु में लगाना और हृष्टि को दोनो भौहों के बीच में स्थापित करना सेचरीमुद्रा होती है। जो खेचरीमुद्रा को जानता है, वह बीमार होता, मरता, सोता, उसे भूय-प्यास लगती और हो मूर्च्छा उत्तन्‍्न होती ध्यान के आलम्बन भूत सात कमल-चक्त -- चनु दल स्थादाधार, स्वाधिप्ठान पड़दलमु, नाभी दशदल पद्म, सूर्यसास्यादल हृदि। कण्ठे स्थात्‌ पोडगदल, भ्र्‌ मध्ये द्विदल तथा। सहखदलमास्यात, ब्रद्यरन्श्े महापथे ध्यान बरने के लिए सात कमजरूप चक्रो की कल्पना भी यकी गई है। उनका रहस्य समसने के लिए पृष्ठ ७० के घाट को देखें |

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पाँचवा भाग * दूसरा कोष्ठक छ९

११. ध्यान फे आलम्बनरूप चार ध्येय--

[क_] पिण्डस्थ पदस्थ च, रूपस्थ सूपवर्जितम्‌ चनुर्धा ध्येयमाम्तात, ध्यानस्थालम्बन बुघे नयोगशास्त्र छा८ ज्ञानी-पुस्पो ने ध्यान के आलम्बनरूप स्येय. की चार प्रवार का माना है"? फिडरव, पदस्थ, ३. रूपस्थ, स्पातीत

[ख] पाथिवी रयादथासनेयी, मारुती वारणी तथा।

तत्त्वभू पञचमी चेति, पिण्डस्थ पश्चधरारणगा >योगशास्त्र ७६

पिष्डस्थ अर्थात्‌ घरीर में विद्यमान जात्मा। उसके आलम्बन से

जो ध्यान विया जाता है, बड़ पिण्डस्पष्यान है। उसकी पांच

धाएणाए है- पाश्ची, » आग्नेयी, मारुनी, ४. वारणी,

तत्त्वभू'

[ग] यत्वदानि पविन्राणि, समालम्ब्य विधीयने। तत्यदस्थ समास्यात, ध्यान सिद्धान्तपारगें

>योगशास्प्र ८ा१ य्ेय मे चित्त को स्थिस्म्प से बाँध लेने या नाम पररणा है प्रयिष्र"स्प्राक्षर आदि पदों या अवलम्यन मरके जो ध्यान किया जाता है, उसे सिद्धान्त के पारयामी पुरुष परदस्यध्यान फटने हैं

[धि] अर्त्ते रपमालम्ध्य, ध्याने रुपस्थरुच्यने। ज्योगशारप्र ६७

आम

$ सार्या से बबलिद ऐगोेे, सिनास्य र्थिरवनणनम न्‍अम्पपानशि-तसामतलि १४४

छर

श्र

१३:

१४.

ववतृत्वकला के वीज

अरिहत भगवान के रूप का सहारा लेकर जो ध्याव किया जाता है उसे रूपस्थध्यानत कहते है

[ड] निरञजनस्य सिद्धस्य, ध्यान स्थादरूपवर्जितम्‌ -पोगशास्त्र १०६

निर|ञ्जन सिद्ध भगवान का व्यान रूपातीतध्यान है

ध्यान की सामग्री--

सागत्याग कपायाणा, निग्रहों ब्रतधारणम्‌

मनोउक्षाणा जयश्चेति, सामग्री ध्यानजन्मनि। -तरवानुशासन ७५

परिम्रह का त्याग, कपाय का निग्नह, ब्रतधारण करना तथा

मन और इन्द्रियों को जीतना--थ सव कार्य व्यान की उत्पत्ति मे हायता करनेवाली सामग्री है

ध्यान के हेतु--

वेराग्य तत्वविज्ञान, ने न्थ्य समच्रित्तता

प्रिग्रह जयब्चेति, पड्चेते ध्यानहतव चुहृदूद्वव्यस ग्रह सरकतटीवा, पूृ० २८१

बैेराग्य, तत्त्वविज्ञान निर्मन्यता, समचित्तता, ? प्रिग्रहजय-ये पाँच त्यान के टठतु है

चार ध्यान एवं घम॒ ध्यान के भेंद-प्रभेद--

चत्तारि भाणा पण्णत्ता, ते जहा--मंट्ट भाणे, रोद भार

म्मेमाणे स॒क्‍के म्ाण |

घम्से भझाण चउब्विहे पण्णत्त , ते जैहें -शाग्माजिजए आवायबिजए विवागविजए संठाराविजए |

घम्मस्स कासास्स चचारि त्रालद सा कगात्ा गहा-५

पाँचवा भाग दूसरा कोप्ठक ७३

वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा धम्मस्स भारास्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, जहा आणारई, शिसरगरुई, सुत्तरई ओगाढरुई धम्मस्स णें फाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ- पण्णत्ताओं जहा--

एगाणुप्पेहा, अगिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा ससाराणुप्पेहा -स्वानाड़ू ४१२४७

हृ

चार व्यान कहे हैं- आर्तवध्यान, रीद्रध्यान, धर्मध्यान, ४, घुवलध्यान

घर्मध्यान के चार प्रकार है कज्ञाविचय, अपाय्विच्रय, विपाकविसय, संस्थानविचय

धर्मध्यान के चार आलम्बन कटे है वाचन, रे प्रतिपृष्छा, अनुप्रेक्ा, धर्मकथा

धघमंयान के चार लक्षण हैं- आतज्ारुचि, निमर्गरुचि, सूतरुचि, जवगाठरुसि

पर्म-यान की चार अनुप्रेलाएं है £ एक्वानुप्रेज्ञा, ३े अनित्या- नुप्रता, हे अगरणानुप्रेशा, 4, समसानानुप्रेष्षा

प्र

हि रा

ध्यान से लाभ

मोक्ष कर्मक्षयादेव स, चात्मज्ञानतो भवेतु

ध्यानसाध्यं मतं तच्च, तद्ध्यान हितमात्मन' +-योगश्ञास्त्र ४॥११३

कर्म के क्षय से मोक्ष होता है, आत्मज्ञान से कर्म का क्षय होता है

और ध्यान में आत्मज्ञान प्राप्त होता है। अत ब्यान आत्तमा के

लिए हितकारी माना गया है।

भाणणिलीणो साहू, परिचाग कुणइ सव्वदोसाण

तम्हा दुकाणमेव हि, सव्वदिवारस्स पडिक्क्रमण ॥| -- नियमस+र ६३

ध्यान में लीन हुआ साधक सव दोपों का निवारण कर सकता है। इसलिए ध्यान ही समग्र अनिचारों (दोषों) का प्रतिक्रमण है

ध्यानयोगरतो भिक्षु श्राप्नोति परमा गतिस्‌ हि -+शंखस्मृति

ध्यान-योग मे लीन मुनि मोक्षमद को प्राप्त करता है वीतरागो विमृच्येत, वीतराग विचिन्तयन्‌

पोगश्चास्त्र ६१३ ध्यान करता हुआ योगी स्वय॑ वीतराग होकर कर्मों से या घास- नाओ में मुवत्त हो जाता हैं ध्यानारिति-दग्धकर्मा तु, सिद्धात्मा स्थान्तिरब्जनः

--योगमास्त्र १५४

पाँचवा भाग * दूसरा कोप्ठक

डर

, शुनलध्यानरूप अग्नि से कर्मों को जला देनेवाला व्यत्ति सिद्ध

भगवान्‌ वन जानता है काउस्सग्गेण तीयपदुप्पन्नपायच्छित्त विसोहिइ विसुद्धभाय- च्छित्ते जीवे निव्वुयहियएण ओहरियभारुत्व भारवाहे पसत्यज्माग्गोवगए सुह सुक्षेण विहरइ +-उत्तराष्ययन २६१२ कायोत्यर्ग (प्यान अवस्था में समस्त चेप्टाओ वा परित्याग) करने में जीव अतीत एव वर्नमान के दोषों की बिनुद्धि करत, है और विषुद्ध-प्रायश्चित होकर सिर पर थे भार के उनर जाने से एफ भारवाहव वत हल्का ह'कर रादृत्यान में रमण फरता हुआ सुख- पूर्वक विचस्ना है

ल्‍फं

ध्याता (ध्यान करनेवाला)

* यस्य चित्त स्थिरीभृत, हि ध्याता प्रणस्यते

“+शानार्णव पु० छहडें जिसका चित्त स्थिर हो, वही ध्यान करनेवाला प्रशसा के योग्य है जितेन्द्रियस्य धीरस्य, प्रग्ान्तस्य स्थिरात्मन:

सुखासनस्य नाथाम्र-न्यस्तनेत्रस्य योगिन -- ध्यानाष्टक

जो योगी जितेन्द्रिय है, घीर है, घान्त है, स्थिरआत्मावला है, वह ध्यान करने के योग्य होता है | ध्याता ध्यान फल ध्येय, यस्य यत्र यदा यथा

इत्येतदतन्न वोद्धव्य, ध्यातु कामेन योगिता * “>तस्वानुशासन ३७

ध्यान के इच्छुक योगी को योग के आठ अग्ो तो अवष्य जानना चाहिए, यथा+--

ध्याता--इन्द्रिय और मन का निग्रह करने वासा ध्यान--इप्टविपय में लीनता ) फल+-नावर-निर्जरारूप

ध्येद--उप्टदेवादि

पर बस्थ--ध्यान का स्वामी

9६

शा

पाचवा भाग दूसरा कोप्ठक 98

ईि

पत्र--यान का क्षेत्र

यदा--ध्यान का समय

यथा-ध्यान की विधि |

मा मुज्भह ! मा रज्जह मा दुस्मह | इट्ठ निदठजट्टेस थिरमिच्छह जड्ड चित्त, विचित्तशझाणा-पर्िदधीए

मा चिट्ठुहठ | मा जपह! मा चितह! कि वि जेछ होइ धिरो अप्या अप्पमि रओ इगमेव पर हवे झाण !

८5

नअव्यसग्रहु

है साधक ! विचित्र भ्यान की सिद्धि से यदि चित्त को स्थिर

पारना चाहता है, तो एप्ट-अनिप्ट पदार्थों मे मोह, राग और पे

मसकर !

लिसी भी प्रकार वी चेप्ठा, जन्पन वे चिन्तन मत कर, जिससे

मन स्थिर हो जाये आात्मा का आत्मा से रक्त हो जाना ही

उनाप्ट भ्यान है |

व्यानमेफाकिना द्वाम्या, पठन गायन त्िमिः |

चतुभिर्गमन क्षंत्र पत्चमिवंहभी रुखमे “->पाणरयनीति ४१२

ँयान अवेल वा, पटना दो का, गाना होनो की, चलाया सारे

का, सती ऋरना पररों बा और रद बढ़त साणशिियों मा हच्छा

माना गया है

फ्र

हर

स्वाध्याय-ध्यान की प्रेरणा

स्वाध्यायाद्‌ ध्यानमध्यास्ता, ध्यानात्‌ स्वाध्यायमामनेत्‌ ध्यान स्वाध्यायसपत्त्या, परमात्मा प्रकाशने ॥८१॥ यथाम्यासेन शास्त्राणि, स्थिराशणि सुमहान्त्यपि तथाध्यानपिस्थेर्य ,. लभते5स्परासवर्तिनामू ॥5२॥ --तत्त्वानुशासन स्वाध्याय से ध्यान का अग्यास करना चाहिए और घ्यान सेस्वा- ध्याय को चरितार्थ करना चाहिए स्वाघ्याय एवं ध्यान की सप्रा- प्ति से परमात्मा प्रकाशित होता है-अर्थात्‌ अपने बनुभव में लाया जाता है। अम्यास से जैसे महान्‌ धास्त्र स्थिर हो जाते हैं, उसी प्रकार अभ्यास करने वालो का घ्यान स्थिर हो जाता है। जपश्रान्तो विशेद ध्यान, घ्यानश्रान्तों विशेज्जपम्‌ हाम्या धान्त पठत्‌ स्तोत्र-मित्येव गुरुभिः स्मृतम्‌ --श्राद्धविधि, प्ृ०७६, इलोक-३ जाप से श्ान्त होने पर ध्यान एवं ध्यान से श्रान्त होने पर जाप करना चाहिए तथा दोनों से श्लान्त हो जाने पर स्तोत्र पढ़ना चाहिए ऐसे ही ग्रुरुदेत ने कहा है ओमित्येव ध्यायथ ! आत्मान स्वग्ति व, पाराय तमसः परास्तातु मुण्डकीपनियद्‌ २२।६ उसे आत्मा का ध्यान जींश्म के रूप में करो! तुम्हारा मल्याण छ््द

चंबा भाग दूसरा कोप्ठक

होगा अन्वकार दूँ करने का यह एक ही साधन है

अकारो बासदेव स्थोदुकारस्वु महेष्वर मकार प्रजायर्ति स्थात, तिदेवी प्रयुज्यते 0 'ञ' का अर्थ विपणु है। जा का अथ महेरी और 'म' का अर्थ बरद्ा है अत तीना देवो के अय में 3 का प्रयोग किया जता रा, अगर उबज्काय-छगिग्गी ] पढ़मबखरनिप्फन्नों। 3>कारो पछचपरमिट्ठी _घृहदुद्रब्यमग्रहटीका पृष्ठ रपरे

जैनाचार्यों के माँ नतार3 पा अब डुम प्रकार है अग्हिन्त का मं मिद्धों का दूसरा नाम अधरीरों का भी अ' आचार्यो

॥र साथु का दुसरानाम गनि भी है इसीलिए मूति का में लिया पि सत्की सन्ति करने से भीम ये गया जे अकजन- नी भी आओ, ज्ञा+उन्‍्तजो तेकमत्नभोर्म

समय आजन्ञा-जी, क्चछ बढ़ा हान प्र

६. बच्चा जन्मे अधिक बदन पर मे

(दा 35 स्थानों धर 4 0

थ्‌(अ.उ.म ) स्वभाय मे रे निहलेते *

स्वामीजी पा करना 8 के मंह गे नी शुगगा थे

कार वे तोपमिला प्रयुज्यने

-मन्म, नस लगती दी रामतीय जताए। श्र्त्गे

हि शझाएर से मोद भें टी जोर का भा ताप परने से 32 7 सना हैं; थी प्रवार संधां मे की ४४ का प्रयोग विधा जाती |

समाधि

समाधिनाम राग-द् पपरित्याग :। -सूत्रकुताग चुणि १४२२ राग द्व का त्याग ही समावि है

कुसल चित्त कग्गता समाधि “चिसुद्धिमग्ग ३१२ कुशल (पवित्र) चित्त की एकाग्रता ही समाधि है।

मुखिनों चित्त समाधीयति -विसुद्धिमाग ३४ सुख्री का चित्त एकाग्र होता है

समाहित वा चित्त थिरतर होति।. -चविदुद्धिमग्ग ४)३६

समाहित (एकाग्र हआ) चित्त ही पूर्ण स्थिरता को प्राप्त करता है। समाहियस्स5ग्गिसिहा तेयसा, तबो पन्ना जसो पवडुढ् | -आचाराज्ध शु० २१६४५ अग्नि-शिखा के समान प्रद्दीप्त एवं प्रकाशमान रहनेवाल समात्रि- युवत साधक के तप प्रज्ञा और यथ निरन्तर बढते रहते है। लाभालाभेन मधिता, समाधि नाधिगच्छन्ति

-वेरगाथा १।१०२ जो लाभ या अलाभ से विचलिन हों जाते है, वे समाधि को प्राप्त नही वर सकते समाहिकारए तमेव समाहि पदिलब्भइ -भगवती ७१ समाधि देनेवाला सर्माथि पाता हैं

प्प्छ

आहार अम्न-

अन्न वे विथ- --शतपयदब्राह्मण ६॥७३॥७ अप्न ही प्रजा का आपार है।

अन्न हि प्रागा -+ऐ त्तिरीय-ब्राह्मग-३२११०

अन्न ही प्राण है | अन्‍्नेत वाव सर्वे प्राण्ा महीयन्ते

->तेघतिरीपठपनिपद्‌ १।४।१ अन्न मे हो सब प्राणी की सहिमा घनी रहती हैं

कम बहा ति व्यजानात्‌ -+तैतरीयआरण्पफक ६२ यह अच्छी सरह जान लीजिए वि अन्न ही 5द्गा है

पन्नसम रत्न ने भूत ने भविष्यलि -पैय्वरसराज़-समृच्चप

जग के समान इत्स ने सो हैजा और ने कभी शऐोषा

नास्ति मेधसम नोथ, नान्लि चात्मसम बलमे।

सारित चद्ष संग सेजो, सारिति लान्मसमे प्रियम “प्राणपयमीति ४११७

भेण्जव के मशाए एउ नी, रामबल मे समास बज मरी, भाच

में समर मझ मही और हू के सुगास थोई शिप्र बरस नी |

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ववतृत्वकला के बीज

अन्न निनयात्‌ -तैत्तिरीययपनिषद्‌ ३७ अन्न की निन्‍्दा मत करो

अन्नेन होद सर्व गृहीतमु, तस्मात्‌ यावन्‍्तों नोइशनमब्नन्ति तेंन सब गृहीता भवन्ति --शतपथब्राह्मण ४।६।५॥४ अम्न ने सव को पकड रखा है अत जो भी हमारा भोजन करता है, वही हमारा हो जाता है अन्न हि भूताना ज्येष्ठम्‌ तस्मात सर्वोपघमुच्यते भन्नाद्‌ भृतानि जायन्ते | जातान्यन्नेन वर्वन्ते | --तत्तरीयठपनिषद्‌ ८२ प्राण जगत में अन्न ही मुख्य है। अन्न को समग्र रोगों की ओपध कहा है, (क्योंकि सव औपधियों का सार अन्न मे है) अन्न से ही प्राणी पैदा होते हैं और अन्न से ही वढते है अन्न वहु कुर्वीत तद ब्रतम्‌ --तै त्तरीयठपनिपद्‌ ३।६ अन्न अधिकाधिक उपजाना-बंढाना चाहिए, यह एफ व्रत (राष्ट्रीय- प्रण) है। के सर्वसग्रहेप॒ धान्यसग्रहो महान, यतस्तन्निबन्चमंम्र्‌ +

जीवित सकलप्रयासण्च “नी तियाकयामृत ८ाश्८

सभी संग्रहों में थान्य का सम्रह बढा हैं, क्योकि जीवन तथा सारे प्रयासों था बारण सान्‍्य ही हैं

अन्न मकता घी जुक्ता -+हाजरस्थानी वहायत

हमारे बड़े-बुढ्े कहा करते थे थि अनाज महगा और रुपया सस्ता हो, वह जमाना 'सराव' और अनाज सस्ता भर

पानवा भाग : दसरा फोप्दक छ३े

रुपया मह्गा हो, वह जमाना “अच्छा, कारण अन्न से ही प्रागा टिकते है

१४ एवा सेठ किसी कारणवद्य मकान में रह सया। बाहर से बन्द करके आरक्षक दूसरे गाँव चले गए बहा हीरे, पन्ने, मागिक-पोतो आदि जव,हरात काफी पडा था, लेकिन सायवस्तू विरकुल नहीं थी। भूखा-प्यासा सेठ आखिर मर गया प्राण निकलते समय उसने एक कागज पर लिसा कि“जवाहर से ज्वार का दाना बेहतर है।' तुलसीदासजी ने भी कहा है-- तुलसी त्व ही जानिए, राम गरीब निवाज | मोती-कणश महंगा किया, सस्ता किया अनाज

ध्

बी मद हू ख्ण दप

भोजन

शत विहाय भोक्‍्तव्य, सहस्न स्‍्नानमाचरेत्‌ सौ काम छोडकर खाना चाहिए और हजार काम छोडकर नहाना चाहिए

चढी हाडी ने ठोकर नहो मारणी

और वात खोटी, सिरे दाल-रोटी --राजस्थानी रहावतें यदि भोजन मिलता रहे तो सव दुख सहे जा सकते है। . चार कदेई हारू को हुवेनी ---राजस्थानी कहादत तीन महीनों में मनुष्य अपने शरीर के वजन जितना भोजन कर लेता है --एक अनुभवी भोजन का पाचनकाल :-- पदार्थ घंटे पदार्थ घटे उबले चावल कच्चान्दूध 7 जौ मक्खन थे साबूदाना १॥॥ बालू हे टद्घच गोभी ञ्

गाजर, मूती, मदर भाहारो, मंथुन, निद्रा, सेवनात्‌ तू विवर्धते आद्वार, मंधुन और निद्रा, सेवन करने से उन तीनो मे ब्रृद्धि होतो है १४

पड

भोजन की विधि पुजयेदशन नित्य-मद्याच्येतदकुत्सयनू हृप्ट्वा हप्येत््रसीदेच्च, प्रतिनन्‍्दच्च सर्वध ॥५6॥॥ पूजित हाथने नित्य, बलघूर्णज चर यच्छति। अपूजित तू सदभुक्‍न-मुभय नाथयेदिदम्‌ ॥५४॥। नोडिटप्ठफर पनिद द्या-न्नाय्रा च्वेंच तथसन्‍्तरा नेवाध्यशन कुर्या रु, नचोस्छिप्ट व्चिद्ग्जेतू ॥५४॥ “मनुस्मृति जो पु. भोज्यपदा्ज मदुशा 7 प्राप्ल हो, यह उसे सदा भादर गे) दृष्टि से बगे। दोप ने सिमालता हुआ उसे शाए उसे दाज- शूट #ध, प्रसयता एछशय उसग भा अनुसद करता ४४॥। साकार हि इसा उप बल और झणि झो देनाहे एच विर्यार मां भायना से खाथा एजा ब8 उन दोगो का नाश पर देता है ५५ ट्ठा भाजन विसी को ने दें बाद भोजाप मरने जा दाद मसाये- कण यही बीए में जुउ ने छह | अधिक ने शाथ और इृद गत बडी से जाप ४5६ वधिया: सिगा पवब्चि, से भेश्गीत विच्चक्षरप, करासियी शादीयाडणी > व्यू से तर्वदीश। -++मिद्देश-पिलास द्रव

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पी लत ५१९ हा

भोजन

डत॑ विहाय भोक्तव्य, सहस्नस्नानमाचरेत्‌ सौ काम छोडकर खान। चाहिए और हजार काम छोटकर नहाना चाहिए

चढी हाडी ने ठोकर नहो मारणी

और वात खोटी, सिरे दाल-रोटी --राजस्थानी कहावतें यदि भोजन मिलता रहे तो सव दु-ख सहे जा सकते है ! . चार कदेई हारू को हुवेनी --राजस्थानी फहावत तीन महीनो में मनुष्य अपने शरीर के वजन जितना भोजन कर लेता है --एक अनुभवी भोजन का पाचनकाल :- पदार्थ घंटे पदार्थ घंटे उबले चावल कच्चान्दूध २3। जो मक्खन साबूदाना शव आलू ये दूघ गोभी

गाजर, ग्रली, मटर आहारो, मंथुन, निद्रा, सेवनातु त्‌ विवर्धने आहार, मंथुन और निद्रा, सेवन करने से मन तीनो में वृद्धि होती है | डरा

पड

भोजन की विधि पूजयेदणत नित्य-मद्याउवेतदकुत्सयत् हप्ट्वा हम्पेत्मसीदेच्च, प्रतिनन्‍दचच सर्वश ॥५४॥ पूजित हाशने नित्य, बनमूर्ज यच्छति अपजित तू तदभुकत-मुमय॒ नाणयेदिदम्‌ ॥५३॥ नोच्छिप्ठफर्पत्तिद दद्या-न्नाद्याच्चंव तथान्तरा ने चंवाध्यधन कुर्माद, चोस्टिप्ट क्वचिदब्रजेतु ॥५ शा।

“मनुस्मृति जो पुठ भोज्यपदार्थ मदुधा शो प्राप्त हो, बह उसे सदा आदर पी हष्टि से दे दाप ने निकालया हुआ उसे साए। उसे देख- मर एवथं, प्रसापता गुव उमंग ना अनुभव फरे डे सलवार हिपा हआ क्षप्त बल था धाफ्ति को देताहे एव वि/खार यो भावना से खाया हुआ अम्न उन दोनों ना नाश गार दया 7॥ 2५ ॥॥ डेटा ोश्न हिसी यो ने दें ध्रात, भोजन गरने ये वाद माय- पंप थे पोते बाय में शाप सा क्षतिक्ष सशाये और पे अप 7537 जाए 9६ पदिषोइलियाष्यल्यि, ने झज्जीत विच्क्षण-

वदा। छपि दादी गदूष्नीक्स्य वे तर्जनीम

--प्रियेए-फियास ्र्ज +

८९

4गी

ववतृत्वकला के बीज

विचक्षण पुरुष अपविश्वता की अवस्था में भोजन ने करे अति- लोलुपता से खाए तथा तर्जनी (अग्रुठे के पासवाली गुली को ऊचा करके भी खाए। उण्णं स्निग्ध मात्रावत्‌ जीरो वीर्याविरुद्ध इष्ट देशे, इष्टसवॉपक रण नातिद्र नातिविलम्बित अजत्पन्‌ अहसन्‌ तन्‍मना भुझ्जीत आत्मानमभिसमीक्ष्य सम्यक्‌ +चरकस हिता, विमानस्थान १४२४ उप्ण, स्निग्घ, मात्रापूर्वक पिछला भोडन पच जाने पर, वीर्य के अविरुद्द, मनोनुकूल स्थान पर, अनुकूलसामग्रियों से युक्त, ने तिशीदन्नता मे, अतिवलम्ब से, ही बोलते हुए, ही हसते हुए, आत्मा की वित का विचार करके एवं आहार-दब्य में मत लगाकर भोजन करना चाहिए ईर्ष्या-सय-क्रोधपरिक्षतेन, लुव्धेन रूर्द॑ंन्यनिपीडितेन प्रद्व पयुक्‍तेत सेव्यमान-मन्न सम्यक्‌ परिणाममेति +सुश्रुत ईर्ष्या, भय, क्रोव, लोभ, रोग, दीनता, एवं द्वंप-टन संतगे यूयत मनुष्य द्वारा जो भोजन किया जाता है, उसका परिणाम अच्छा नहीं होता विरोधी-आहार का सेवन नहीं करना चाहिए, उसके देश- विरुद्ध, कालविरुद्ध, अग्निविरद्ध, मात्राविरद्ध, कोप्डविन्द्ध, अवस्थाविरुद्ध एव विधिविरुद्ध आदि अनेक भेद है। >सतरक्सहिता-सुप्रस्यान २७ साथ खाने फे खाद्य पदाय- (१) गर्भ रोटी आदि के साथ दही (२) पानी लाइथ और घी |

परचितवा भाग दूसरा कोप्ठक >>

773

(३) बरायर-वराबर घी-मथु (शहद) (४) चाय के पीछे ठण्डा पानी-ककड़ी-तरवूज आदि (५) खरबूजा और दही (६) मूली और खरबूजे के साथ मघु -फविराज्ञ हरनामदास स्नान कृत्वा जले णीते-म्प्ण भोजतु ले खुज्यते “पियेषाधिजास ठउे जल से स्नान परया गरमनठ्रत्य खाए। ठटो नहाते तातो खायें, त्यारं बंद कदे नहीं भाव ऊभो मूने सूता पावे, तिगगरो दलदर कदे जाने “-राजसयानी गह्ावत

भोजन कसा हो ?

भार सौम्य ! भर्तव्यो, यो नरं नावसादयेतु तदन्नमपि मोक्‍तव्थ, जीर्यत बदनामयम्‌ +-वाल्मीकिरामायण ३३५०।१८ है सौम्य ! उसी भार को उठाना चाहिए, जिससे मनुप्य को कप्ट हो | उसी अन्न को खाना चाहिए जो रोग पैदा किए बिना पच जाए | हित मित सदाइनोयाद , यव्‌ सुखेनेत्र जीर्य॑ते। धातु प्रकुप्पते येन, तदनन्‍्न वर्जयेद्यत्रि +अश्रिस्मृति सदा हितकारी एव परमित भोजन करना चाहिए, जो सुजपुवंक हजम हो जाए पट त्रिगत सहस्नारि, राज्ीणा हितभोजन जीवत्यनातनुरो जन्नु-जितात्मा समत सताम्‌ ->चरफऊसहिता, घृन्रस्थान २७।३ ४८ हितकारी भोजन कननेवाला प्राणी छत्ीस हजार रात्रि पर्मस्त क्र्यात्‌ १०० वर्ष नक जोवित रहता है तथा बढ़ आत्मय्रिजयो, नीरोग एर्व नत्युर॒पों द्वारा सम्मानित होता है। पच्चे सोई खाहइबो, रुचे सोई बोलिवो |. >पगला बह़ायन

प्प्प

पाचवा नाग दूसरा कोप्ठफ छह

ही

पाचन दवित के अनुसार खाना खाना चाहिए और रुचि के अनु- सार बोलना चाहिए।

सुजीर्णामन्न सुविचक्षग सुत्त

सुथासिता स्त्री नृपति सुसेवित

सुचिन्त्य चोक्‍त सुविनार्य यत्कृत,

सुदीर्घधकालेडपि याति विक्रिया म।

-हितोपदेश १॥२२ पया हुआ भोजन, विनश्तण पुत्र, आजा में रहनेयाली स्त्री, सुमेदित राजा, सोचापर पहा हुआ बनाने और विचारपूर्वग गिया हला काम--ये लम्बे समय तक विकार को प्राप्त नहीं होत अजीर्ए भोजन विपम्‌

-घाणयपनोति ४१५ अजीर्ण के समस गिषा हुआ भोजन विए के समान याम झग्ता है तकरानत रालु भोजनम

“शुभापितरत्मशष्टमजुप्ा

भाजा दे जगा में तश (स्रष्ठी पीी चाहिए

पुप्ट सुराग दिया नही, दंगा सेन दिसाग तेवर बसी बिना, संस जले बिशागे ?

«दो#गरटोहा ८६ शाय गगये स्यामे रप किसो

बआपूटादा 5) कड़ा धिन्स

६० बबतृत्वकला के बीज

१०, मथुरा का पेडा अरु जयपुर की कलाकन्द,

बूंदी का लड्डू सव लड॒ह से सवाया है |

उज्जैन की माजम, अजमेर की रेवडी रु, काबुल सा मेवा और काहू दिखाया है

बनारस की शम्कर टक्कर सभी से लेत, सिंध सा सिघाडा स्वाद और बनाया है

काहत सजान बीकानेर की अधिकताई, मिसरी, मतीरा, भ्ुजिया तीनू ही सराया है ।।

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ल्‍्ण

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भोजन के भेद

अन्यच्छे योप्न्यदुतंव प्रेय-स्तें उभे नानार्थे पुरुष सिनीत ।॥ तयो: श्रेय भाददानस्य साथु भवति, हीसनेडर्धाद ये प्रेयो कृगीते --फठोदनियद्‌ ११२।१ पदार्थ दो प्रकार के टै--श्लय और प्रेय !

आरम्न में पृ ये जन्त मे टुस देनेवाला श्रेय कर इससे उतटा प्रेय करलाता है। ध्रय गा ग्राटव सुप्री और प्रेम का प्राटक दे री दोता है

प्रेचटरिट मे असन का सेना है अन्याय,

_ धं यहादि में असन तो, चरद्रन है निन्‍पाप

जायु न्सस्‍्व-ए्लाराग्पन्युस>पीतिविवर्धना स्स्या' स्निग्या रिथिरा झृुया आटारा सान्विव प्रिया ॥5॥। परदवम्तनतपरगास्पारा-वीद शान 5र-विद्य हिस.

गदारा राहुसहाप्टा हे साथोवाभयप्रयाः बावावाश साला प्रिय घिले चयन पदशिद्दनपि शामध्य, आन. साम्मध्रिम्म ॥०॥॥ लता झत्-१ 2 डा इत्च हो बाहर सास्डिश शाहश हर आग भेंट + मीडद प्रेशर औैनाएट, टियना्ाी, २०5, सर, सू हे गए प्रीति को प्रणपुथा३ हक रह, (थक, फएह़ई हराह़ है पूचर कब

ग्ड

६२ व्षतृत्वकला के बीज

हृदय को पृष्ठ बनानेवाले भोज्यपदार्था सास्विक-प्रकृतिवाने मनुष्यो को प्रिय होते है अत ये सास्विक कहलाते हैं

अतिकडुवे, अतिखदे, अतिनमकीन, अनिउष्ण, तीसे, रखे, जलन प॑दा करनेवाले दु ख-शोक एवं रोग उत्पन्त करनेवाले भोज्यपदार्थ राजस-प्रकृतिवाले मनुष्यों को प्रिय होते है अत ये शजस कहलाते हैं

बहुत देर का रखा हुआ, रमसहीन, दुर्गन्धित, वासी, जूठा, भमेध्य-अपवित्र मोजन तामस-प्रकृतिवाने मनुष्यों को प्रिय होता हैं अत यह तामस कहलाता हैं

४. नाम उवणा दविए, खेत्त भावे होति बोधव्वों एसो खलु आहारो, निक्‍खेवों होइ पंचविहों ॥! दव्वे सचित्तादि, ब्ेत्त नगरस्स जणावओं होड़ भावाहारों तिबिहों, ओए लोमे पक्‍लेव --स्ृत्रक्ृताग श्रु० अ० निमु वित

आहार का नाम, स्थापना, द्वव्य, क्षेत्र, और भाव--ऐैसे पा प्रकार से निक्षेप होता है किसी चस्तु का नाम आहार रखना नामआहए है एवं आद्वार की स्थापना करना स्थापनाआहार हैं द्रव्यमाहार तीन प्रकार का है--१ सचित्त ? अचित्त मिश्रा जिस क्षेत्र मे आहार किया जाता है, उत्पन्न होता है अभथ्ता आहार का व्यास्यान होता हूँ, उस छ्षेत्र को ए्प्रमष्हार फहते हें अथवा नगर वा जो देण, धन-धान्यादि द्वारा उपन्वेग में आता हैँ, वह क्षेत्रमाहार है

क्षपावेदनीयवर्म के उदय से भोदनरूप में जो कस्लू ली जाती हैं, उस भायबाहार बहते है। वह तीन प्रशार या 7

पचितवाँ भाग . पहला फोप्टक ६9

* ओजआहर-जन्म वे प्रारम्भ में लिया जानेबाला, दे खोन- भाहार-त्वचा या रोम शाद्य दिया जानेबालः, 3 प्रक्षिप्तआहार- मु अथया उस्जेबधन आदि द्वारा विया जानेवाला।

गोरइयाग चउब्विहे आहारे पण्णत्त, जहा-इग लोवमे, मुम्मुरोचम, सीयले, हिमसीयले तिरिततजोशियागा चउन्विहे आहारे पण्णत्ते, जहा- ककोवम, बिलोवम, पाणमसोवम पृत्तमसोवमे मणुस्माण चडव्विट आहारे पण्णत्ते, ते जहा-असणे, पाणे, खाउमे, साइम देवाण चउब्वितह आहारे पण्णत्ते, चजहा-चण्णमने, गधमते रसमो फासमते “-उघादाग ८॥4॥3४० प्ेरपिषों फा आहार चार प्रशार गा शा टै-- (४) अगारो फे समान-धोरशे देश सा जलानेबाला (६) मुमु के समान-अधिए सम हम दाह उन्ारन फरनेयाजा। (६) शीहल-नर्दी परन छर्नेयाला (१८) शिशिशीवा-रिम ेे समान जाप भीरल हिपश्छो था गआार घार प्रशार गा कहा है--

(+] झऋए के समान«सक+, कौर सामारी परियामगता। 7 हो सर (रप 2 शगद दिये दिया) से थे था में शारिश्ारा

है) शितर संझात- दिस मे पस्ष

| के है इर7१७ दाग कब अ्मामज कं और शाह श्ु अदू क्वार् पक

! 4 है] पुदभाम इश््ाजर- इज अप पल चल जे हल क्रक् अच्टत कर ५-३ फ्रोदाफा |

&

चयत॒त्वकला ने बीज

मनुष्यों का आहार चार प्रकार का कहा है--

(१) असन-दाल-रोटी-भाव आदि |

(२) पान-पानी आदि पेय पदार्थ

(३) खादिम-फल-मेवा आदि

(४॥ स्वादिम-पान-सुपारी आदि मुंह साफ करने की चीज़ें

देवताओ का आहार चार प्रकार का कहा है-

(१) अच्छे वर्गवाला, (२) अच्छी गन्धवाला, (३) अच्छे रसवाला, (४) अच्छे म्पर्णवाला !

नव विगईओ पण्णत्ताओं, जहा-खीर, दहि, गवणीय,

सप्पि, तिल्‍ल, गुलो, महु, मज्ज, मस | “हयानाग ६६७४

नव विकृत्तिया-विगय कही हैं-१ खीर-(दूघ), दही मवसन,

घी, तेल, गुड, मधु-शहद मद्य, मसि। मबसन

मद्य, मांस, मधु-इन चारो को महाविगय भी कहा हैँ

प्र

११

(३)

भोजन में आवश्यक तत्त्व प्रोटीन--प्रास जासीयन्यौप्टिकपदार्थ फेट्स--बर्वील पदार्थ घी-नेल आदि पघनिज--लवण सह पदार्थ कार्यहिाएड दस--भर्कराजातीय-चीनी आदि पढदार्य फंसशियस--चुना-फासफोरस आदि | लोहा--नोहयक्कत पदार्थ पानी--पेघ पदार्थ फंलोरी--णर्गीर को गर्मी और शक्ति देमेवाले सन्‍च ) छिस खाद्य में प्रोटीन कादि प्रतिशत कलिनी हैं एवं मेल रीमक्ति प्रतिमह्नन किलनी है--पहे निम्नलिखित चार्ट से समन योग्य है

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पाचवा भाग * दूसरा कोष्ठक ६७

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वकत्वकला के बीज

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परचियां लाग * दूसा कॉप्ठाय

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विदामिन- विटामिन वे पदार्थ है, जिनहठी मानवणरीर को सम माना में आवश्यकता होती #, विन्‍न ये अत्यावध्यक होते है ! इनके बिना मानबंथधरीर सुचास्नप में कस नहों कर सकता विटामिन के प्रकार-- विटामिन बांसो के रिए बहत्त जम्री हाता है

विटामिन वी कम्पर्लंक्स मासपेशियों, नसों, भूरे तथा पावन धातित पर नियभणा रखता है

विद्ामिन सो' उन के रोगों का सामना वूरने की शक्ति देता है विटामिन डी डांतो और हॉदियों को मजबूत बनाने

सहायक होना विदामिन 'ए' क्षादि विशेषन्य से धारण करनेवाले पदार्स- विदामिन एज्ट्य ओर दूप में दनी चीजें, पातक, साजर, आग, पीता, दमाटर, मछली मो तेल, कणों, फत्रेज़ी लोडि। पिदामिन यो कम्पर्भसस-गिरियाँ, हरी फसियाँ (मदर मेम जाल, पदजरीटी, हरी मूँग, बारां, सेदा भाप हुये, मास पर मदारी पिदामिस सीना कद भौर सरठी, दर, मोसस्मी है.

+ 4५ 5०० ग्फ्‌ पं शव जार धंम स्व | बच ऊन समता) ये साठ सहिणिगों, हि लाला,

बयगृत्वकला के बीज

बन्दगोभी, मूली के पत्ते), टमाटर सहिजन की पत्तियाँ ! विटामिन 'डी-सूरज की किरणे, दूघ और ईध की बनी चीजें, मठुली का तेल तथा अएण्डे

-हिन्दुस्तान, १२ अप्रेल, ६७९ प्रोटीन आदि तत्त्व तथा विटामिन के लीभ मे मास मछली और. अण्डो का सेवन करनेवाले व्यक्तियों को पुस्तक पृष्ठ ६६ से १०० तक का चार्ट और विटामिन की विवेचन

घ्यान से परकर मासाहार परित्याग कर. देना चाहिए। >छनमुर्ति

प्रा

भरत सरकेगर की के जनता है गिते पौस्टिण स्वार्टित मार्ट 5 के निर्माता माईत मेवारीम की कीर 7

१३ भोजन का ध्येय

*. खुराक स्वाद के लिए नही परस्तु शरीर को दास की वरह पालने के लिए है +-गाधी

ट्पं

जीने के लिए खाना किसी एक हृण्टि से जमरी है, फिन्‍त्‌

खाने के लिए जीना स्सलोलुप होना। सभी प्रकार से

मर्गता है

3. स्वाद # लिए गाना अज्ञान शोीने के लिर साना आवश्य- दाता और सम की रक्षा के लिए साना साधना है

४. उनरया घाटी, हुया माटी “+राशसपानी पहाणत

+

पर. प्रतिष्मि दस राग्द रक्त रे लालपरमागु नण्य होते है उन यी प्रति जाशार से टी मत जा सकती है

84

१४ भोजन की शुद्धि

१. आहारणुद्धों सत्त्वशुद्धि , सत्त्वथुद्धी श्रुवा स्मृति , स्मृतिलम्भे.. सर्वग्रन्थीना विप्रमोक्ष, -छान्दोग्पोपनियद्‌ ७४२६३ आहार को (इन्द्रियों द्वारा महण किये गये विपयो की) शुक्ति होने से मत्त्व-अन्त'करण की शुद्धि होती है उससे स्थायी स्मृति का लाभ होता है स्मृति के लाभ से अर्थात्‌ जामरूक अमृढनान फी प्राप्ति से मनुष्य की सब ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं

२. आहार सुधारिये | स्वास्थ्य अपने-आप धुधर जागेगा। “>गाधीजी

.३. कुभोज्येव दिन नष्टम्‌ -सुभाषितरलपण्द मंजूषा कुभोजन करने से दिन को नप्ड हुआ समझो

७. जिसो अन्न खाबे, विसी ही डकार आये “राजस्थानी कहावत

५. जैसा खावे अन्न, वेसा होवे मन्न जैसा पी पानी, बसी बोले वानी -हिंदी पहाथत ६. दीपों हि भक्षयेद्‌ व्वान्त, वज्जव प्रमूयते

यदन्‍्न भक्ष्यने नित्य, जायनी ताहशी प्रजा: ->पाणक्यगीति ८३

जो जैसा अन्न खाता है. उसये बसी ही संतान पैदा होती है। दीपय वारी आगेदे वा भदाय करता है थी इगयी गगान भी

काली विम्ज्ल) होरी है) १०

कि]

१५ भोजन का समय ? बुभुक्षाकालों भोजनकाल |

+-नीतिवाश्यमृत २५२६ 'ंस हगे, बड़ी नोजन णा पमय है

अस्त घितसाम्रतमप्पाझुत्ता भवति विधम्‌ “+मीोतियणदा प्ृत्त भू के जिला शोध हुआ जध्चात भो जयागवी जाय? है

सास्जी गात्‌ सिले दादा, सगस्छेल्लाति सविशित्तु “+ममुरक्ति 2५५

सादापमय भोजग, गन जोर शत गही परता शाविशा

एीन बाब था।र के इर्छया ?

नरद के: जोय ससरषसमंग्दाल अन्लम टर्स से आशारार्जी

[वादार मरने के ए-..४) होने है

विडियो में पृश्णों जाए रंघायर-जीय ह्ति समय, ह»ैर्टिप- [; क्र ज्क पीहिटय, परर्श री द्रय 3 गश्य्रेश्य थाई फ्नाओजन से से ता: 3:/ सन्ट्िय एीय सम्य आअन्वभ क्रा में हंग

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ववतुत्वकला फे बीज

(अवसर्पिण्णीकाल में पहले आभारे के मनुष्य तीन दिन से, दूसरे आरे के दो दिन से, तीसरे भरे के एक दित से, चौथे क्षारे के दिन में एक बार और पाँचवे आरे के दिन में दो वर भोजन किया करते हैं, किन्तु छठे आरेवाले मनुष्य आहार के विपय में मर्यादाहीन हैं अर्थात्‌ उन्हें रख बहुत लगती है ।) ह॒ देवों के आहार के विपय में ऐसा माता गया है कि दस हजार वर्ष की आयुवाले देवता फर्क दिन से, पल्योपम आयुवाले दो दिन मे यावत्‌ नौ दिंनें से, एक सागर | आयुवाले एक हजार वर्ष से एवं तेतीससागर की आयु: वाले देवता तेतीस हजार वर्ष से, भोजन के इच्छा होते हैं। ( श८ फे आधार से)

बा

झोजन के समय दान

त्यक्तेन भुज्जीया' -यजुवेंद ४०११

कुछ त्याग करके साओ !

केवलाघो भवति केवलादो -फऋ ग्वेद १०११७११६

अतिथि आदि फो दिये बिना अबेला भोजन फारनेवाला कै्यत

दाप का भागी होता है

एफ रवादु भुझ्जीत, एकण्चाथन्नि चिन्तयेत्‌

एको गच्छेदस्वान, नेक सुप्तेपु जाग्रयातु -विद्वरदोति १॥४१

ममुष्य यो नाशिए कि बी भी अमेला खाएिप्टमोश्स ने करे,

अंग था विसी 5िपय को निश्चय से थे रे,गास्प मे झती ला ने

आसे और ने रात भो सबसे सो जातेएे घाद जय बा डागता दी रहे।

अधशितयत्गतिथानष्नीसात्‌ --.पयदे देद ६॥5७

बतिदि पाने में था: छे शायद सारि।

बीती दस जिले, विमद्ु आभर्माइ:ना छा मे ल्‍गाप्य 3729, सा एमलामि ानिण आधा रत है] हि हि म्फि हक मोह थी भी शिरूल गे. दम लिआझण उपागए्गन।

5 प३+ >> अ्टडँ .+ह ४, ५३-* ही हज पम्त मं: ली सी, गाज से नए ६५) (3घीझ गाए हा | 70 ला: एम

१०४

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भोजन के वाद

भुवत्वा राजवबदासीत, यावदन्नकलमो गत्त-, तत पादश्मत गत्वा, वामपारम्वेंन संविशिव।. ऋछुधह खाने के दाद जब तक दारोर भे अप्न की बलान्ति *है, तब तक राजा की त्तरह प्रसन्‍नमुटा में ंठना चाहिए। फिर सो पगदम रहते कर कुछ समय लेट जाना चाहिए ऑफ्टर डिनर रेस्ट ब्हाइल, ऑफ्टर सपर बाफ माटल। नमप्रेजी पहायन मध्याझ्ध भोजन के बाद पूछ आराम गरना भाहिंए सांयदाव भोल्न ये बाद मु घूमना भाटिए सायनीय कर सो जाणा, मारटसाट कर भाग जाग्या। “रामग्थानी कायल शुफ्लवा थ्यायामनच्यवायों सो व्यापत्तिदारशम्‌ अिवियाइधाट्रत २६११०

गोरे की रफयाग हरदा एप मंदुग सररा चापशि बत कषनदा 5

छा

१०६ वक॒त्वकला के बाज

का चिन्तन करे>यदि आचार्य और साथु मुझ पर अनुग्रह करें (मेरे द्वारा लाया हुआ आहार लें) तो में निहाल हो जाऊं-मानू कि उन्होंने मुके भवसागर से तार दिया

इस प्रकार विचारकर मुनि प्रेमपूवंक साधुओ को यथाक्रम निमन््रण दे उन निमन्त्रित साथुओं में से यदि कोई साधु भोजन करना चाहे तो उनके साथ भोजन करे

६. खानेवाले दो प्रकार के होते हैं-- कुत्तों की तरह छीना-भपटी करके खानेवाले,

कौवे की तरह सभी साथ वेठकर खानेवाले। -भीराममकृष्ण

भोजन के समय सौन--

१. भोजन करते समय खाद्ययदार्थों की निन्‍दा या प्रशमा करने से कर्मो का वन्‍्च होता है अत उस समय प्राव मौन कर लेना चाहिए। “अनमुनि

२. ये नु सव्सरं पूर्णा, नित्य मौनेन भ्रुझजत युगकोटिसहस्र ते, स्वर्गलोके महीयत

>चाणवदनोीति ११६ जो भोजन करते समय एक वर्ष तक पूर्ण मौन रस पते है, ये हंजार-कोटि युग तक स्वर्ग में पूजे जाते हैं

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पचिया भाग इसरो कोप्ट्फ १५०६

अधित होने पं हानि कंस्ता है. और कम होने पर पुष्टि नही करता

७. फैलोरी-र्दर्म जो भोजन करने हैं, वह धन का कार्म

करता दें हि चीरे-बीरे. जलता रहता है और हमारे जीवित रहने के लिये आव्यक गर्मी और रक्त प्रदान करता है। कीर्नसा भोजन शरीर को कितनी गर्मा प्रदान करता हैं, सगे कंलोरियो में गिनां जाता है। जन एक औस लौकी में 5 बसोरियाँ और ऐसे आस बादाम में घर मोलोरियाँ होती हैं बच्ची तो अधिक कोलोरीसुक्त भोजन की गररसे होती है अगर उनकी अवस्धो £ में १२ वर्ष तक की है तो उन्हे प्रतिदित कली सस्यों पी आर ब्यकता पड़ेगी __ दृश्यपीप भाग हे ज्ारत में खाद्य दार्थों के प्रति व्यक्ति उपभीग की बॉलारी प्रतिदिन सैडई ने बंटकर 27६९८+ दें। गई अनाज की प्रति ब्यवित सप्लाई ६7 क्षस में बत पड औरस प्रतिद्ित रो गई

>-रिर्दुर्तान 3९ शगगतो १६६६

१४ मित भोजन

१. यो मित॑ं भुदक्त, बहु भुवक्त -+मी तिवाबयामृत २५॥३८ जो परिमित खाता है, वह बहत खाता है गुणाश्च पदमितभुज भजन्ते, आरोग्यरयुण्च बल सुस्त च॑ अनाविल चास्य भवत्यपत्त्यं, चेनमाद्य उति क्षिवन्ति -विद्वरनीति ५॥३४ परिमित भोजन करनेवाले को ये ग्रुण प्राप्त होते हैं--अरोग्य, आयु, बल और यूस्त तो मिलते ही हैं उनकी संतान युख्दर होती हैं तथा यह बहुत पानेवाला है, ऐसे कहकर लोग उसपर आक्षप नहीं करते ३. हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा ये जे नरा। ते विज्जा चित्रिच्छुति, अप्याण ते तिगरिच्छमा ++औपनियु क्ति ७८ जो मनप्य हितभोजी, मितभोजी एवं अत्पमोजी हें, उसेोतो बंध की विक्ित्ता की आवध्यकता नहीं होती। थे अपने-जाप ही चिकित्सक (बच्चो) होते हैं ४. काले क्ष वर माना स्वान्म्य द्रत्य-गुगताघचत स्ववलम्‌ ज्ञातता योपस्यवहाय , टुटक कि भेपज॑सपस्य --प्रशमरत ६३७

द््प

4256

हे

पचिया भाग . दूसरा वनेप्ठस्स 4६११

जा काल, केय, मात्रा आस्मा का हित, द्ब्य की गृग्ता-लघुता एबं अपने बल को विचार कार भोजन मारता ॥, उसे दवा वेते जमारा नी रहती

४५. बीमारियों की अधिकता पर यदि आपको आाद्वर्य हो तो अपनी थाली गिनिये +>सिनेफा

प्र

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अतिभोजन

अनारोग्यमनायुष्य-्मस्वर्यस चातिभोजनम |

--मरनुस्मृति २५७ अधिक भोजन करना अस्वास्थ्यकर है। आयु को कम करने- वाला और परलोक को व्रिगाइनेबाला है) मधुरमपि बरहुखादितमजीर्ण भवति | अधिक मात्रा में खाया हुआ मध्रुर पदार्थ की बदहजमी पंदा कर देता हैं अतिमात्रभोजी देहमर्ग्ति विवुस्यति

-नी तिवाययामृत १६६३ मात्रा से अधिक खानेवाला जठराग्ति को सराय फरता है बहुभोजी एवं बहुभोगी बहुरोगी होता है

--छ5ापौजिनिस भूखो मर जाना विवगता है और साकर मरना मर्सता ! -आघखार्य तुलगी

आहार मारे या भार मार _राजस्पानी पग़ायत

मनमां आवबे तेम बोलब नहिं ने भावे तेटलू लात नहिं

अन्न पारक छे पगा पेट कई परत सथी “गुजराती गहाउत

एकबार खानेवाला महात्मा, हो बार संबलकर गानिवाला

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०३ कै

4 रा यह. ६:44

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ल्‍फ छसी /4 8

पौखया सगे. दीख पोटफक श्वना विवेक सोनेवाला पृथु न्यद वबारबार सानेबालो की अपेक्षा कर्म वीर गानेवाले विशेष सी होते है १० पाच्व थ्ारेवाले मनाया _: अपेक्षा डीरि बारचाने मनप्य तपोकि वे केसे खाते हैं

एव देवता क्रमश (धिक सुरी हैः गा थोवनिटों ये

११ थोवाहारों थाव मे शियो घोवोवहि-उवगरण्शा, देवाधि परामति _साथद्यवानिएु का १२५४ नौटा बोलता छः दही नींद मेंगों ! इसे ज्वता दी

सोटा गाता मय गाएइता ६+

थो साशए छपी सी

सौर थो-ी ही धर्मोषाएए

समगार गरते «, बाम खाना और गम यघाता बदलमंदी हिन्शी चरहापवत

अधिक खानेवाले आदमी

वालोत्तरा (गारवाड) में एक मत घी को तेरह आदमी खा जाते पे एव वे सण के तेरिये कहलाते थे नये हाकिम ने उनको देखना चाहा। लोगो ने कहा-हजुर घटती का जमाना है अत अब तो नौ ही रह गये अर्थात्‌ नी गांदमी ही मन घी खा जाते हैं

बीकानेर मे एक सेठानी ने खीर-पूडे का श्राद्ध किया, सूंसा, तेजा एव उनकी बहन लाज तीनो भाई-बहन सबा मन दूध की खीर खा गये

कलकत्त में एक राजस्थानी ब्राह्मण ने खाना साकर ठाकुर से दो पापड मांगे ठाकुर ने कहा-फुलके चाहे जितने ले लो, पापड दो नहीं मिल सकतें। विवाद वढा क्षाह्मगा ने ५६ फुलके याए। ठाकुर ने माफी मांगी एवं दूसरा पापड देकर पलला छुडाया

हरियाणा के एक सिलाड़ी ने परस्पर विवाद फरवेः ६० रोटियाँ सगाई विस्मित लोगों के पूछने पर वहा-ये वनई रोटिया थोडी ही हैं, ये तो वुरकियां है --हिन्डुस्तान, ३० मार्च, १६७१ #?797

प्रापयां भाग इनरा वादए ६१५

गंगाशकर के जमप्नाथ वंद्य वियाह के प्रसंग पर रतनसद् में पीने दो थामा बादाम का सोरा खा गए। (एक घामे में लगभग ३-४ सेर सीरा समानता है ।)

६. टूगर्गनियासी छागमलजी-मूलचन्दजी भादानी ५-४ सेर बादाम यी कतलियाँ रा जाने वे। हासचसन्दर्शी भादानी ५-५ सेर जामरस पी जाने थे

७. गधबामगाणी पायलो पघारे। दीक्षार्वी भानजी का पराणा पानी तौर राजनवाटियां अधिक देशकार र्नसगद के खापक बुद्ध पकान्यीच हाए। दीक्षार्थो बादियाँ स्शफर एक घह् पानी एप साथ मी गो।। आावयो मी थंगा दर हरे

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गुग्मगारायजी वोठारी टियाँ आदि £८४मेर परीय पहन सी सोचरी थी ऐसं दिर नरहे एफर

घेनजी-सिमनजी व्यामी ने चुरू मे

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भा धार जागार साप्या पर जिया। रोद्ारीयी ने पृष्ठा उर्मी मो थाी रही ? मनि बीविन्याइप हया है, गोचरी सा आगे

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8, घंनजी स्वागी ॥पा बार शातवार परने मा छाए सा भर

ही | «विद था गया था दस भें प्रिलावर गा शी गारशशावउश थे पसज़ान शा्र ऋगागरर री शर। ४०

कक “कक कर पाप पी मार को आपसी बाड़ पर एइटाणर सार पे

< ३८ निकल >+ ७३०० ही के कचन ॥० (८ है कक पाए लत आए तक

धर हा, ञ् हरा थे 5४४ बद| हर छा न्‍ने हय हु ओफय),

१६६ वदषतृत्वक्ला के बीज

तव जयाचार्य ने कहा, वर्फो कहाँ से मिलेगी ? छोटूजी बोले, वर्फों सही, दो रोटी तो मिलेगी

११ वेगकाक के सीमावर्ती नगर लोबपुर से आया हुआ एक ४२ वर्षीय ग्रामीण सामान्यतया खानेवाले ३० मनुष्य के बरावर भोजन खा जाता है। एक बार में तीन ग्रेलन पावी या सोडा-लेसन जैसे मधुरपेय को तीन-तीन पेटियाँ पीजाता है।. नवभारत टाइम्स, २४ मई, सन्‌ १६६५

१२. विश्व में अधिक गेहूँ खानेवाला देश फ्रास है और अधिक चीनी खानेवाला पंजाब है।

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राक्षसी-खुराकवाले व्यक्ति

अगाएँ में फिगकांग के सलाम से मबझपूर “स्माएव रझाया' तामक हित जिसे सोग द्वत्याकार झ्टोने से इस्सानी पहाड़ भी कहा उससे थे। १५४ मई को सिमापुर के सर सा से हो रुगगशस्याओं पर मरा

इस शछिगणगग या चेजन था ४०० पीए गेट इसियो या सबसे धानदार दृध्तीबा पर था। दटये है कि वह सास्से

श्ज क्‍ ( हक 2०) श्र फन अर जार जज हा में बीते दल दाण 4 शोर रास ने! भोजन में $ झगे खाना था ये हर रोज ६०-१४ पी एल, हर कद "समीर “रे दो दर्जन पराएग्ड देख नी भाजन में जता सा

अण्ंम सभा मामा का दशा टूर साच्ाशश 2० होती था छोर या, परचिसेर गोद, श्र पर हुप इदिय, चाथा शेर शा पर इ० पीए पाठ

६५ कण खझुगी स्म्शशिलविर बॉराशिता लिसने, शिया

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ववदगृत्वकला के बोज

४. एक डाक्टर ने उमायना करके बताया कि फ्रास के

गिलास बीयर पी जाता था | उसने दो दिनो मे वरोटी के २१० हु खा लिये थे। अपना आहार वदत-बदल कर लेने के शौक मे नह जिन्दा मछलिया, कछुए तथा मेढक खरा जाता था। “हिन्दुस्तान, १९ चुलाई, १६७०

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मुफ्त का खाने वाले पॉक्स मेक क्री आफ हार्सेस कार्न "र्भप्रेजी पफावत पार मे पैसे दीपाली भरे पेटा जारे दिवसा “-मराठोी एड्यत सपा मा शधार दिन गातनेयालों हे रिएे रुघर चौड़ा चोगटा, घर सा घर दे जाटा

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मदयो बाहायी, बरी गीचठी में झाणा।

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सादे उसे जापसी, सौए छामे सीर। , मिलिया स्‌ छोटे नहीं, नगद्बाई सो बीरे -+ताजापानों दोए दीएल दीसे दाबरपो, एगा रखो ऐोजो एया बहने में सोड़े मे साथ यो होने हा निमन्‍पय

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१२० वकक्‍त॒ृत्वकला के वोज

६. भोजन कुरु दुवू द् ! मा घरीरे दयां कुरु ! परात्न दुर्लभ लोके, शरीरारि पुन -पुन- अरे मूर्ख | भोजन करले, शरीर पर दया मत कर, वर्योकि मसार में पराया अन्न दुर्लभ है, शरीर तो फिर-फिर के मिनता ही रहता है माले मुफ्त दिले वेरहम --उठ्दं फहावत मुफ्त री मुर्गी काजीजी ने हलाल | -राजत्यानी कहादत मुफ्त का चन्दन घस वे लाला तू भी घस, तेरे बाप को बुलाला “हिन्दी फहावत

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रात्रिभोजन-निषेध

घोरान्धकार रुड्ाक्ष , पतन्तो यत्र जन्तवः। नंद भोज्ये निरीक्ष्यन्ते, तत्र भज्जीत को निशि ॥! व्ग्शास्द्र राड€ रात्रि में घोर बन्वकार के वारण भोजन में गिन्‍ते हुए जीव आँखों से दिखाई नहीं देने, उस समय कौन सम्न्दार व्यक्ति भोजन करेगा! नेंवाहुतिर्न स्नान. क्षाद्ध देवताचंतम्‌ दान वा विहितं राजो, भोजन तु विशेषतः +-थोगरशात्तत्र ३५६६ अनन्‍्यमत में कहा है कि राधि मे होम, स्नान, घाद्ध देवपुजन या दान करना भी उचित नहीं है, क्लति भोजन तो विश्येपत्प

देवस्तु मुक्त पूर्वाह, मध्याहो ऋषिभिन्‍्तथा। अपराह्ं पिनृणि', साथक्ूू देत्य-्दानदेः: सध्याया यक्ष-रक्षोमि, सदा भुक्त दुलात्ह! सर्ददेला व्यतिहम्यथ रात्रौ सुकत साऊदम्‌ ।॥ +पोपशान्त्र ३!

रीध £| दी च्च के द्रा भ्दी 4६ ह। + 4 0 ब-्+ 2|! ' है रु प्र गो 5! १,

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वबक्‍्तृत्वकला के बीज

अपराह में पितरो ने, सायकाल मे दैत्यो-दानवों ने, तथा सथ्या-दिन रात की सधि के समय यक्षों-राक्षसों ने भोजन किया है। इस सब भोजनवेलाओो का उललघन करके रात्रि में भाजन करना अभक्ष्य-मोजन है हन्नाभिष्मसकोच-ब्चण्डरोचिरयायत अतो नकत॑ भोक्तव्पं, सुक्ष्जीवादनादपि +-योगशास्त्र ३१६०

आयुर्वेद का अभिमत है कि शरीर में दो कमल होते है>दृवय- कमल और नाभिकमल। सूर्यास्त हों जाने पर ये दोनो कमल सकुचित हो जाते है अत राधि-भोयन निपिद्ध है। इस निषेध का दूसरा कारण यह भी है कि रात्रि में पर्याप्त प्रकाश ने होने से छोटे-छोटे जीव भी खाने में था जाने हैं। इसलिए रात्रिमे भोजन नहीं करना चाहिए अत्यंगयम्मि आइटच्चे, पुरत्या अणुग्गए आहारमाइय सब्व, मशासा विन पत्थए

+दशवीौशालिक ८२८ सूर्य के अच्त हो जाने पर ओर प्रातफातन सूयें थी उश्य दे टोने तक सव प्रवार के आटारादि वी सायु सन से भी इच्छा ने रे रात्रि के समग्र यदि भोजन का उद्गार गुत्रनत्री) जाए तो थूक देना चाहिए। ने बूत्वर वाधपिस-तिगल जानेवाले सावु-साध्वी को गुरूचायुमासिक परयस्यित्त क्षाता है -वनिशीष १०३४ सूर्य उदय हआ जान बार साधु बदाच आहार वो साववार खाते लगे, फिर गदि पता लग जाए कि सूर्य उदय नहीं टुजा

हज

पाँचवा भाग : दूसरा कोप्ठक श्र्रे

१०

११

तो आहार को परठ देना चाहिए। चाहे मुह मे हो, हाथों में होया पात्र मे हो। परठनेवाले साघु-साध्वी को गुरु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।

++निशीय १०१३१-३२ जे भिविखू राइ भोयरस्स वनन्‍न वदई वदतं वा साइज्जई

-+निश्ञीय १११७६

जो साधु रातिभोजन की प्रणसा करे एवं प्रथसा करते हुए का अनुमोदन करे तो उसे मासिक-प्रायश्चित्त आता है। कि जेने रजनीभोजने भजनीयम्‌ !

क्या जैनलोगो को रातिभोजन करना चाहिए ? नही-नही, कदापि नहीं

नोदकमपि पातव्यं, राजत्रौ नित्यं घुधिष्ठिर !

तपस्विना विशेपेण, ग्रहिणा विवेकिनाम्‌

है युधिप्ठर ? रात के समय पानी भी नही पीना चाहिए, फिर भोजन का तो कह॒ना ही व्या ? यह बात साघुनो को और विवेकी गृहस्थों को विशेष ध्यान देने योग्य है

मृते स्वजनमात्रेडपि, सूत्तक जायते किल।

अस्त गते दिवानाथे, भोजन क्रियते कथम्‌

अस्त गठे दिवानाथे, आपो रुधिरमरुच्यने

बन्त माससमम प्रोक्त, माकंण्डेयमहपिणा।॥। रक्तीभवन्ति तोबानि, अन्नानि पिथितानि

रातों भोजनसक््नस्थ, पग्रासे तन्मासनक्षणात्‌ ॥|

पेकतृत्वकला के बीज

श्५्‌ रात्रि भोजन से हानि

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मेधा पिपीलिका हन्ति, यूका कुर्याज्जलोदरम्‌ कुरुते मक्षिका वान्ति, कुष्ठरोग कोलिक ॥५०॥ कण्टको दारुखण्ड च, वितनोति गलव्यथाम्रु व्यञ्जनान्तनिपतित-स्तालु विद ध्यति वृश्चिक ॥५१॥ विलग्नश्च गले वाल , स्वरभज्भाय जायते इत्यादयों हृष्टदोपा , सर्वेषा निशि भोजने ॥४र।॥। --योगशास्त्र भोजन के साथ चिउटी खाने मे जाय तो वह बुद्धि का नाश करती है, जू जलोदर रोग उत्पन्न करती है, मकवी से वमन हो जाता है और कोलिक-छिपकली से कोढ उत्पन्न होता है ॥५०॥ काँटे और लकडी के ठुकडे से गले में पीडा उत्पन्न होती है, शाक आदि ,व्यजनो मे विच्छु गिर जाए तो वह तालु को वेध देता है ॥५१॥ गले में चाल फस जाए तो स्वर भग हो जाता है। राधि भोजन में पू्?वोवितत अनेक दोष प्रत्यक्ष दियाई देते है ॥५२७ उलूक-काक-मार्जार-मृत्न-शम्बर-शुकरा नहि-वृष्चिक-गोधघार्च, जायन्ते राधिमोजनात्‌ -+योगशास्त्र ३३६७ राधिभोजन करने से महृष्य मरकर उन्लू, काक, बिल्ली, श्र

१२६ वजुलकला + बोज गीब, सम्वर, घूकर, सर्प, विच्छू और गोह आदि अब्रम गिने जानेवाले तिर्यक््वों के रूप में उत्पन्त होने है।

३. इन्दौर में पुजारी का दूव साँप ऐठ गया, रात को उसे पीने से पुजारी मर गया

४. उत्तरप्रदेश मे राधघत समय खीर में साँव गिर जाने से काफी बराती मर गए

५. मुजफ्फरनगर के गाँव में रात को पाती पीते समय विच्द्धू गया एवं गले भें डेंक मारने से, पाती परीनेबाला व्यक्ति मर गया

६. गोगृदा (उदयपुर) मे रात को खाते समय एक भाई के मुह में आम के आचार की जगह मरो हुई चंहिया

गई रा

२६ रात्रिभोजन के त्याग से लाभ

ये रात्रौ सर्वदाहार, वर्जयन्ति सुमेधल तंषा पक्षोपवासस्य, फल मासेन जायते

जो रात्रि भोजन का सदा त्याग कर देते हैं, उनको महीने मे पन्द्रह दिनो के उपवास का फल यही मिल जाता है

२. एक भक्ताशनान्नित्य-मग्निहोत्रफत भवेत्तु अनस्तभोजनो नित्य, तीर्थयात्राफत लभेत_

रात्रिभोजन का त्याग करनेवाले को अग्निहोत् का एवं तीर्थ- यात्रा का फल हमेशा मिलता रहता है।

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भूख

खुहासमा वेयणा नत्यि

बज समाद .

भूख के समाव कोई जी दूसरी वेदना-पीड़ा नही है

नास्ति छुवासमं दुख, नास्ति रोग' क्ष धासम-

सूख जँना कोई दुःख नहीं और भुत्त डैसी कोई बीमारी नही जिवच्छा परमा रोगा। “-धम्मपद १४७ भव सवसे वद्य रोग है

आहान्मन्तिः पचति, दोपानाहारवजितः

घातून छीणेयु दोपेपु, जीवित घादुर्नक्षय --आयुर्वेद जठराग्नि आहार को पच्राती है। आहार के अभाव में दोषों को, उनके अभाव में धातुओ क्यो कौर उनके क्षीण होने पर जीवन

को खरा जाती है

या सदरूप विनाशिनी श्र तहरी परल्वेन्द्रियोत्कपिणी,

चक्ष: - श्रोत्र-ललाट-देन्यकर्णी वेदाब्यमृत्यादिनी

वच्चूनां त्वकजनी विदेशगमनी चारित्रविष्दनिनी,

सेये दाध्यति पत्चभृतवमनी क्षत प्राणरसंहारिग्गी। +-चन्दकेदलीरास

जो रूप का विनाभ करबदेदाली है, कान वा हनग करमेगाली

न्द

+ १७

पाँचवा भाग दूसरा कोष्ठक श्र

१९

_छ पं

है, पाच इन्द्रियो का उत्कषंण करनेवाली है, आख-कान-ताक को हीन-दीन बनानेवाली है, वराग्य को उखाड़ फंकनेवाली है, स्वजन बाधुओ से दूर करनेवाली है,विदेशों मे भटकानेवाली है, चारित का ध्वंस करनेवाली है और पाचो मृती का दमन करनेवाली है। वह प्राण-संहारिणी यह क्ष॒घा सारे जगत को पीडित कर

रही है। अशतनाया वे पाप्मा मति --ऐतरेय-ग्राह्मण २२ भूख ही सव पापों की जड एव बुद्धि को नष्ट करनेवाली है। आगी वडबागियसे बडी है भूख पेट की -छुलसी कवितादली भूख राड भूडी, आख जाय ऊडीं पग थाय पाणी, हैडे नो आवे बाणी बाजरानो रोटलो, तादला नी भाजी। एटला बाना जस तो मन थाय राजी ॥. --ग्रुजराती पद्च काम देखे जात-कुजात, भूख देखे वासी भात तीद देखे टूटी खाट, प्यास देखे घोवी घाट “हिन्दी कहावत

ऊघ जुवे साथरो, भूख जुबे भाखरो

-ग्रुजराती फहावत छुहा जाव सरीर, ताव अत्यि | --आचाराज्ध चुलिका ११२२ जब तक दारीर है, तव तक मूख है

वुमुक्षा जयते यस्तु, स्वर्ग जयते प्र व्‌

“+-महाभारत-अह्वमेधपर्य ६०१६१ जो भूस फो जीत लेता है, वह निश्चितरूप से स्वर्ग को जीत

लेता है है

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भूख में स्वाद

सब स्‌ मीठी भूख --राजस्थानी कहावत भोजन के लिये सबसे अच्छी चटनी भूख है।. --सुकरात भूख मीठी के लापसी | --राजस्थानी कहावत सम्पन्नतरमेवान्नं, दरिद्रा भ्रुझुजतें सदा,

क्ष्‌त्‌ स्वादुता जनयति, साचाइयेपु सुदुर्लभा --विद्दरनीति २।५०

गरीब व्यक्ति जो कुछ खाते है, स्वादिप्ट ही खाते हैं। भूख भोजन को स्वादिष्ट बना देती है। धनिकों को वह भूल्ल दुर्लभ है उन्हें प्राय भूख कम लगती हैं

तरुण सर्पपणाकं, नवौदनपिच्छलानि दघीनि | अत्पव्ययेन युन्दरि ! ग्राम्यजनों मिष्ठमदनाति

ताजा सरसों का शाक और थिरकी सहित दही में बनाये हुए नये भातो के भोजन खाकर ग्रामीण लोग थोड़े ही ख़्चें में मीठा भोजन कर लेते हैं

दि फुल स्टमक लूथूस दि हनी कोम्व “अंग्रेजी कहावत भरे पेट पर छव॒कर खारी |

अमीर भूख की खोज करता है, गरीब रोटी वी खोज

करता है --डेनिस कहावत २१३०

१३१ ववद्त्वकला के बीज

एक वे, जिनके पास भूख से ज्यादा भोजन है। दूसरे वे, जिनके पास भोजन से ज्यादा भूख है। --निकोलस चेम्फट खावबे जीती भूख, सोवे जीती नीद --राजस्थानी फहावत १० मारवाड का एक चारण २६ रोटिया खाता था। दुष्काल पडा घरवाले उससे नाराज होने लगे। ठाकुर साहब के कहने पर उसने सात-सात दिन से एक-एक रोटी घटानी शुरू कर दी। आखिर तीन रोटी पर गया

6

भ्खा * भूखा सो रूवा | “7राजस्य(नी फहावत भ्ृख्ये भक्ति थाय उरारी, थाय जरारी | “अजरातो कहावत पैखा भवन ने होय गोपाला अपनी केठी-माला “राजस्थानी कहावत ढ्डिता पईया रोटीया, सब्े गलल्‍ला खोटीया “पंजाबी कह।चत भृखी कृतरी भोटीना खाय सेख्यानें शु लूख “अजराती कहावततें कोफता रा नाने तिही कोफतस्त ““फरसी कहावत मृखे के लिये मूखी रोटी भी मिठाई के बराबर है। भूखो धाया पतीज | राजस्थानी कहावत शैली मारवाही गावे, भृखो अजराती से मैखो वगाली भात-भात्त पृकारे | हाथ सूको टावर भसी

“7 राजस्थानी कहावते वुभक्षित- कि ट्विकरेश भुड्क्ते भूखा वया दो हाथो से खाता है |

पर १३२

३० भूखा क्‍या नहीं करता ?

त्यजेत्‌ क्ष्धार्ता महिला स्वपुत्र, खादेत्‌ क्षधार्ता भुजगी स्वमण्डम्‌। बुभुक्षित कि करोति पाप, क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति ॥_ +-हिदोपदेश ४।॥५४६ क्ष्धा से पीडित स्त्री अपने पुत्र को त्याग देती है, सपिणी अपने अण्डो को खा जाती है भूखा व्यक्ति वया पाप नही करता ? क्षाण- पुरुष निर्दय हो जाते हैं अजीगर्त सुत हन्चु-छुपासर्पद्‌ बुभुक्षित -मनुर्मृति १०१०५ भूख से व्याफुल अजीगर्त ऋषि ने अपने पुत्र शुन थेप को यज्ञ मे होम करने के लिए बेचा क्ष॒तात दचात्त, रु म्थागाद्‌ विश्वामित्र व्वजाघनीम | चाण्डालहस्तादादाय, घ॒र्मावम-विचक्षण- +मनुस्मृति १०५४८ भूख से व्याकुल विश्वामित्र ऋषि चाण्डाल के हाथ से लेकर फुल की जाध का मास साने को तंयार हुए भूख से पीडित होकर मृत वालिका को उसके बाप-भाई खा गये -कज्ञाताश्रुव अ० सन्‌ १६४५ के लगभग वगाल में साद्याभाव के वारण एक माता अपने बच्चे को पकाकर खा गई द्र १३३

३१ १.

डरे

है.

पेट

पाँव दिये चलने-फिरने कहेँ,

हाथ दिये हरिक्ृत्य करायो। कान दिये सुनिये प्रभु को यश्ष

नेन दिये तिन भार्ग दिखायो॥ नाक दियो मुख सोमन कारन ,

जीभ दई प्रभु को गुण गायो। सुन्दर साभ दियो परमेध्वर ,

पेट दियो कहा पाप लगायो॥

बडे पेट के भरन को, है रहीम दुख वाढि यातों हाथी हिहर के, दिये दाँत द्व काढि अस्य दस्धोदरस्यार्थे, कि कुर्वेन्ति मानवा. वानरीमिव वाग्देवी, नत यन्ति ग्रहे-ग्ृहे ॥। इस पापी पेट के लिए मनुप्य क्या नही करते | सरस्वतीदेवी को भी वे वानरी की तरह घर-घर नचा रहे हैं कथन कला वोह क्वूर, किता मुख होय कवीद्वर, सुत दासी नो सोय, स्यथाय-सुब होय नरेद्वर। कायर ने सूरा कहे, कहै सूम ने दाता , नरां घणा री नार, कहै लिछमी माता

१२४

पाँचवा भाग दूसरा कोष्ठक १२०

०]

&६.

जाचवा काज जिण-जिण विधे, हुलस हाथ हेठ घर दुभर पेट भरवा भणी, करम एह मानव करें ॥१॥ रचरणा प्रवहरणा रचे, वोह नर बाहण बेसे,

अथग नीर - आगमे, पूर जोखा मे पैसे

किर्णाहक वाय-कुवाय, कोर कालेजा कंप॑,

उत्थ को आधार, जीव दुख किण सू जपे

जल में नाव डूबे जरं, बिरलों कोइक ऊवरं।

दुभर पेट भरवा भणी, करम एह मानव कर॑ ॥२॥ राते परघर जाय, गीत गावे गीत रण |

रावण का रोवणाो अधिक सीखे ऊगेरण

खासे बेठो कन्त, मेल्ह पर-मदिर जावे।

ऊँची चढ़ आवास, पुरुष पारका मल्हावे ।)

ऊंचो साद तागे अधिक, एक पईसा ऊपरे।

दुभर पेट भरवा भरी, करम एह मानव करे ॥३॥

सौ मणनी कोठी भराय पण सवा सेर नी कोठी नु पुरू थाय

दरिया नु ताग भाव पण तसु छाती त्ताग बावे पेट माटे लका जवु पड़े पेट भर्‌यु एटले पाटरा भरयु

आप जम्या एटले जगत जम्या

१० सोनु हाथ मोमणी बदले --शुजराती कहावर्ने

श्ये६९ वक्‍्तृत्वकला के बीज

११. वेली टीचेज ऑल आर्टस --अग्रेजी कहावत वेट सव हुन्चर सिखा देता है

१२ पेट थी सह हेठ, पेट करावे बेठ १३. पेहली पेट नें पछी सेठ --गुजराती कहावतें १४ पहली पेट पूजा, पछे देव दूजा ---राजस्थानी कहावत १५, लज्जा स्नेह स्वरमब्रुरता बुद्धयों यौवसश्री ,

कान्‍ता सग॒स्वजनममता, दु खहानिविलास

घ॒र्मः शास्त्र, सुरगुरुमति गौचमाचारचिन्ता ,

पूर्णो सर्वे जठर पिठरे प्राणिना सभवन्ति , --पञ्चतंत्र ५६२

लज्जा, स्नेह, रवर का मिठास, काम करने में बुद्धि, जवानी की शोभा, स्त्री सग, स्वजनो का अपनत्व, दु सादा, खेलकूद आदि बिलास, क्षमा आदि धर्म, वेद आरि शास्त्र, कत्त व्य का विवेचन करनेवाली श्रेद्धि, वाह्माम्यन्तर शुद्धि और सदाचरण की चिन्ता थे सब बातें उदरहूपी कूड मर जाने पर ही सभवित होती हैँ १६, जब पेट भरा होता है तभी- आदमी को धर्म और ईमान सूभता हे जब मन भरा होता है तभी- आदनी को दर्शन गौर विज्ञान सुभता है आत्मा परमात्मा मानवता और नैतिकता की वातें यू वहुत अच्छी है लेकिन हकीकत यह है कि- भुखे पेट को रोटी मे ही भगवान सूभता है ! __लज़े आकाश में से

पाचवा भाग दूसरा कोष्ठक १३७

१७ काकडी-चीभड कापी ने जोवाय परण चोरी ने जोवाय नही --गुुजराती कहावत १८ जठर को विभर्ति केवलम्‌

मात्र पेट को कौन नही भरता ? कुत्ते भी भर लेते हैं /2५

पानी

पानी समदर्शी है, इसकी हृ्टि में ऊच-नीच, गरीब-अमीर का कोई भेद-भाव नही होता यह समानरूप से सब की प्यास बुझाता है पानी मिलनसार है। यह जिसके साथ मिलता है, उसी के अनुरूप बन जाता है। पानी से बिजली पेदा होती है तथा इसमे कभी खड्डा नहीं पडता। चाहे नीचे कितना ही गहरा खड़ढा हो, पानी ऊपर बराबर रहेगा | पानी औषधि है भग्मरुली आदि कटने पर या तेज बुखार होने पर इसकी पट्टी लगाई जाती है ऋणगवेद १०।१३।७॥६ में कहा है--

आप इद्ठरा भेपजी आपो अमी वा चात नी'।

आप सर्वस्वय भेपजी स्तास्तेकण्वतु भेपजम जल औपधि है, वही रोगनाश का कारण है, वही सपल व्याधियों की औपवचि है| है जल | तुम लोगो की औपधि चनो भजीर्ण भेषज वारि, जीणों वारि वलप्रदम

भोजनेचामृतवारि, भोजनान्ते ब्रिप जलग “--चाणबयनीति ८७

(्ड्ृ८

पाँचवा भाग दूसरा कोष्ठक १३६

जलपान अजीर्ण मे औषधि है, पचजाने पर वल देनेवाला है, भोजन के बीच मे अमृत है, किन्तु भोजन के अन्त मे जहर के समान मनिष्ट करनेवाला है !

प्रातकाल खटिया ते उठिके, पिये तुरत जो पानी ता घर वेद्य कबहूँ आवे, वात घाघ कहे जानी --घाघकवि

पृथिव्या त्रीणि रत्नानि जलमन्न सुभाषितम्‌ --चाणक्यनीति १४११ पृथ्वी मे तीन रत्न हैं-+जल, अन्न और सुभाषित।

पानी के विना ससार में कुछ भी नही है-- एक वार बादद्याह ने पूछा- २७ नक्षत्रो मे से वर्षा के १० नक्षत्र निकाल दें तो शेष कितने रहे ? बीरबल ने कहा-- शून्य तत्त्व यह है कि दस नक्षत्रों मे ही वर्षा होती है। उनके अभाव में वर्षा होगी और ससार शून्य हो जायगा !

शॉंत्य नाम ग्रुणस्तवेव सहज , स्वाभाविकी स्वच्छता , किब्रूम शुचिता ब्रजन्त्यशुचय , सद्ध यस्यायरे। कि चात परमश्ति ते शुनिपद, त्व जीवित देहिना , त्व चेन्नी पथेन गच्छसि पय ! कस्ल्ा निरोद्ध क्षम है जब ! तेरे मे सहज झीतलता है, स्वाभाविक स्वच्छता है। तेरी पवित्रता के लिए वया कह्टे ! तेरा सग होते ही अछुचि पर्दाय दूर हो जाते हैं। इससे बढ्कर तेरा यया पविन्न पद हो ! सू ही देहधारियों का जवन है। है दल ! इतना छुछ होने पर

९६४०

१०

११.

१२.

१३.

१४.

ववत॒त्वकला के बीज

भी यदि तू नीचे की ओर जाता है, तो अब तुके कौन रोक सकता है ?

वटेमागु ने दाणी रोके, के पाणी रोके -ग्रुजराती कहावत फारस की खाडी के उत्तर कुवेत रियासत मे यत्र द्वारा दस

लाख गेलन खारा पानी मीठा बनाया जाता है। --नवभारतटाइम्स, मई, १६५५

सबसे ऊँचा भरता अफ्रीका मे जो आउमान पर्वत से भरता है, एक मील ऊंचा है |

दुनियाँ की सबसे बडी भील अमरीका में लेकसुपीरियर है तथा भारत राजस्थान मे जयसमंद (५४ वर्गमील) है

फिलस्तीन की डेडसी नामक भील का पानी बेहद खारा होने के कारण इतना भारी है कि आदमी उसमे तंर नही सकता और डूब भी नही सकता

--सर्जना, प्रृष्ठ ३३ एक एकड भ्रूमि में होनेवाली एक इच वर्पा के पानी का भार लगभग २२६५१२ पौंड होता है

+-पजावकेसरी, दिसम्वर १६७०

न्यूजीलेड में एक विचित्र झरना है, जिसका प्रवाह ब्द हो

' तो थोडा सा साबुन फेकने से वह गरजता हुआ २०० फूट

तक ऊंचा उठता है, लेकिन पत्थर आदि फैकने से हिलता भी नहों। --देनिफ हिंदुरतान, ३० मई, सन्‌ १६७१

दे

पाँचवा भाग दूसरा कोष्टक १४१

तओ सप्रुह्ा पगईए उदगरसेण, पण्णत्त जहा--कालोदे, पुवखरोदे, सयभुरमणे। तओ समुद्धा बहुँमच्छकच्छ भाइण्णा पण्णत्ता, जहा--लवरणो, कातोदे, सय भुरमणे “स्थानाड़् २२ तीन समुद्र स्वभाव से ही सामान्य पानी के समान स्वादवाले हैं--

(१) कालोदधि (२) प्रुष्करोदधि (३) स्वयमूरमणसमुद्र तीन समुद्र मच्छु-कच्छुप आदि जलजन्तुमो से अधिक भरे हुए हैं-- (१) लवणस मुद्र, (२) कालोदधि, (३) स्वयमूरमणसमुद्र

प्रा

तीसरा कोष्ठक मोक्ष-(सुक्ति) १. एगे मोक्खे --स्थानाग १।१ आठो कर्मों के नाशरूप मोक्ष एक है | पाँच प्रकार की मुक्ति :: १. सालोक्य - भगवान के समान लोक-प्राप्ति सा्टि.- भगवान्‌ के समान ऐदवर्य-प्राप्ति | सामीष्य - भगवान्‌ के समीप स्थान-प्राप्ति सारूप्य'- भगवान्‌ के समान स्वरूप-प्राप्ति

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सायुज्य - भगवान में लय-प्राप्ति | _-भागवत ३॥२६॥१

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मोक्ष की परिभाषाएं

विवेगो मोक़खो -आचाराज्ू चूणि १७१ वस्तुत विवेक ही मोक्ष है

सव्पारभ-परिग्गहरिसक्वेवो, सव्वभूतसमया एक्कग्गमणासमाहाणया य, अह एत्तिओं मोकखों -बूहत्कल्पभाष्य ४५८४५ सब प्रकार के आरम्भ और परिग्रह का त्याग, सब प्राणियों के प्रति समता और चित्त की एफाग्ररुूपसमाधि-बस इतना मात्र मोक्ष है

कृत्स्नकर्मक्षयादात्मन स्वरूपावस्थान मोक्ष

-जनसिद्धातदीपिका ५५३६ समस्त कर्मों का फिर वन्धन हो-ऐसा जडामूल से कर्मक्य होने पर आत्मा जो अपने ज्षान-दर्शनमय-स्वरूप में जवस्थित होती है, उसका नाम मसोखत है

अज्ञानहृदयग्रन्थि-नाणो मोक्ष इतिस्मृत -शिवगीता हृदय में रही हुई अज्ञान की गांठ का नाश हो जाना हो मोक्ष कहा गया है। आत्मन्येवलयों मुवित-बंदान्तिक मते मता -विवेकबिलास वेदाशिकमत के अनुसार परप्रह्मस्वरूप ईश्वरीय शय्ति में लीन हो जाना मुबित है

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४४ वक्‍तृत्वकला के बीः

५, भोगेच्छा मात्र कोबन्ध-स्तत्त्यागो मोक्ष उच्यते “योग्वाशिष्ठ ४॥३५॥: भोग की इच्छामात्र वन्ध है और उसका त्याग करना मोक्ष है 9. प्रकृति वियोगों मोक्ष * -पड़्दर्न-समुध्यय ४: साख्यदर्शन के अनुसार आत्मारूप पुरुपतत्त्व में प्रकृत्तिरुप पुम्प तत्त्व भौतिकतत्त्व का अलग होजाना मोक्ष है “. कामाना हृदय वास', ससार इत्ति कीतित तेषा सर्वात्मना नाणो, मोक्ष उक्तों मनीपिभि हृदय में कामो-शब्दादि विषयों का होना ससार है एवं उनका समूल नप्ट हो जाना मोक्ष है-इस प्रकार मनीपियों ने कहा है चित्तमेव हि. ससारो, रागादिक्लेशवासितम तदेव तंविनिमु क्तं, भवान्त इति कथ्यते --बौद्ध रागादि क्लेशयुक्त चित्त ही समार है ! वह यदि रागादिमुवत हो जाय तो उसे मवान्त अर्थात्‌ मोक्ष कहते हैं ०. नाशाम्वरत्वे सिताम्बरत्वे, तर्कवादे तत्त्ववादे पक्षसेवाश्रयणेन मुक्ति ', कपायमुक्ति किलमुक्तिरेव ॥। -- रिभद्रसूरि मुक्ति तो डिगम्वरत्व में है, इवेताम्वरत्व में, तकंवाद में है, तत्त्ववाद मे तथा न॒ ही किसी एक पक्ष के सेवा करने मे है | वास्तव में क्रोच आदि कपायो से युवत होना ही मुब्ित है।

सोक्ष-स्थान

अत्यि एग धृवः ठाणं, लोगग्गमि दुरारुह

नत्यि जत्य जरा-मच्चू, वाहिणो वेयणा तहा ॥| 5१ निव्वाणंति अवाहति, सिद्धीलोगरगमेव य।

खेम सिव अणावाह, चर॑ति महेसिणों ८३

--उत्तराष्ययन २३

लोक के अग्रभाग पर एक ऐसा दुरारोह-त्र वस्थान है, जहाँ जरा,

मृत्यु, व्याधि और वेदना नही है ॥८५१॥

वह स्थान निर्वाण, अव्यावाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव और

अनावाध नाम से विख्यात है उसे महपि लोग प्राप्त करते

है ॥८३॥

ते ठाश सासय वास, ज॑ सपत्ता सोयति --उत्तराष्ययन २३॥८४

बह मोक्षस्थान घाश्वत निवासवाला है, जिसे पाकर आत्माए शोकरहित हो जाती हैं

अविच्छिन्न सुख यन, मोक्ष परिपठ्यते -शुनचस्राचार्य

जहाँ मास्यन सुज टे, उसे मोक्ष वहते हैं

से सोक्षों योय्युनर्भव ! -- भागवत

जहां जाते पे वार फिर कभी जनम नटी होता, दह मोल है श्डः

वक्‍्तुत्वकला के बीज

अभिलापापनीत यत्‌, तज्‌ ज्ञय परम पदम --मीक्षाष्टक जा, ठृष्णा, मूज्छा आदि सभी प्रकार की विकृत भावनाओं का जहाँ अभाव है, वह परमपद मोक्ष है। अव्यक्तोउक्षर इत्युक्त-स्तमाहु परमा गतिम्‌ प्राप्प निवर्नन्ते, तद्घाम परम मम

--गीता ८१२३

जो भाव अव्यवत एवं अक्षर है, उसे परमगति कहते हैं जिस सनातन-अव्यवत भाव को प्राग्त होकर सनुप्य वापिस ससार में नही आते, वह मेरा परमधाम है।

तद्‌ भासयतें सूर्यों, शज्षाडरों ने पावक | यद्‌ गत्वा निवर्तन्ते, तद्धाम परम मम गीता १५॥६

जिस स्वय प्रकाशमय परमपद को तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है, चन्द्रमा एव अग्नि प्रकाशित कर सकते हैं तथा जिस पद को पाकर मनुष्य पुन. ससार मेनही आते, वह मेरा परमधाम है। ससार भाडे का घर है , वह समय होने पर सबको (चाहे देवता भी हो) खाली करना ही पता है। मुक्ति अपना निजी घर है, जहाँ निवास करने के बाद कभी निकलना नही पडता !

धर सोक्ष-मार्ग परणए वीरे महावबिहि, सिद्धिपह ऐोयाउय घुव। --सूत्रकृताग भ्र्‌ तस्कन्ध २११२१

मुब्तिमार्ग महान्‌ विधिरुप है। न्याययुकत एवं गाब्वत है। वोरपुरप नम्न होकर उस पर चलता है।

नाण दसरा चेव, चरित्त तवो तहा। एसमग्गुत्ति पन्नत्तोि, जिशेहि वरद्सिहि॥ “£

--5उत्तराष्ययन २८१२ सम्यगूज्ञान, सम्यगदर्शन, सम्यक्चारित्र एवं सम्यकतप मुवित्त का यह मार्ग विभिष्टज्ञानी जिनेश्वरों ने कहा है

सम्यगदर्शन-ज्ञान-चारित्रारिस मोक्षमार्गी -+तत्त्वार्थसूत्र ११,

सम्यगदर्शन, सम्यगूमान, एवं सम्यवचारित्रन्यह मोक्ष-मार्ग है

4

श्धछ

मोक्ष के साधन

मोक्खसब्मूयसाहणा, नांण दसरा चेव, चरित्त चेव “--उत्तराध्ययन २३॥३३ सम्यग्‌ ज्ञान-दर्शन-चारित्र--ये मोक्ष के साधन है। णाण पयासगं, सोहओ तवो, सजमो ग्रुत्तिकरो तिण्हपि समाजोगे, मोक्खो जिणसासणो भशिओ --आवद्यक नियुक्ति १०३ ज्ञान प्रकाश करता है, तप विशुद्धि करता है एवं मंयम पापों का निरोध करता है तीनो के समयोग से ही मोक्ष होता है। यही जिनशासन का कथन है ! तनाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्नागमोहस्स विवज्जणाएं | रागस्स दोसस्स सखएण, एगंतसोवर्ख समुवेइ मोबखं --उत्तराष्ययन ३२२ सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाथ से अज्ञान एवं मोह के विवर्जन से तथा रागनह के क्षय से बात्मा एकान्तयुग्मय मोक्ष को प्राप्त होती है नाए-किरियाहि मोकखो --विशेषावइयकभाष्य, गाया ज्ञान एवं क्रिया (आचार) से हो मुबित होती है जे जत्ति हेउ भवस्स, ते चेव तत्तिया मुक्षे | --ओघनियु क्ति ४३ श्ष्८

पाँचवां भाग : तीसरा कौप्ठक १४६

जो और जितने हेतु संसार के हैं, वे और उतने ही हेतु मोक्ष के हैं। ६. मोक्षद्वारे द्वारपाला-ब्चत्वार परिकीत्तिता-। शमो विचारः सतोप-इचतुर्थ साघुसगम ।॥। +योगवाशिष्ठ २१६।४५८ मुवितमहल के चार द्वारपाल है--(१) शान्ति, (२) सह्दिचार, (३) सन्तोप, (४) साधुसंगति मुक्तिमिच्छसि चेत्‌ तात | विषयान्‌ विपवत्‌ त्यज क्षमार्जज-दया-शौचं, सत्य पीयूषवत्‌ पिव --चाणक्यनीति ६१ यदि मुदित पाने की इच्छा है, तो विषयो को विपतुल्य समभकर

छोडो और क्षमा, सरलत,, दया, पचिन्नता एवं सत्य का अमृत्तवत्‌ पान करो

प्र

सोक्षगामी कौन ?

णाणस्स दंसणास्स य, सम्मत्तस्स चरित्तजुत्तस्स जो काही उवओंग, ससाराओ विमृुच्चिहिति -“-आतुरप्रत्याल्यान ८० जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र का उपयोग करेगा, वह संसार से छुटकारा पायेगा--मुक्त बनेगा | किच्चा निव्वुडा एगे, निद्र पावति पड़िया। -“>सूत्रकृताग १५११ जिन सम्यग्‌ ज्ञान-दर्शन-चा रित्र की आराधना के अनेक महा- पुरुष निर्वाण को प्राप्त हुए हैं, उन्हीं वे आराबना द्वारा विद्वान सिद्धि को प्राप्त करते है सय॑ वोच्छिद काम-संचय, कोसारकीडेव जहाद बधगा। --ऋपषिभापित जैंगे--रेणम का कीडा अपने बन्धनों को तोटता है, उसी प्रकार आत्मा स्वयमेव कर्मवन्धनों को तोइकर मब्न होती है | निर्मानमोहा जितस हू दोपा अध्यात्मनित्या विनिद्वत्तकामा. हस्द्व विमुक्ता सुख-दु खसजं-र्गच्छन्यमूढा पदम्व्यय ते ॥॥ >>गीता ?१५॥४ शानीपूर्प ही अव्यय पद-मोक्ष को प्राप्त होते है, ऊो मान- मोह से रहित है, आसविरदोष को जीतनेवाले है, लदा अध्यात्म १५०

पाँचवा भाग : तीसरा कोष्ठक १५१

भाव में स्थित है, कामनाओ से निवृत्त हैं ओर सुख-द्र नाम के हन्द्दों से मुक्त हो छुके हैं

इत्‌ तहिदुस्ते अमृतमानशजु' --अथर्व॑ वेद ६।१०२ जो उस उस ब्रह्म को जान लेते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं

स्नाति मानसे तीर्थ, वे मोक्षमवाप्नुयात्‌

--गरुडपुराण जो सत्य, णील, क्षमा, अहिंसा आदि मानसतीर्थ में स्नाव करता है, वही मोक्ष को प्राप्त होता है।

सकाम स्वर्गमाष्नोति, निष्कामो मोक्षमाप्नुयात्‌

-अन्रिस्मृत्ति फलप्राप्ति की भावना से धर्म करनेवाला स्वर्ग एवं निष्काम- भाव से धर्म करनेवाला मोक्ष पाता है

मोक्ष जाते समय भौतिक चीजे तो छोडनी पडती ही है, लेकिन साधनभूत (घोडे की तरह) धर्मक्रिया भी छोडनी पडती है

मुक्त आत्मा

ने सुखाय सुखं यस्य, दुख दु खाय यस्य नो

अन्तमु खमतेर्यस्य, मुक्त इति उच्यते --योगवाशिष्ठ ६२।१६६॥१

जो अन्तम्‌ छी बुद्धिवाला सुख को सुख एवं दु,ख को दू,ख नही

मानता, वह 'मुग्त' कहलाता है

नोदेति नास्तमायाति, सुखे-दु खे मुखप्रभा

यथाप्राप्तस्थितेर्यस्य जीवन्युक्त उच्यते

--पोगवाशिप्ठ ५।१६ २१

जो कुछ प्राप्त हो उसी मे प्रसन्न रहनेवाला वह व्यक्ति जोवनू-

मुक्त कहलाता है, जिसकी मुखकान्ति सुख में बढती नहीं एवं

दु में घटती नही

अस्तृति-निन्दा नाहि जहिं, कचन-लोह समान

कहे नानक सुन रे मना ! ताहि मुक्त तू जान

प्र

श्श्र

सिद्ध भगवान

उम्मुक्ककम्मकवया भजरा अमरा असगा य।. ॥२०॥ सिद्ध आत्माएँ कमं कवच से मृवत हैं, अजर हैं, भमर हैं और असग हैं

निच्छिन्नसव्वदुक्वा, जाइ-जरा-मरण-वंधरणाविमुवका अव्वाबाह सोक्‍्ख, अणुहोति सासय सिद्धा ॥२१॥

जिन्होंने शारीरिक-मानसिक दु खो को छेद डाला है, जो जन्म- जरा-मरण के बन्यनों से मृकतत हो गये हैं, ऐसे सिद्ध-मुच्त भत्माएँ अव्यावाब घाश्वतसुखो का अनुभव करते हैं

सव्वमणागयमद्ध , चिंद्ब ति सुही सुहण्त्ता

-+औपपातिफ सुत्र सिद्धवर्णन, ॥२२॥। सिद्ध आत्माएं सदाकाल शाहंवत सुसो में स्थिर रहती हैं। एतस्मान्न पुनरावर्तन्ते --प्रदनोपनिपद्‌ उस स्थान ने मुकत मात्माएं पुन संसार में नहीं आती तेपु ब्रह्मलोकेपु परागरावतों वसन्ति, तेपा पुनरावृत्ति ---#हुदारण्यफोपनियद्‌ झ्न ब्रह्मलोको में मुप्त आत्माएँ अनन्तवाल तक निवास करती टे। उनका पुन संसार में आगमन नहीं होता।

श्शरे

(४ वक्‍तृत्वकला के बीज

सिद्धों के १५ भेद--

४. सिद्धा पण्णरसविहा पण्णत्ता, तजहा--(१) तित्यसिद्धा, (२) अतित्थसिद्धा, (३) तित्थगरसिद्धा, (४) अतित्थगर- सिद्धा, (५) सयवुद्धसिद्धा, (६) पत्त यवुद्धसिद्धा, (७) 'बुद्ध- वोहियसिद्धा, (८) इत्यीलिंगसिद्धा, /६) पुरिसलिगसिद्धा, (१०) नपु सगलिंगसिद्धा, (११) सलिगसिद्धा, (१२) अन्न- लिगसिद्धा, (१३) गिहिलिगसिद्धा, (१४) एगरसिद्धा, (१५) अशेगसिद्धा --प्रज्ञापना (१) तीथंसिद्ध, (२) अतीर्थंसिद्ध, (३) तीर्थड्डूरसिद्ध, (४) अतीर्थ- ड्ूरसिद्ध, (५) स्वयंबुद्धासद्ध, (६) प्रत्येकवुद्धसिद्ध, (७) बुद्ध- वोद्धितसिद्ध, (८) स्प्रीलिज्सिद्ध,, (६) पुस्पलिड्धसिद्ध, (१०) नपुसकलिज्ध, (११) स्वलिगसिद्ध, (१२) अन्यलिगसिद्ध, (१३) गृहस्थलिगसिद्ध, (१४) एकसिद्ध, (१५) अनेकसिद्ध

५. सिद्धों के ३१ गुणा-- नव दरिसणमि चत्तारि, आउए पच आझइमे-अंते।

सेससे दो-दो भया, खीणाभिलावेश इगतीस --समवचायाड्र ३१ आठो कर्मो की प्राकृतियों को अलग-अलग गिनने ये सिद्धो के ३१ गुण हो जाते हैं। जैसे --ज्ञानावरणीयकर्म की ५, दर्गननावरणीयकर्म की €, बेद- नीय कमी २, मोहनीयकर्म की २, (दर्शनमीहनीय और चारित्रमोहनीय) आयुकर्म वी ४, नामवर्म की २, (बुभनाम और अशुभनाम) गोत्रकर्म फ्री २, (उच्चगोन्न और नीचगोन्न) तथा अन्तरायकर्म दी ४--इन ३१ ए्रहुतियों के क्षय होने से सिछो के

बे जज क्र कैकक 65. ... 5. कक 4 क््क्चकडइा आता पपीता 7 धव्यक्‍कत 2>+57 5₹

पाँचवा भाग * तोसरा कोष्ठक श्प्र्ण

वे क्षीणम्तिज्ञानावरणीय कहलाते हैं यावत धघीर्यान्तराय के क्षय होने से क्षीणदीर्यास्तराय कहलाते हैं

जीवेश भनन्‍्ते ! सिज्ममाणे कबरमि आउए सिज्मड ? गोयमा ! जहन्नेण साइरेगट्ठवासाउए, उक्कोसेण पुव्वको- डियाउए सिज्क --औपपातिकसूत्र सिद्धवर्णन भगवन्‌ | जीव किस आयु में सिद्धनमुक्त वन सकता है ? गौतम जघन्य साधिक आठ वर्ष मे और उत्कृप्ट करोड पूर्व की बायु में मिद्ध वन सकता है।

बतीसा अडयाला, सट्‌ठी बावत्तरि बोबब्वा

चुलसीई छिन्नू वई य, दुरहिय-अट्ठुत्तरसयं

--प्रज्ञापना एक समय में अधिक से अधिक कितने जीव सिद्ध हो सबने हैं ? इसके लिए बतलाया गया है कि यदि प्रति समय १-२-३ यावत्त्‌ ३२९ जीव निरन्तर सिद्ध हो तो आठ समय तक हो सकते है उसके बाद निश्चित रूप से अन्तर पडता हैं। तेतीम से अडतालीस तक जीव निरन्तर सात समय, उनचाष से साठ तक जीव निरन्तर समय, इकसठ से बहतर तक जीव निरस्तर पाँच समय, तिहत्तर से चौरासी तक जीव निरन्तर चार समय, पचासी से लछियानवे तक जीव निरन्तर तीच समय तथा सतानवें से से एव री दो तर जोच निरन्तर दो रमय तथा सिद्ध हो सकते हैं। फिर निश्चितरप से अन्तर पटता हैं। एक सौ तीन से लेकर एक सी णाट तक थीय यदि सिद्ध हो नो केवल एक ही समय हो सकते हैं, क्र्धातू एक समय में बावत्‌ १०८ शिद्ध होने ये बाद दूसरे ममसम अवश्य अरर पस्या है। दो, तीन उादि समय तक निरन्तर उल्तृप्ट सिद्ध नहों हो सहते

थ्रः

्र८ चक्‍तृत्वकला के बीज

४. विचार के सिवा जगत्‌ और कोई चीज नही है --महविरमण अच्छी-वबुरी सभी प्रकृतियों के व्यक्तियों के संमिलन से ही

विद्व की रचना होती है -+-डॉ. गरास. जे रोल्ड

संसार का स्वरूप

भणते नितिए लोए, सासए विशस्सइ | -+सूत्रकृंताग १३४६ यह लोकद्रव्य की अपेक्षा से नित्य है, शाश्वत है एवं इसका कभी नाथ नदी होता। अनाविरेप ससारो, नानागतिसमाश्रय पुदू्गलाना परावर्ता, अन्नानन्तास्तथागता +योगब्रिन्दु ७० नरकआदि गतिरूप पर्यायो का आश्रय यह ससार अनादि है। इसमे अनन्त-पुद्गलपरावर्तन व्यतीत हो चुके हैं सत्तविहे पोग्गलपरियट्ट पण्णत्त, जहा--ओरालिय- पोग्गलपरियट्टे, वेउव्विय-पोग्गलपरियट्टे एवं तैया- कम्मा-मण॒नच॒इ-आणूपाग्य-पोग्गलप रियट्टे --भगवती १शाई तया क््यानाज् ७५३६ सात प्रकार वा पुद्यलपरावर्तन बहा है-- (१) ओऔदाणविलयुदृगवपरावर्तत (२) अवेक्रिब-प्रदगलपरावनंन (7) तेजस-पुद्म लपरावर्न (४) कार्प-युरगलयरावर्तन, (9) मन “पृदभलप्शउतन, (६) बचननद्गलपरावर्ततन («) धयासो रु वाप-परेसल परायनंन (मोक्ष प्रकाश ८घ)१४५ में इसका दिस्तृत विद्ेच्नन है ।) श्श्द्‌

१६०

बबदुत्वकला के वीज

तिहि ठारोहि लोगबयारे सिया, त--अ रिहंतेहि वोच्छि- ज्जमारोहि, अरिहन्तपन्नत्ते घम्मे वोच्छिज्जमाणो, पुव्व- गए वा वोच्छिज्जमारों

>स्थानाड् ३।१ तीन कारणों से लोक में अन्चकार होता है। अरिहन्तभगवान्‌ का विच्छेद होने से, मरिहन्तप्ररूपित-धर्म का विच्ठेद होने से एवं पूर्वो के ज्ञान का विच्छेद होने से

१२

संसार के भेद

चउब्विहे संसारे पण्णत्ते, त॑ जहा दब्वससारे, खेत्तसंसारे, कालसंसारे, भावससारे “--स्थानाग ४११२६१

चार प्रकार का संसार कही है-

(१) पड्द्रव्य रूप-द्रव्यससार (२) चतुद्देशरज्जु-परिमित क्षेत्ररुप प्षेत्रममार (३) दिन-रात, पक्षप्मास यावेंत पुदूगलपरावतंनो तक प्रिश्रमण रूप - कालससार (४) कर्मोदय में उत्पन्न होनेवाले विभिन्न राग-ह्र पात्मक विचारस्प-भावसंसार

चउब्विहे ससारे पण्णत्ते, तः जहा--ऐ रइयसंसारे जाव देवससारे -- स्थानाडू डाशरछर चार प्रकार का ससार कहां है-

(१) नैरबिकससार, (२) तियेज्चससार,

(३) मनुष्यससार, (४) देवसंसार

जीवाण नवहिं. ठार्णेहि संसार वर्तिसु वा वत्तत्ति वा वत्तिस्सति वा त॑ जहा-पुढवीकाइयत्ताए जाते पंर्चेदियकाइ यत्ताए

--स्थानाग ६३।६६५ १६१

१६२ बक्‍तृत्वकला के बीज

जीवो ने नव स्थानों मे संसार का अनुभव किया, कर रहे हैं एव करेंगे-प्रृथ्वीकाय के रूप मे यावत्‌ पञ्चेन्द्रिय के रूप में

४. लख चौरासी योनि मे, गूंगा वावन लाख। बत्तीस लाख है बोलता, लख चौवन ब्रिन नाक ॥।१

पा

चौरासी लास योनी-के जीवौ में परथ्वी-अपू-तैजसू-वॉयु-४र चारो के सात-सात लाख , प्रत्येक वनस्पति के दस लाख भी सावारण-चनस्पति के १४ लास+-ये ५२ लास गंगे है अर्वाः जीमरहित हैं। थेष वत्तीम लास बोलनेबाले हैं-जीमसहित # प्‌र्वोक्त ५२ लास और द्वीन्द्रिय के दो लास-ोसे ५४ लाख नाय

दुःखरूप संसार

दृहरूव॑ दुृहफलं, दृह्मणुबंधी विडंवणारूवं। ससार जारिउण, नाखी रईं तहि कुणइ॥|

यह ससार रोग-शोक आदि दुखसप है, नरकापषि दु'खस्प फलो का देनेवाला है, वारम्वार दुःखों से सम्बन्ध जोडनेवाला है एवं विडवनासूप है-ऐसा जानकर ज्ञानी फो पइस ससार से राग नही करना चाहिए।

पास लोए महव्भयं | --आचाराग ६१ देखो ! यह ससार महाभयवाला है। एगंतदुक्व जरिए लोए | --प्ृथक्ृतांग १७११

यह संसार ज्वर के समान एकान्त दु खरूप है

मच्चुणाव्माहओं लोओ, जराए परिवारिओ | -उत्तराष्ययन १४।३३

चह संसार मृत्यु से पीडित है एवं वृद्धन्अचस्था से घिरा हुआ है

मृत्युनाम्याहतो लोको, जर॒या परिवारित'

भहोरात्रा' पतन्‍्स्‍्येते, ननु कस्मान्न बुध्यसे

-महासारत शान्तिपर्द, १७५॥६ पुत्र ने कहा--पिताजी ! यह सम्पूर्ण जगत मृत्यु के द्वारा मारा जा रटा है। दुठापे ने एसे चारो ओर से घेर लिया है लौरथे

श्र

१६४ ववतृत्वकला के बीज

दिन-रात ही वे व्यक्ति हैं-जो सफलतापूर्वक प्राणियो की आयु का अपहरणस्वरूप अपना काम करके व्यतीत हो रहे है, इस बात को आप समझते क्यो नहीं ?

(उक्त पिता-पुत्र सगद उत्तराध्ययन १४ से मिलता-झुलता है ।)

६. प्रदीप्ताज्रारकल्पोयं, संसार सर्वदेहिनाम्‌ -त्रिपध्ठिशलाक। पुरुषचरित्र सभी प्राणियों के लिए यह ससार धयकत़े हुए अगारे के समान है

७. डज्भमाण बुज्कामी, राग-दोसग्गिणा जे >उत्तराष्ययन १४॥४३

राग-द्व पतुप अग्नि से जलते हुए इस ससार को देखकर भी हम नहीं समभत्ते !

८. बहु दृकखा हु जतवो -आघचाराज्ध ६१ ससारी जीव बहुत दू खो से घिरे हुए है ६. तदस्ति दु.ख किचित्‌, ससारी यनन प्राप्तोति। >योगवाशिप्ठ २४१ २५४ ऐसा कोई भी दुख नही है, जो ससारियों को सहना १चता ही

१० सारीरा माणसा चेव, वेयणाओ अणतसो “उत्तर।ध्ययन १६॥४६

इस समसार में शरीरसम्बन्धी और मनसम्दन्धी अनन्त वैदनाये हैं ११. जम्मदूक्‍ख जरादुक्स, रोगा बे भर गांशि गे नहों ! दुकखो हु ससारो, जत्थ कीसति जतुग्यो -उत्तराष्ययन १६॥१६

>++“> «के ऋललअवस्धथा का दस हे, रोग एवं पृत्यु का

पाँचवा भाग * तीसरा कोष्ठक १९०

श्र

१३

१४.

१%

दुख है। अहो ! यह ससार निदिचतरूप से दु खमय है एवं इसमे प्राणी दु पा रहे हैं हर साभ वेदना एक नई, हर भोर सवाल नया देखा। दो घडी नही आराम कही, मैंने घर-घर जा-जा देखा। -हिन्दी कविता गतसारेज्जससारे, सुख-भश्रान्ति शरीरिणाम्‌ | लालापानमिवाड ग्रुण्ठे, वालाना स्तन्यविश्रम -सुभाषितरत्न भाण्डागार, पृष्ठ ३८४ इस निसार ससार में सुख होने पर भी क्षज्ञानी जीव भश्रमव सुख मानते हैं जसे--वच्चे अंगूठे के साथ अपनी लार (थूक) को चूसकर भी अभ्रमवश उसे माता के स्तन का दूध समभते हैं छोडकर निश्वास कहता है नदी का यह किनारा , उस किनारे पर जमा है, जगत भर का हर्ष सारा। वह किनारा किन्तु लम्बी साँस लेकर कह रहा है हायरे ! हर एक सुख उस पार ही क्या वह रहा है ?

“हिन्दी कविता यह जगत्‌ काँटो की वाड़ी है, देख-देख कर पर रखना ! “पग्रुर गोरख

चर

(४ सब को दुःख

१. कौन है जग में सुखी ? दुखिया तो सब संसार है वह मू्खों मे भी महासूर्ख है--जो मानता है कि ससार में

सुख है मुझे तो जो भी मिला दुख की कहानी सुनाता मिला -विनोबा

3. दाम ब्रिना निर्वन दुखी, तष्णावश घनवान। कछु ना सुख ससार मे, सव जग देख्यों छात _ -कबीर ४. सूर्य गरम है चाँद दगीला, तारो का ससार नहीं है।

जिस दिन चिता नही सुलगेगी, ऐसा कोई त्यौहार नही है -हिन्दी पद्च

कोई कहे भू खाऊ भने कोई कहे शामा खाऊ ? -गुजराती कहावत्त

ऊचा चढ-चढ देखो | घर-घर ओही लेखों -राजस्यानी कहावत ७, केचिवज्ञानतों नप्टा, केचिन्नष्टा: प्रमादत केचिदज्ञानावलिपेन, केपिन्नप्टेस्तु नाथिताः ॥-सुभाषितावलि संसार में कई अज्ञान से नप्ट हुए, कई प्रमाद एवं ज्ञान के अभि- मान से नप्ट हुए तथा कश्यों का नाथ नप्ट होनेवालों ते कर दिया 5. भूल गये रग-राग, भुल गए छंकडी | तीन बात याद रही, तेल लूण लकडी ।_-राजस्थानी पद्य

१६६ फ्र

सुख-दःखमय संसार

क्वचिद्गीणानाद क्वचिदपि हहेति रुदित, क्वचिद्‌ विद्वदुगोष्ठी क्वचिदरपषि सुरामत्तकलह क््रचिद रम्या रापा क्वर्चिदापि जराजर्जरतनु, जाने ससार किममृतनय कि विपमय सुभाषितरत्ननण्डागार, पृ. ६२ कही वीणा का नाद है तो कही हाहाकार रोदनमय है, कही विद्वानों की गोप्ठी है तो कही शराबियो का कनह है। कही सुन्दर नारियाँ है तो कही जजंरित घरीर वाली वृद्धाए है। अत समझ में नहीं आता कि इस संसार में अप्ृतमय वया है ? और विपमय क्या है ? तितलियाँ हूँ फूल भी है, हैं कोकिलाए गान भी है। इस गगन की छाह में मानो ! महल उद्यान भी है। पर जिन्हे कवि भूल ब्ेठे, वे अभागे मनुज भी है हैं समस्याएं, व्यधाएं भूख है अपमान भी है। +>मिलिन्द फल थोडे है पात बहुत है, काम अल्प है बात बहुत है प्यार लेण आघात बहुत है, यत्न स्वल्प व्याधात बहुत है मजिल में पग-पंग पर देखा, विजय अरप है हार बहुत है, सार स्वस्प निस्सार बहुत है, सुन्दर कम आकार बहुत है ---पय के गीत से १६७

१६८ वक्‍्तृत्वकला के बीज

सारा संसार संतुष्ट है और सारा असंतुृष्ट प्रत्येक प्राणी को इस खिचडी का भाग मिला है-- कही दाल अधिक है और कही भात। --संदुग्ुरुवरण अवस्थी जो केवल विचारते है, उनके लिए ससार सुखमय है, किन्तु जो इसका अनुभव करते हैं, उनके लिए दु खमय है -होरेस वालपोल जंसे-ईर्ष्या और कुटिलता द्वारा संसार को हम नरक बना सकते है, वंसे-प्रेम द्वारा स्वर्ग भी

७. अन्तर जितना उज्प्वल होगा, जगत उतना मद्भल होगा --सतज्ञानेदवर

प्र

१६ गतानुगतिक-संसार गतानुगतिको लोको, लोक पारमार्थिक

-पंचतत्र १२६६ ससार गतानुगतिक-दूसरो की नकल करनेवाला है, कितु वास्तविकता को नही देखता

२. कोडी नु कटक-एक कीडी चाले एटले बघी चाले -ग्रुजराती कहावत

गड्रीप्रवाह ससार। -हिन्दी कहवत

खरबूजे ने देख खरवूजो रग बदले | -राजस्थानो कहावत

दुनिया मथुरा के बदरों के समान नकल करनेवाली है

गलेण्ड के राजा के गलगड (कठमाल) का रोग हुआ | डाक्टर ने सुन्दर पट्टा लगाया देखा-देखी लोग भी पट्टा लगाने लगे एवं 'नेकटाई” चल पडी यद्‌ यद्ाचरति श्र ष्ठ-स्तत्तद वेतरोजन- सयत प्रमाण कुरुते, लोकस्तदनुवर्ते . जीता ३॥११ भ्रेप्ठ वगाधित जोनजो आचरण करता है, साधारण लोग भी उसी तब्ह करते हैं श्रष्ठ व्यक्षि जो दात गत्व मानता है, लोग भो उसके पीछे चलते ८. भ्रष्ठ पुपों को चाहिए किचवे कोई भी ऐसा काम करें, जिसका अनुकरन्ण करके लोगो को कप्ट का सामना करना पड़े -धनमुनि

१६६ ञ्

१७ परिवर्तनशील संसार

सभी वस्तुएं नवीन और विचित्र रूपो भें परिर्वतित होती रहती हैं -लाॉग्रफेलो २. पर्यायाथिक-नय की दृष्टि से सारा ससार समय-समय पर बदलता रहता है। -जैनशास्त्र ३. केवल एक परिवर्तन को छोडकर सभी वस्तुएं परिवर्त न- दील हैं! >मगवित

जो कुछ मैं पहले था, वह भव नहीं हूँ

>-वायरन

9. परिवर्तन के तीन क्रम--पहले हृदय रिवर्तत, फिर जीवन- परिवर्तन और फिर समराजप रिवर्त

प्र

१७०

पृद

ल्‍्ण

संसार का पागलफपन

आदित्यस्यग॒तागर्त रहरह सक्षीयर्त जीवित + व्यापारंवहुकार्य भा रगुरुभि- कालो विज्ञायर्त ह्प्ट्वा जन्म-जरा-विंउत्तिन्मरण त्रासश्र नोत्यथ्व्त + दीतल्वा मोहमयी प्रभादमदिरामुन्मत्तर्त जगत्‌ -भर्तू हरि -वैराग्यगतक सूर्य के उदय-अम्त होने से दिन-दिन अीड घटती जा रही हें अनेक कार्यो के भीर से बढ़े हुए व्यापारों में वीतता हुआ वाल भी जाना नहीं जाता जम-जरानमरण को देखकर तीस नही होता अत प्रतीत होता है. कि मोहमया प्रमाद-मदिरा को पीर्फर जगत्‌ मतवाली हो ग्द्ा है भूठा साचा कर लिया, विंप को अमृत जाना दुख को सुख सत्र कोई है, ऐसा जगत दिवाना >फबीर दुनिया आधली नथी, दीवानी छें। -ग्ुजराती फहादत रगी वो नास्गी बह, पके दूध को ग्योया चलती को गाडी कहे, देय कबीरा। राोया नयवीर गाडी का नोम ऊत दी, चलती तंग लाभ गाडी | -हिंदो पहुथत

५७०

श्छर वक्‍तृत्वकला के वीज

६. भारत में एक करोड तीस लाख पागल है, एक हजार में २३ मानसिक रोगी है उनमे से १८ केस सगीन समभने चाहिए

(मानसिक रोग-चिकित्सालय के अधीक्षक डा० कैलाशचन्द दुबे )

७. काम क्रोध जल आरसी, शिक्षु त्रिया मंद फाग, होत सयाने बावरे, आठ वात चित्त लाग।

८, दिल्ली में पागलो की मद मशुमारी हो रही थी, एक व्यक्तिने गणाना के अधिकारी से कहा- कि मेरा नाम पागलो में लिख लीजिये ! छक्के लोग पागल कहते है! विस्मित अधिकारी ने पूछा-कसे ? उसने कहा-एक दिन कई नौजवान लडकियाँ अश्लील फिल्‍मी गीत गाती हुई बाजार मे नगे सिर जा रही थी, उनमे एक लडकी मेरे मित्र को पुत्री थी। मैंने उसे बुला- कर कहा-वैटी ! ऐसे अव्लीलगीत गाते हुए वाजार मे नगे सिर घुमना अपने कुल की शोभा नही दंता लडकी

ने कुछ गर्म महसूस की और चुपचाप चली गई सहेलियो

ने पूछा--यह बूढा क्या कहता है ? उसने जवाब दिया-:

कुछ नही, पागल हैं; यों ही बकवास करता है

# एक दिन तवविवाहित पति-पत्नी हलवाई की दुकान पर खड्दे-बढ़े खा रहे थे, बे प्रेममुग्च होकर एकनदुसरे के भुह में चम्मच्र में कुछ डाल रहे थे। लड़का मेरे सम्बन्धी का

पाँचवा भाग - तीसरा कोष्ठक श्छरे

था इसलिए मेरे से रहा नही गया, भते मैंने घीरे से उसे कह दिया, बैठा ! ऐसा व्यवहार अच्छा नही लगता, लडके ने मुह मोड लिया तह के पूछने पर कहने लगा- ऊँ नही, योहीं पागलवन की वात करता है

दर

संसार का स्वभाव

निन्‍दति तुण्हीमासीनं, निन्‍दति बहुभाखिन। मितभाखिन पि निन्‍दतति, नत्यि लोए अनिन्दिभो “धंम्मपद २२७

ससार चुप रहनेवालों की निन्‍दा करता है, बहुत बोलनेवालो की निन्‍दा करता है भौर मितभाषियों की भी निन्‍्दा करता है विश्व भे ऐसा कोई नहीं, जिसकी भिन्‍्दा होती हो

दुनिया चढ़ या ने हसे और पालाने परा हसे

“-राजस्यानी कहावत महात्मा छहो दिशाओं में पैर कर करके हार गये, क्योकि लोगों ने कहा-थ्वर्व मे जगन्ताथपुरी है, पष्चिम में द्वारका है, उत्तर मे बद्रीनारायण है, दक्षिण में रामेश्वरम है, नीचे शेष भगवान्‌ है और ऊपर बेकुण्ठ है | परिचितजनद् पी लोको नव-नवमीहते -माधकवि संसार का यह स्वभाव ही है कि वह परिचित लोगों से हंप करता है एवं नए-नए व्यक्तियों बगे चाहता है !

अर्थार्यी जीवलोको>यम्‌ -विष्णु शर्मा यह सारा ससार अपने स्पार्थ को सिद्ध करनेवाला है भिन्नरुचिहि लोक- +-रघुवंश

/4८04

पाँचवाँ भाग तीसरा कोप्ठक श्छ्फ़्‌

१०. ११-

१२.

१३

लोगो की रुचिया भिन्न-भिन्न हुजा करती है फकीर हाल में मस्त, जरदार माल मे मस्त, बुलबुल बाग में मस्त और आकाजञ दीदार मे मस्त -उद्दँ कहावत अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग अपना-अपना काम, अपना-अपना खाना अपना ठेठ देखें और दूसरो की फूली निहारे | दुनिया भुकती है, भुकानेवाला चाहिए। --हिन्दी फहावतें मियाँजी की दाढ्ी बले, लोग तापणश ने जावे। -राजस्यानी फहावत्त घर आए पूजे नही, वाबी पूजन जाय -हिन्दी फहायत हाथ पोलो-जगत बोलो, हाथ काठो-जयत भाठो --राजम्धानी कहावत

या

२० दृष्टि के समान सृष्टि

१. जाकी रही भावना जेसी, प्रभु मूरति देखी तिन तेसी | --र/मचरितमानस डूं्नॉट मेजर अदर पीपुल्स कार्न बाइ युअर ओन बूहल “अंग्रेजी कहावत हंष्टि के समान सृष्टि ससर्थगुरु रामदास ने रामायटा सुनाते समय कहा-- हनूमान ने लंका में स्वेत फूल देखे यगुप्तहनूमान ते कहा--- लाल फूल थे, तुम भूठे हो। दोनो राम के पास पहुँचे राम ने कहा-फूल तो ब्वेत थे, किन्तु हनूमान की आखों में क्रेधष की लालिमा थी अत इनको लाल दीखे, क्योकि दृष्टि के समान ही रूृष्टि होती है ४. एक एवं पदार्थस्तु, त्रिधा भवति वीक्षितः। कुणपः कामिनी मास, योगिभि., कामिभिः रवि ->चाणक्यनीति १४॥१६ एक ही पदार्य अर्थात्‌ सन्नी का घरीर हष्टिभेद से तीनमूपों मे देखा जाता है, योगी मुर्दा के रूप, कामीपुरप सुन्दर स्त्री के हूप में और कुत्ते उसे मास-रूप में देखते है ५. पुृप्ट पुत्र को माता दुर्वल, स्त्री पतिदेवता, शत्रु राक्षस १७६

ज्श्ए

पच्वा भाग त्तीसरा कोप्ठक १७७

रै

११

खड़ी. न्प्प जण

एवं मित्र वन्चु मानते है। धर्मपुस्तको को श्रद्धालुभक्त गास्त्र, रद्दीवाला रहीकागज और गाय-मेस-बकरी आदि अपना खाद्य मानती है द्वारका भें युधिष्ठर को बुरा आदमी नहीं मिला और दुर्योवन को भला आदमी नही मिला सन्‌ १८०५७ की हलचल को अग्न॑ जो ने गदर (रिवोलेशन) कहा और आज के लोग क्रान्ति कहते है १६ दिसम्बर १६७१ के दिन को वागलावासी स्वतन्त्रता का स्वर्शिम प्रभात मानते है, भारत तथा कई अन्य देश इसे मुक्ति की सज्ञा देतें है और पदिचमी पाकिस्तान इस दिन को इतिहास का सबसे बडा मनहुस दिन कहता है। दूसरे लोग हरिजन और विधवा क्यो अपवित्र कहते थे, जबकि गाधीजी उन्हे पवित्र मानते थे | एक कहता है गुजाव खुशवबूदार है, दूसरा कहता है, गुलाव कांटोवाला है | चर्मचीडी (चमगादर) के लिए अधेरी रात ही दिन है जबकि कौवे के लिए वह डरावना अधेरा है |

दोइते घोड़े का चित्र उत्टा देखो तो घोड़ा लोटता दीसेगा गाँधी टोपीवालो को शराब पीते देसकर एक ने कहा- हाय | हाथ | काग्रेसी भी घराबी हो गए ! दूसरा बोला नहीलहीं ! घराद्ी काग्रेसी-दोपी पहनने लग गए, ऐसा कहो

कागज वा का हलवा चली। ह। पे पुद्धिा इैंट जाने मे हैलवा नीचे ग्रिर गया उत देखकर एक बहन ने केहा- वह कोर 8, इसरी ऊहा-गरतीक का दोफ है, तीसरी केंह।-.३३ काम (६ प्रत्येक व्यक्ति अपनी दष्टि के अनुसार अपने सिदार की सृक्ति करता है | जेसे ““वे+मि ) और ग़ुद्र को देष्टि से * कह क्या स्त्रश्ले नाधी: * जाति स्त्री वर श्र के केद नही ग्रा चाहिए प्रकार उलेसीदासजी भी कह डात्ना-.._ गवारः

5 नायज मैंने को / साँच वोलिए गाज फेट्भाषी | कह बुरे लगे हित के वेचन, हि्यि विचारोे आप, कड़वी भोपकि विन 4 / मिटे तन के ताप |

व्यापार बोला-.._

पत्यान्न तु वाणिज्यम | अर्थात सांच-

पाँचवा भाग * तीसरा कोपष्ठक श्छ&

व्यक्ति बेठे थे। उनमे से हिन्दू ने कहा--चिडिया कह रही है--

राम-नछमन-दसरथ, राम-लछमन-दसरथ [

मुसलमान ने कहा--नही-नही ! यह तो कह रही है- सुभान तेरी कुदरत, सुभान तेरी कुदरत [

पहलवान ने कहा--नहीं, नही ! यह तो कह रही है- दण्ड मुग्दर कसरत, घण्ड मुग्दर कसरत !

किराने के व्यापारी ने कह्ा-नही,नही | यह तो कह रही है--

हल्दी धर्ियां भदरख, हल्दी धनिया भदरख !

आसिर सूत कातनेवाली बुढिया ने कहा-नही, नही, यह तो कहती है--

चरसा पोनी चमरस, चरणा पोनी चमरस !

ग्

२१ संसार को उपम्ताएँ

१. सुपने सब कुछ देखिए, जागे तो कुछ नांहि ऐसा यह ससार है, समझ देख मन मांहि

२. जग है संपना अपना ने कह , तर काहे को ूठ में जात ठया कवि सुरत क्यो भजै प्रभु को , तज सूतज भूल के भाव लगा ॥॥ तेरे जीवत है सब ही गरजी , वरजी इह बात खात देगा तरे अत समें भगवत बिना, ने कझगा ने पगा ने तगा सगा ३. नाटक सो ससार, जुगल थार्ट सव कर रा्या। एक-एक रे लार, मंच छोड़ सव चरालसी ४. सम्पर्ण विव्व एक मच है और स्थ्री-पुरुप इस पर अभिनय करनेवाले पात्र -शैय्सपियर ४. संसार एक सिनेसा है। सिनेमा में जैसे प्रकाश और अघकार दो तत्त्व काम करने हैं, एक से काम नहीं बनता,

बसे ससार-सिनेमा में भी भान-अन्नान दोनों तत्त्व आवध्यक श्द०

पाचवा भाग * तीसरा कोप्ठक १८१

हे

है दि

के

हैं। जहाँ ज्ञान है वहाँ अनासक्ति, ऐद्वर्य एवं आनन्द है तथा जहाँ अज्ञान है वहाँ आसक्ति, वासना एवं दुःख है। कीडे मकखी, मच्छर, पशु-पक्षी, साधारणमनुष्य एव ज्ञानी-मुनियों मे क्रमण ज्ञान की विजेपता होने से वे गदगी घास-फूस, रूपग्रा-्पेसा आदि-आदि पूर्व-यूर्व वस्तुओं में आनन्द नहीं मानते। सिनेप्रा मे पूर्ण प्रकान्म होते ही खेल खतम हो जाता है, ऐसे ही पूर्णा-न्ञान मिलने से मृक्ति मिल जाती है। फू उतना-सा है कि सिनेमा में पर्दो पर चिप्नित मनुम्य, पगुनक्षी जड़ होते हैं और सासारिक प्राणी चेतन बृक्ष-ससार वृक्ष है इस पर वबदर भी वबंठते हैं और पक्षी भी। बदर उधर-उधर बृक्षो पर भटकते रहते हैं किन्तु पक्षी मौका पाकर उड़ जाते है। तुम वदर बनोंगे या पक्षी ? पक्षी बनना हो तो पाँच मैं लगा दूं कोठरी-जग काजल की कोठनो, रहिये ददा सथक स्त्ताकर को तनय भी, वच्यों बिना कलडू।। हरो ताथ झीचों सुधा, छहरो ज्योति भमद। लास करो अब प्रेमनिधि, जात कलडु चन्दव॥। पहन भली सम्रभत बुरी, यही जगत की रीति। रज्जव कोठी गार वी, ज्यों घोचे त्वो कीच विब्व णुक सुन्दर पुस्तक के समान शिक्षापूर्स है, किनस उसके लिए बुद्ध भो नही, लो रसे पढ नहों सकता ।._ ->गौल्योनी

श्र वबतृत्वकला के वीज

११ सरीरमाहु नावत्ति, जीवों वुच्चइ नाविओ। ससारो अन्नवो वुत्तो, ज॑ तरति महेसिणो

“--उत्तराध्यमन २२॥७३ शरीर नाव हैं, जीव नाविक है, संसार समुद्र है, इससे महपि लोग ही पार तरते हैं

१२. सतोप साधुसद्भइच, विचारो5थ गमस्तथा। एत एवं भवाम्बोधा-बुपायास्तरणे नृणाम्‌

+-योगवाशिप्ठ २।१२॥१ सतोप, साधुसंगति, सद्विचार भर क्रोध आदि कपायो बा शमन--ये ही मनुष्यों के लिए संसारममुद्र से तरने के उपाय हैं।

42

२२ दुनियां की ताकत

१. को लोकमाराधगितु समर्थ

+-हुृदयप्रदीप डस संसार को एक साथ प्रसन्न करने में कौन समध है ?

ल्‍प

ढोर ना चाव्या मा कूचो रहे, पण लोकोना चाज्या मा रहे ! घी ना गालमा बचे, पण लोकोना चाव्या मा वचे ४. कुआने मोढे छाकणो देवाय पण गामने मोढे देवाय --गुजरातो फहावतें

एज यू लाइक यू कोन्नोंट कर्व मेन्स टग

--मेग्रेजी फहावत अपनी जयान परयराट सन्‍ते हो, दूसरों की नहीं

नदी

मारनार नु हाथ भलाय पर बोलनार नी जीभ भालाय +-गुजराती फ्टावत

प्र

न्त 7 जज

यदीचछसि वशीकतु*, जगदेकेन केर्मशा 3रा पञथ्चदण, स्वस्यो, गा चस्ती निवारय |

भहारे ने ही मन श्धर-उघर सटकता है। आठ इसे इनके सम्पर्क से हटाओ। रे सद भावेन हरेन्मित्र, पश्रमेग तक व्रन्धवान |

व्यीी.

स्त्री-मृत्योँ दान-मानास्या, दाक्षिण्वेनेतरान्‌ जनान्‌

संदेभावनाने मित्र को, कमान से वायतों वी, दान मे स्त्री को, मात से सेवक को और चतृन्ता मे अन्य लोगों को पंच में कन्ना चाहिए दर

ट्र्४

पाँचवा भाग . तीसरा कोष्ठक श्प्ण्‌

४. लुब्वमर्थन गृह्लीयात्स्तव्धमज्ज्जलिकर्मणा मूर्ख छन्दानुगोघेन, याथाथ्येन पण्डितम -+चाणक्यनीति ६११२ लोभी को धन से, अभिमानी को हाथ जोडकर, मूर्ख को उसवा

मनोरथ पूरा करके और पण्डित को सच-सच कह कर वश्यमे करना चाहिए

प्र

२७

संसार की विशालता

चौदह रज्ज्वात्मक ससार कितना बचा है, इसको सम भाने के लिये जेनशास्त्र (भगवती १६। ०) में देवों का हृष्टान्त दिया गया है, वह इस प्रकार है--

जम्बूद्रीप की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोंस, एक सौ अट्टाईस धनुष्य और कुछ अधिक साढ़े तेरह अग्रुल है अब कल्पना कोजिये कि महान ऋद्धिवाले देवता जम्बूद्वीय के मेरु- पर्वत की चूलिका को घेर कर खडे है इधर चार दिक्‍कु- मारिया, (देविया) हाथों में बलिपिण्ड लेकर जम्बूद्वीप की आठ योजन ऊँची जगती पर चारो दि्लाओ में बाहर की तरफ मुख करके खटी है। वे एक ही साथ चारो वलिपिण्डो को नीवे गिराये उस समय उन छहो देवों में से हर एक देवता मेमचूलिका से अपनी चीघ्रतर गति हारा नीजे आकर पृथ्वी तक पहुंचने से पहले ही उन चारी बलिपिण्डों को मगहणा करने में समर्थ है। बलिपिण्द जितनी देर में ढेवियो के हाथों से छूटकर जमीन तक आठ योजन भी नहीं पाते, उतनी-शी देर में बह देवता मेरचूलिका से लाग्य योजन तो नीचे आजाता है और लगभग सवा

(८६

पॉचिवा भाग तीसरा कोष्ठक श्द्छ

५]

तीन लाख योजन का जम्बूद्वीप के चारों ओर एक चत्कर

लगा देता है अर्थात्‌ सवा चार लाख योजन क्षंत्र लाघ

देता है

लोक कितना बडा है, यह जानने के लिए उपयुक्त शीघ्रगति से उन छहो देवो मे से घदवीकृत लोक के मध्य भाग से चार देवता तो चारो दिश्याओं मे जाये और दो ऊपरनीचे जाये उस समय हजार वर्ष की आायुवाला एक बालक उत्पन्न होकर पूर्ण आयुप्प भोगकर मर जाये, यावत्‌ उसकी सात पीढिया बीत जाये एवं उसके नामन्गोत्र भी नप्ट हो जाये। इतने लम्बे समय तक भी यदि वे छटठ्ो देवता अपनी अआीफक्रतरगति से निरन्तर चलते ही जायें तो भी इस लोक का अन्त नहीं &ा सकता एवं जितना रास्ता वे तप्र करते है, उससे असख्यातवा भाग शेप रह जाता है भाईस्टीन के मतानुसार प्त्ति सेविण्ड एक लाख ८६ हजार मील चलनेवानी प्रकाथ की किरणें यदि ससार की परिकमा करे तो उन्हें १२ कनोड जर्ष लग जायेगे प्रहों और ब्द्याण्ी क्ले डिपय मे वेज्नानिको फा मत- नेज्ञानिणों के मतानुसार सह पृब्वी एक लग्पतरे पुटाल वो नरह गोल है और एप हजार मील प्रति घदा छी यति में "नी बरी पन पृम्॒ रही है सारा ६६ #जार मोल प्रनि ठा ये गति ये सूर्य की शापिफ परिकि शत माई रपो

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3 बं छु. >स "अत है पल आम भषमिनिजशनिशीमिर पी सजी पिन मम आओ

पक,

श्ष८

बवतृत्वकला के बीज

है। पृथ्वी की तरह अन्य ग्रह भी सूर्यमण्डल के चारो ओर घूम रहे है। सूर्य से इनकी दूरी निम्न प्रकार है--

ग्रह दूरी (मीलो मे)

बुच करोड ६० लाख शुक्र करोड ७३ लाख पृथ्वी करोड ३० लाख मगल १४ करोड १७ लाख त्रुहस्पति ४थ करोड ३० लाख शनि ८८ करोड ७१ लाख अरुण १७८ कराड ५० लाख वम्ण २७८ करोड ७० लाख यम ३४७ करोड

हमको यह भी जान लेगा चाहिए कि सूर्य का आकर्षण इन गद्ों से भी करोडो मील दूर तक है पर वहा कोई ग्रह नही है। सूर्यममडल ६०० करोड मील लम्बा है भार इतना ही चोदा है। यद्द गोला इस ब्रह्माण्ड (जिसे आकाशगगा कहने है) के चारो ओर घूम रहा है। टसे अपना एक चक्कर पूरा करने मे ३५ करोड ६७ लास २० हजार वर्ष लगते है। इस ब्रह्माण्ड के वाहर हमारा सूर्य- मण्डल अकेला ही नहीं है ऐसे टेढ क्षरब सूर्यमण्डल घूम कहे है हमारा यह सूर्यमण्टल उन सबसे छोटा है। पूव्रक्ति बहत्‌ सूर्समण्डलो के दीच में घुमता हक हमारा यह सूर्य- मण्डल ऐसा प्रतीत होता है, मानो हजारों म॑,ल प्रतिबदा

पाचवा भाग : तीसरा कोष्ठक श्प€

की गति में चलती हुई आधी में घूमते हुए वडे-बडे बृक्षो एवं पहाडो के बीच में एक राई का दाना धूम रहा हैं

आकाहझगगा से आगे जो चमकते हुए सितारे दिखाई देते हैं, उनमे से प्रत्यक सितारा एक-एक ब्रह्माण्ट है ऐसे कितने ब्रह्माण्ड हैं, यह किसी को पता नहीं है कहाजाता है कि लगभग १० हजार करोइ ब्रह्माण्ड ता वैज्ञानिकों ने गिन लिए है! कई सितारे तो पृथ्वी से इतने दूर है कि लाख परे हजार मील प्रतिसेकिण्ड की गति से चलने वाली उनकी रोशनी यहाँ अरवो वर्षों तक भी नही पहुच सकती इन सबसे परे भी कितने खरब ब्रह्माण्ड और है, उनका अभी तक कोई पता नहीं लगा है और कभी लग सकता है। अस्तु, इस अनन्त सृष्टि पर ज्यो-ज्यो वित्वार किया जाता है त्योनत्यों हैरानी होती है और दिमाग चक्कर साने लगता हैं

हमारी यह दृष्यमान पृथ्वी एक सिरे से दुसरे सिरे तक ३६२०४ मीप चोटी है इस पर ५० करोड ने नी अधिक मन्र्प रहते है चाँद पृथ्वी से लगभग ढाई साख मील दर है (समिताप, २१ मई १६६६ पे सम्पादकीय सेप के आधार पर ।)

प्र

ष्प्‌ नरक-संसार

१. नरक पापकंमिणां यातनास्थानेपु

--सुत्रकृतांग भुत अ. टीका पापी जीवों के दु भोगने के स्थानों के अर्थ में नरक शब्द का प्रयोग होता है

२. भहेलोगेणं सत्त पुढ्वीओं पतन्नत्ताओंं एयासिण सत्तण्ह पुडढवीण सत्त णशामघेज्जा पण्णत्ता, जहा-धम्मा, वसा, सेला, अजणा रिट्रा,मधा माघवती “++स्थानाग अधघोलोक मे सात पृध्वियाँ हैं, उनके ये सात नाम हैं-

? घमा, वा, शेला, ४अज्जना, ५४ रिप्ठा, $६मधा, माघवती

३. एयासिण सत्तण्ह पुढ्वीण सत्त योत्ता पण्णत्ता, ते जहा- रणप्पणा, सक्‍करप्पभा, बालुकापभा, पकप्मभा, घूमप्पभा, तमा, तमतमा हि “+-स्थानाग इन सातो प्रथ्वियो के सात गोत्र हैं-१ रत्लप्रभा, शर्कराम्रभा,

बालूकाप्रभा, पहुप्रमा, घृम्रम्भा, तम प्रभा, तम- तमाप्रभा शह्दार्थ से सम्बन्ध रसनेतालो अनादियाल से प्रचलित संज्ञा को नाम कहते हैँ झद्दार्थ का स्थान रसकर विसी का जो नाम दिया जाता है, उम्र गोत्र बहते है घमा आदि सात प्रथ्वियों फे नाग हैं और सलप्रभा आदि गोत्र है।. --प्रजापना टीका १६०

पांचवा भाग * तीसरा कोष्छक १६१

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की

आमीय तत्तीम, अट्टावीस तहेव वीस | अट्टारस सोलसग, अट्ठृत्तरमेव हेद्धिमया ॥। ++जीवाशिग्रम प्रतिपत्ति उ. १. नरकाधिकार

रलप्रभादि पृथ्वियो की मोटाई क्रमण निम्नलिखित है--

(१) एक लाख अस्सी हजार योजन, (7) एक लाख वतीस हजार योजन, (5) एव लास पठाईस हजार योजन, (४) एक लाख दवीस हजार योजन, (५) एक लाख जठारह हजार याजन,

(६) एक लाख सोलह हजार योजन, (3) एक लाख आठ हजार योजन

तीसा पन्नवीसा, पन्नरस दसा तिन्नि हवति

पचृूणसयसहस्सं, पचे अखुत्तरा खरगा।॥

--जीवाशिगम प्रतिपत्ति ३, नरक्काधिकार

तीस लागय, + परच्चीस लाए, पन्द्रह लाख दस नलास,

सीन लाख, पाँच कम एक लाख, पाच | ये क्रमश.

भातो नरकों के नरकवासों थो सरया हैं। (सव मिलकर ८४ लाख

नरफाबास होते है। )

है जे

स्त्नप्रभा यादि पृथ्वियों में ग्रामनलगर आदि नहीं हैं। (विमह्यति प्राप्त जीवो के अतिरिक्त) ब्रादर अव्निकाय नही है वहाँ जो शदल-गर्जना एवं वृष्टि होती है, वह सुरुणसुर एवं नागा द्वारा की जाती है। +-भगवठी द्या८ सरगा अनो बट्ा बाहि चडरसा, अहे खुरपपमदागसब्यि, निदर्ंध गरतमसा, ववगगगह-चद-्मरनयपत्त-जोउसप्पहा, मेस्खसा-मासरहिर - पृथषएल - नित्तारपु

१६४ बच्तुत्वकला वे बोज

नरक के जीव १० प्रकार की वेदना का अनभव करते हुए विच-

रते है। बथा-(१) शीत, उष्ण, भूख, तृपा, खाज,

परवशता, 3 भय, भोक, जरा-क्षद्वावस्था, १० ज्वर-क्रुप्ट आदि रोग

एगमेगस्स गं नेरच्यस्स असब्भावट्दवणाएं सब्वोद-

ही वा सब्ब पोस्गने वा आसगसि पतब्खिवेज्जा, णो चेव रा

गणेरइए तित्ते वा सिया वितण्फे वा सिया। एस्सियाण

गोयमा ! णेरड्या सृहप्पिवास ज्चणुव्नवमाणा विहरति |

>जोवा शिगन, प्रतिपद्धि उ. नरकाधिकार

असतृकल्पना से यदि एक नन्‍कनिवारी जीव के सुख में झादे समुद्रों का पानी और दुनिया के सारे खाद्य-पुदुगल डाल दिए जायें तो भी उसवी भूत प्यास नहीं बुभती। है गौतम ! नरक के जीव इस प्रकार प्नन्‍त भूस-प्यास का अनुभव कर रहे हू

तेश तत्य णिच्च॑ं भीया, णिच तसिया, रिच्च छुटिया, शिच्च ऊव्विग्गा, शिच्च उपप्पुया, रिच्च॑ वहिया, शिच्च परममसुभमउलमणुबद्ध निरयभव परच्चराब्भवमारा विहरति ।_ _>जीवाणशिगग, प्रतिपत्ति ३े नरफाधिकार वे नरक के जीव सदा भयभीत, बस्त, दट्षुत्रित, उद्दिगन एज ब्याकुल रहते है। वे निरन्तर बच दो प्राप्त होते है थे बबुल- अशुम परमाणुओं से अनृत्रद्ध होते है। इस तरट बघोहन्यीटा का

अनुभव फरते हुए विनरते हैं हा 2 री ६. हगा भि ह् द्त्ँ 5 रु कक सह सरिता पर्ा ते नारगाओं भयभिन्ननन्ना ल्गाति छा नाम क््सिं च्ृ २५

पाचवा भाग तीसरा कोप्ठक श्ध्प््‌

४] है

इन पापियों को मुग्दरादिक से मारो, खज्भादिक मे छेदों, झूलादिक मे भेदों, अग्नि गे जलाओ | परमाधामिक देवों के ऐसे शब्द सुन फर नैरथिक भय से नप्ट प्राय-सन्नावाले होकर सोचते हैं कि अब भाग कर कहा जाएँ ? छिदति वालस्स ख्‌रेण नक्‍क ,

उद्वरवि छिदति दुवेवि कल्ने।

जिव्म विशिक्कस्स विहृत्यिमित्त ,

तिक्वाहि सूलाहिइभितावयत्ति

--सूप्रकृताद ५१२२ परमाधामिक देवता पूर्चजन्म में किये हुए पापों का स्मरण करवा कर हरे से पापी जीवो के नाक, होठ एवं दोनो बान काटते हैं उनकी जीभो को सीचकर प्ित्तरिति (गिठों मार बाहर निवाल लेते है और फिर उसका चीसे छूनों द्वारा भेदन करते हैं कर-कर पाप प्रचंद नर, पड़े नरक जमहत्य वन विकराल विशेष सुर, फिर गये ते सब सत्य फिर गये ते सब सत्यत, पकड़ पिछत्थत, घर के सम्गग, युर्ज अगग्गग, सिह बिशा भग्गग, उरधिय जग्गन मर्गग परन्यंग, घर भुई घुजत घर-घर, भुद्वज ताह सुबुद्रज हीन, चपुबद्धवन वार-कर | “+-अमुतध्यनिष्ठेंद

जञ मरए नेरज्या, दृषा्ई पावति घोर-अणखंताए। ततो भणशनगुणिय, निमोबमज्मे दुह होठ तय में जो पापोशीय घोर पनना दृ था को हैं, नियोद भे

उससे इनसराजुता दुच शोठा है श्र दर

नरक में जाने के कारण

चउहि ठार्णेहि जीवा शेरइयत्ताए कम्म प्र रेंति, जहा-- महारंभयाएं, महापरिग्गहयाएं, पव्िदियवहेग, कुंणिमा- हारेणं

“-स्थानाग ४॥४।३७३ चार कारणो से जीव नरक के योग्य आयुष्य का उपार्जन करते हैं। यथा-१ महाआरम्भ से, ३२ महापरिग्रह से, 3 पज्चेन्द्रिय- जीवो का वध करने से, मद्य-्मास का आहार करने से | त्रिविधं नरकस्येदं, द्वार नाथनमात्मन काम क्रोत्रस्तथा लोम-स्तस्मादेतत्‌ त्रय॑ त्यजेतू

>गीता १६२१ काम म्रोध और लोभ-ये तोन नरक के द्वार हैं पर्चाह ठागेहि जीवा दुग्गई गच्छति त॑ जहानवयाणाइवाएग जाव परिग्गहेणं -स्यानाज्ञ ५।१।३६१ पात्र "कारणों से जीव दुर्गति में जाता है-प्राणातिपात से बावनु परिग्रह से

१६६

श्८ नरकगासी कौन ?

जे केइ वाला इह जीवियट्टी , पावाई कम्माई कोति रूह्या। ते घोरूब्वे तमिसधयारे , निव्वाभितावे नराए पद्रति॥| >-सूप्रकृताग ५।१३ जो अज्ञानो इहतोश के कर्यी वनसर घोरपाप परते है, वे फत्व- घिफ अन्यवारवाले एवं तीशसमिलापचाले नरक में पहने है

९७० कक लक ७०! टी २. इस बडेह, उम मरेह, उमं तज्जेह, इसे तालेह . . .

उस रत्यछिन्तय करेह, इसमें पायछिन्तय करेह, उम्र, उद्ठ छिज्नय करेंह, उम्र सीसछिल्तयं करेंह, इम मुहछिन्नय॑- दरेह, उम वेबछिन्नप फरेह, * * * ' उम भत्ताण निरद्रय णरेंहर, एम जावज्जीरबधरा करेह, इम अन्तयरेश असुम- कुमारेगा मारेह ! ** तहप्ण्गारें पुरिसयाएं ' *" *' णालमाने काले छिन्चा- घरग्पीयनर्मायदज्ञा लहे नरगधरणीनले पःददाग्ये भयह। +-ज्गाएुत्म्श्न्ध रसे डण्टित बरो, इसे झुषिएत से, रसे सारे, एमें पीटा, इशके

शाह गा ये, इशईे पर बाहों, इसमें कान शादों, इसकी सशाव

श्श्द ववतत्घकला के बीज

काठो, इंसके होठ काटो, ईसका सिर काठटो, इसका सुखच्छेदन करो, इसका लिंगच्छेदन करो, इसका भोजन-पानी रोको, इसे यावज्जीवन के लिए बाँधों तथा इसे किसी एक कुमरण से मारो | इस प्रकार आदेश-निर्देश करनेवाला पुरुष मरकर नीचे नरक- पृथ्वीतल में जाता है

आशापाणशशर्नवद्धा , काम-क्रोधपरायणा: ईहनते.. काम-भोगार्थन्मन्यायेनार्थथचयान्‌ू ॥१२॥ इृदमठझ मया लव्ध-मिम प्राप्स्थे मनोरथम इृदमस्तीदमपि में, भविष्यति पुनर्धनम ॥१३॥ असौ मया हत' अन्नुहनिष्ये चापरानपि। ईव्व रो पउस्‍हमह भोगी, सिद्गो5ह बलवान्सुसी ॥१४॥ आउ्योडभिजनवानस्मि, को:न्योइस्ति सहणों मया | यछ्ये दारयामि मोदिप्य, उत्पन्तानत्रिमोहिता: ॥१५॥ अनेक तित्ततरिश्रान्ता, मोहजानमसमाध्ृता' प्रसक्ता क्ाम-भोगेसु, पतन्ति नरकेड्युची ॥१६॥

+>गीता १६

आशारुप, सैकठो बन्यनों से बचे हुए वामनओख में सीन प्राणों म-भोद की प्राप्ति के लिए अन्याय से घन तो सलय झरना

चाहते # ॥६7]।॥

ये सोचते ई-यह तो मुझे आज मित्र गया और आगे पद मिल

जाएगा मेरे पास सह इतना धन नो है एवं हनना फिर हो

जाएगा ॥:25॥

गैस इस श्र सो मार दिया, दूसरी को भी मार दूगा। में फिपर

£, भोवी है, सिय हैं, वलयान हू, सर हूँ ॥१ ८।

पाँचया भाग : तीसरा कोप्ठक श्ध्ह

मैं धनवान्‌ हूँ, परियार्वाला हू, आज मेरे समान दूसरा कौन है ? में यज्ञ कझ गा, दान दुगा और हृपित हो जाऊंगा ॥£ ५॥ ऐसे अनगान से मोहित अनेक प्रकार से चित्त में विशज्ञात मोह-जाल में फेसे हुए एवं काम-भोग में तत्पर प्राणी अपविशन्न नरक में जाते हैं ॥१६॥

४. मित्रद्रोह्टी कृतध्नण्च, यण्च विश्वासघातक

ते नरा नरक॑ यान्ति, यात्रच्चन्द्र-दिवाकरोी “>पञ्चतन्न १॥४५४ जो मनुष्य मिनत्नेही, झृतघ्न एवं विध्वामणती होते हैं, ये नरक में जाते है, ८व तक सू-चन्द्र विद्यमान हैं कुक्षि-मरणानिष्ठा ये, ते नरकगामिन --गद्धपुराण जो बेयल पेटभराई की चिता में रहते हैँ, थे नरकमामी होते है |

96

२5

देव-संसार

देवों की पहचान--- अमिलाय - मललदामा, अशिमिसनयणा नीरजसरीरा , चउरंगुलेरा भूमि, न॒ पिसति सुरा जिणो कहए।

व्यचहार ३।२ भाष्य देवता अम्लानपुष्पमालावाले अनिमेष नेत्वाले, निर्मल शरीर- वाले और पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर रहने वाले होते है--ऐसा भगवान का कथन है। देवो की उत्पत्ति-- मनुष्यणियो की तरह देवियाँ गर्भ घारण नही करती देवो के उत्पन्न होने का एक नियत स्थान होता है, उसे उपपात कहते है -स्यानाज़ शा३१४

३. देवो की फकार्यक्षमता--

(क) कई देवता हजार प्रकार के रूप बनाकर पृथक्‌-पृथक हजार भाषाये वोल सकते हैं। -भगवती १४६६ (ख) कई देवता मनृप्यों वी आसो के भाषणो पर वत्तीस प्रकार का दिव्यनाटक दिखा देते हैं, फिर भी मनुष्यो को ब्रित्कुल तकलीफ नही होने देतें। उन दंवो को अव्यावाध देव कहने है --भेगवती श्था८ा१७

२००

पात्रवा भाग : तीसरा मोष्ठक २०१

(ग) जक्र नर महाराज के लिए कहा जाता है कि वे मनुप्य के मस्तक को तलवार से काटकर, उसे कुट-पीट कर चूर्ण वना ते है एव कमडलु मे डाल लेते है फिर तत्काल उस चूर्ण के रजकणो का पुन मस्तक वनाकर मनुप्य की घइ से जोड द॑ ने है। कार्य इतनी दक्षता गीघ्रता से करते है कि मनुष्य को पीडा का विल- कुल अनुभव तक नहीं होने दं ते

--भेगवत्ती १४।८।१८ ४. देवों की आयु--

(क) दंवो की भायु जघन्य दस हजार वर्ष भौर उत्कृष्ट ३३ सागर की है --प्रज्ञापना के आधार से

(स) चउहि ठाणोहि जीवादेवाउयत्ताए कम्म पगरेति, जहा-सरागस जमे एण, सजमास जमेण, वालतत्रो कम्मे गा, अकामगिएज्जराए --स्थानावथ ४॥४।३७३

चार फारणों में जीव देवता का आयुप बनते हे बया-( १) राग

भावयुवतत सथम पालने स, [२) शापक-भ्त पालने मे, (३) अनान दशा की तपस्या से (४) छवाम->मोक्ष की एच्ठा के एिना थी गई निर्मगा ने

(ग) दाने दरिद्रस्यथ विभोः क्षमित्वे ,

घूना त्पों ज्ञानवता मौनस्‌ एन्टानिवृत्तिप्सल सुखोचिताना, दया भूरेपु दिव नयन्ति॥ा ““प5 पुराण, पादात एप्ड ध्यप्८

९०९ ववतृत्वकला के बीज

जो आदमी दरिद्र हैं उनका दान करना, जो सामर्थ्यवाले हैं उनका क्षमा करना, जो जवान हैं उनका तपस्या करना, जो ज्ञानी हैं उनका भौन रखना, जो सुत् भोगने के योग्य है उनका सुस्त की इच्छा का त्याय करना और सभी प्राणियों पर दया करना-ये सदृगुण भनुप्य को स्वर्ग में लेजानेवाले हैं

५. देवो के भेद--- (क) दं वा चउब्विह्या पण्णत्ता जहा--भवणवड्, वाणम- तरा, जोडसिया, वेमाशणिया। --प्रज्ञाप्रना

देवता चार प्रकार के होते है-(१) भवनपति, (२) व्स्तर, (३) ज्योतिप्क, (४) वैमानिक (ख) पंचविहा देवा पण्छत्ता, जहा--भवियःव्वदेवा, णरदवा, धम्मदेवा, देवाधिदेवा, भावदेवा -+न्थानाग ११ पाँच प्रकार के देव वहे है- (१) भव्य ढ्रब्ववेव-भविष्य में देवयोनि मे उत्पन्त ट्ोनिंगल जीव, (२) नरदेद-न्ननत्ती, (३) धर्मवेव-सनागार-वायु, (४) वेवाधि- देव--तीय कर (५) नावदेव-भमवगपतिव्त आदि | 8;

३०

देविक-चमत्कार की विछ्छि बातें

भाला राजपुत-पाटडीनरेश करण गेला को रानी से चादरा भूत सगम करने लगा। हलवढ के राजपूत घी हरपालदेव जो पाटडीनरेश के नानजे थे, छिपकर रानी के महल में रहे ज्योही भूत आब , चोटी पक कर उसे पछाउने लगे भूत ने हारकर सारी उम्र सेवा स्वीकार की भूत को जीत कर घर जाते समय घर लगी। प्म- सन में चिता जल रही थो। हरपालद उसमें दो उफकरे पकाने लगे अचानक जलती बिता में से दो हाथ निकले मास समर्यण किया, लुप्त हआ, तब जघा चीर कर खून दिया। शकिद वो प्रकद हुई एवं मुझको पूछे वजिना को: काम फरसा-उस छार्त से वह हत्पालदेव फो रानी श्री भूत का उतद्व मिटाने से पराहडीनरेस ने सथेप्द मांगने धारा वरदान दिया भर एवं शक्ति की सलाह से नाननरात मे चोगश वाघे जायें, उसने सादर पागे राजा की स्वीकृति मिली, हरपालडेव धो पर ऋद्ृफरन था एवं ४३४०२ दायों में तरुण दाघे फिर ५४० गाव शविवरानी का विधिपरप से दाने में दि | शाग्धा पानी चना गई।

एकरिस दाणयुभार सेल रत थे। मत द्वस्ते उनमे घ्ज्ः

२०४ वष्तृत्वकला के बोौज

मारने लगा। महल मे बेठी हुई शक्ति रानी ने हाथ लम्बे किये एव राजकुमारों को काल (पकड) कर ऊँचे ले लिये भालने से भाला राजपूत कहलाए। बात प्रसिद्ध होने से शक्ति अन्तर्वान हो गई राज-परिवार अब भी शक्ति-माता की पूजा करता है --प्रांगप्ना में धुत २. मेवे की खिचड़ी-- महाराणा प्रताप जगल मे थे। अकवर फकीर के रूप में आया एवं मेवे की खिचड़ी मागी। सामान होने से इमिन्दा होकर महाराणा मरने लगे। अचानक एक आदमी बेल पर समान लाद कर लाया और देकर गायव हो गया भेवे की खिचडी वनाकर खिलाई अकबर महाराणा की उदारता पर प्रसन्न होकर लौटा --उदयपुर में भ्रत रुपयों की थैली-- नेपोलियनवोनापार्ट से माता ने पंस मांगे दे सकने से वह मरने लगा। एक दोस्त झरुपयों की थेली देकर गुम होगया ४. वंश्नच्छेद साप-- फतेपुर निवासी घीरमलजी मात्व्बरी' व्यापारा्थ शिवानी जा रहे थे रास्ते में एक गाव में एक जाट के घर टहरे वहां साप के काटने में ठाकुर का कुंवर मर गया था। उसे चिता में सुलाकर जलाने की तयारी हो रही थी घीरमल जी वहा पहचें। चाकू से उसका सन लिया और बोले- इसे बाहर निकालो, यह जी जायेगा बाहर निवाल कर

न्श्ण $

पाँचरया भाग नीमरा शोष्डक र्ठप्‌

मंत्र पढा,साप आया प्रछने पर कहा--इसने खेलते समय मे पत्थर से मारा था | धीरमलजी ने मन्त्र पटकर माफ करने के लिये कहा | साप बोला--१०० कमेडे दिलाऊंगा। फिर मन्त्र पढ़कर आग्रह किया, साँप ने पचास कमेड़े घटाए। उस प्रकार धीरमलजी पुत्र -पुन मन्त्र पटले गये और कमेडो की सल्या घटती गई | आखिर एक कमेडे पर साँप इट गया फिर मन्त्र पढ्ा एव कह्ा-आवबा हतू- मान के नाम का और जाधा मेरे नाम का छोड दे ! साँप माना एवं कवर जी गया |

& एक वार सपेरों से विवाद हुआ। उन्होंने एक राज- सर्प लाकर धीरमलजी पर छोटा, साथ ने डक मारा एवं वे वेहोण हुए पर्व कवान॒सार उन्हें गोबर से भरे सटडे में सुतवा कर ऊार भी गोल दाल दिया गया। सात दिन के बाद गोबर फटा एवं बाहर निवालाकर उनके मुह में थी डाला गया। वे तत्फाल होश में आगये फिर वे जगलों में पूमवार एका विरफुल पतला पीले रंग का साँप लाये लौर तहने लगे एसवा नाम 'वयन्‍्टेद सर्प ' है। यह जिसे भी फटेगा उसके वश के सनी मर जायेंगे। सपनों ने हार मानी +साप्यी क्लोदीपाजों से प्रुतत सांपों फो माड़ो-शतए की बाल है, एश मन्मवेत्य दावुर घोटे पर चोपर पह्ी शा रहें थे। मो पारेनागों पर सवार कीवर जाता 2शे एम हरा साए मिला दादूर ने मन्ध

डर सार गे जुजीर सीची नाग गण, नर्पराण ने सीये पर रारते थे जार सोचा सगे गए, सलप्रराण ने चाच

बबतृत्वकना के बीज

उतरकर उसको मिटा दिया। नाग चलने लगे, पुन. लकीर खीची, पुन्र. मिटाई ज्यों ही तीसरी वार लकीर खलीची, सर्पगाज ने उस लकी पर पूछ का प्रह्मर किया एवं घोड़े से गिरकर ठाकुर मर गए | -भीडालगणी से प्राप्त सन्त्रित कौड़ियाँ--डुमार (बंगाल) में एक आदमी को सांप ने काट खाया मन्त्रवादी ने चारो दिय्याओं में मत्रित कौडियाँ फेंकी | तीन दिशाओं से वापिस गई लेकिन चौथी दिच्या मे तीन कौडियाँ साँप को लेकर आई मत्र- वादी ने दूध के चार प्याले रखे, साँत डक चूसता गया और दूध में डालता गया तीन प्यालों के दूध का रंग नीला हो गया। फिर चौथे प्याले का दूध पीकर सापचला गया बोर वह आदमी जो गया।

--पृथ्वीराज सुराणा से श्रुत वर्ष भर का खर्ब-अहमदाबाद लाल-पोल में एक पटेल की मृत्यू के बाद जब तक उसकी रत्री जीवित रही, तव तक नये वर्ष के दिन भोयरा के द्वार पर सारे वर्ष के छात्र का

हिसाव और एक दघ का प्याला रहा दिया जाता साँव

आकर दूध पी जाना और झार्च के रुपए रस जाता माता की मुत्मु के पण्चात्‌ पुत्रों ने भोयरा खोला, एका आदमी मिला तब से उस साँप या आना दर हों गया

समिकोतरी-अकबर भटेद्र के तालाब पर सो रहा था। महारागाप्रताए जाँवड़ी की नारा में गए कृपक सेल में पत्थर फेक रहा था बुटिया बोली भरे ध्यान राखजे !

पंतिवा भाग नीसरा कोप्ठक २०७

मेवाडनाथ पधारे है” फिर प्रताप को दूध पिलाया | वह वुटिया सिकोतरी थी अत विद्या से घोड़ी वनकर प्रताप को अकबर के डेरे में ले गई राणा ने तलवार उठाई। आवाज आई-ऊं हूँ” रागा ने पूछा कौन ? उत्तर मिला वीर है फिर दाढी और मछ काटवार ले आये। उसके वाद फिर अकबर ने मेवाइ आना छोड दिया

-उद्ययपुर में भूत रुई फा फुआ-चुरू में ढ्वीरीालागजी यति ने श्लावको का अतिन्नाभमह देलकर मन्त्र पढ़ना शुरू किया ३००४० आदमी चमत्कार देखने के लिए बंठे थे। पहले एक रूई का फुआ जाकर गिरा चन्पही क्षणा में वह फुजआ बारक, जवान एवं दाटीवाता घू बन गया। दर्शक सारे मूदित हो गए फिर यति जी ने मम्रिस सून का छीठा डालकर उत्त उद्भव को थात फिया।

कहा जाता है कि दर्मकों में से दो तो मर गये

थौर एवं (सुरलाए बरडिया के पित्ता) चार दिन के बाद ससेत हुये

नसुउत ले बरणिया मे प्रुत

सतिलणी छा पा-पद्रिपातानज्राराज ने सनाम के बसि के पाजि-म बोनस से मार्ग से निफासा ? लिखी ने एक पत्र लिया और उन बनप् गारता उन्हें थ्र्यि ट् मिजी गो क्षात करने के विए दररवनसार णी दीवार वो फोड-

गर बाहर आए आर शाप ख् शार्चड लनज्शमन ला मर बाहर नियबादा भर एप पछ्ठ को डाली प्रयाधझर पट

र्ूण्द

११

वकृत्वकला के बीज

पत्र पढ़ने लगा। राजा ने जो कुछ किया वह सब उस पत्र मे पहले से लिख रखा था। राजा ने प्रसन्त होकर भेट के रूप मे प्रतिवर्ष उन्हे 5४ रुपया देना स्वीकार किया अजब ठडाई-बालोतरा (मारवाड) में एक दिन सगतमल- जी' आदि सत यतीजी का प्ुस्तकभण्डार देख रहे थे। दोपहर के बाद यतीजी ने थोडी-सी (तीन पाव अन्दाज) ठण्डाई बनाई और एक बर्तन में ढककर रख दी पीनेवाले आते गए और यतीजी पिलाते गये लगभग तीस-चालीग आदमी पी गये बाद मे ढका हुआ वस्त्र हटाकर देखा तो ठड्ाई ज्यों की त्यो थी। फिर सन्‍्तों के जलपाच पर हाथ घुपाया पानी जम गया एवं पान्न से चिपक गया सन्त कुछ घबराये | यतीजी ने पुन पात्र पर हाथ फेरा। सन्त पात्र उठाकर देखने लगे ता सारा पानी दल गया -सगतमलजी से श्रतत

. भन्त्रित उड़द-डाकिनियों ने एक यती के भिष्य को ग्रहण

कर लिया एवं वह मर गया। कऋद्ध गुरु ने मंत्रित उड़द दिये जलती चिता में फैकने से चीलों के रूप में आकर डाकिनिया उसमे गिरकर भस्म होने लगी | एक मृदठी उठद रख नोने से कुछ जीवित बच गगयो |

--उदयपुर मे भ्रत्त

. सराणाजी बच्े-वात्यु गाव में लेगगालजी सुरागा को

इाकिनी ने ग्रहझा कर लिया। यतीजी ने अपना घुटना

ऊट पर चेढतीर पडा के अपवको सेश्रु हि धार बरसाल-मालिरकीटल! में बतीजी ने सवारी तिकलते समय सलीम नहीं किया ' तवाब कक ठ।। लोगो ने कहा- ये चमत्कारी ऐप » नवाब नें दर्से बजे तक वा बरमाने के लिये कहा मे बज के वर्दि

खन्ना

5

१. डा्गिनी मनुग्गणी ही होती है जीर यदान्वदा जे पर सवार होकर पूमा फरती है पहेते वह सत्ता (दलौने में स्टें शुए मान यो तथा तस्वतर कादि फ्लो में रही हुई धिरी को स्मारने एन) लगती है प्रकार स्यारने क् कारण बह. इ्पारी गहलीती है ऐसा सारत फरते ये पे बहती गा वर्लेजों त्वाल गई खाने नेगी है तने जउसे डामिनी फहते है हतिनियों हागा गहीत चलाई सादे लग जता £ और सन्त हे मर जाती ऐसी भी दरें साध है गि जमीन भे दाद दिए मुठ बच्चे भो आती 2 0 पहना जीवित मर लेती रे थी समा याद छपविती तो मोर दुया झाम मतों बह्चा जीविए ली

बगा शमाता * +ई

पाँचवा भाग ' तीसरा कॉप्ठक २११

काफी परेशानी हो रही थी। उस समय अप्टमाचार्य कालू- गगी को आवाज आई-चिना मत कर, भोटकर सो जा ! आचार्यश्री सो गये खासी विष्कुल बन्द थी। कुछ देर वाद पुन॒ विचार आया कि कालूगणी की आवाज नहीं आई, केवल मन का भ्रम था। वस, खासी पहले से भी अधिक चलने लगी। आचार्यत्री बहुत सिन्न हो गये और सोचने लगे कि जो सन्देह किया वह मेरी गलती हुई। इतना-सा सोचने के साथ ही नीद थागई | प्रात उठे त्तो यासी का नाम-निश्ञान भी नहीं था “आचार्पश्री तुलसी से श्रुत १८. खाद का दृद्ध क्रावक-स भवत”' वि २००१ मिगसिर की बान है रात को हम वर्ड लाथु आचार्य श्री तृलसी की गेवा मे बैठे थे और देवताभो की दातें चल रही थी आचार्य श्री ने फरमाया कि क्षमी कुछ दिन पहले 'सादू से एक बूंद श्रावक दर्शनार्थ यहां छापर) आगये मैंने उनसे साशब्नर्य पछ्ा-आँसों से तुम्हें पूरा दीराता नहीं, नलने की नम्हारी थक्ति नही और बब्यमीर रोग से तुम पीडित हो, इस हालत में अकेले दर्शानार्थ केसे जाये ? उन्होने बटा-गुरदेव ।! दर्शन की झ्मिलापा बहुत दिनो से लग रही थी, लेकिन साधन के क्षमाव में उसकी पूति नहीं हो सकी हक दिन रान के समय छोटा बेठा ( जो मर सता था दरिटिगोचर और एतने लगा, पिताजी ! चातिये में परवा पछाड़ आएको दर्शन | मैने पूछा ते यहाँ

है * उसने कहालपंतरदेवना मी योनि में हंं।ई बार

१६

१९६

बवतृत्वकला के चीज

जलाशय सुखा दिये। अत्रुसेनापति ने भिक्ष, के वेष में आकर माफी मागी तब तीन कोस पर एक तालाब में जल प्रकट किया -हाफमचन्द से भ्रुत

(क) फीकी-कडवी चीनी-राजलदेस रनिवासी मालचद- जी बेद ने चीनी (शक्कर) को मन्त्र द्वारा फीकी एवं कडवी बना दिया प्रकाश बंद का मुह बहुत देर तक तक कड़वा रहा | -घूरु में भाँखो देखा

(ख) इन्ही मालचन्दजी ने दिव्य-्थक्ति से खिवाडा (मार- वाड) में विदामाजी की दीक्षा के समय नौ सेर गुड की लायसी से ३४५ मनुष्यों को भोजन करवाया और सात सेर लापसी बचा भी ली

(ग) मारवाड जकशन में खार्ची गाव से बालचन्दजी के घर से पाँच सेर बादाम की वर्फी मगवाकर लोगों को खिलाई तथा लाइनू में विवाह के प्रयग पर खुद तीस सेर मिठाई खा गये शौर कुछ समय के बाद पुन' ज्यों की त्यो दिखा दी --मारचन्दजी से श्रुत्त

फालूगणी की आवाज-विक्रम सबत २००२ परोष की वात है। आनचार्यश्षी तुलसी मोमासर से सरदान्थहर पवार पढे थे। उन दिनो आाचार्यश्री के सांसी या प्रकोप इतना बइत रहा था कियो भी थौर्षपाप पाम नहों कर रही थी मोमासर से मील दर भादासर गाँव में रात के समय खासी बहुत अधिक सता रही थी और नींद ने आने से

पाचिया भाग « तीसरा कोष्ठक २११

है

काफी गरेशानी हो रही थी। उस समय अप्टमाचार्य कालू- गणी की आवाज आई-चिता मत कर, ओंढकर सो जा ! याचार्यश्री सो गये खासी वि"कुल बन्द थी। कुछ देर बाद पुन. विचार आया कि कालूगणी की आवाज नहीं आई, केवल मन का भ्रम था। वस, खासी पहले से भी अधिक चलने लगी आचार्यत्नी बहुत खिन्न हो गये और सोचने लगे कि जो सन्देह किया वह मेरी गलती हुईं। इतना-मा सोचने फे साथ ही नींद धागई प्रात उठे तो खासी का नाम-सिश्ान भी नहीं था। >-आचार्यभ्री तुलसी से श्रुत १८. खाद फा चद्ध श्रावक-स भवत वि.स. २००१ पमिगसिर की बात है रात को हम कई नाथु बाचार्य श्री तुलसी की सेवा में बेंठे थे और देवताओं की बातें चल रहो थी। आचार्य श्री ने फरमाया कि छनी उछ दिन पहले रादू से एक बद क्ावक दर्शनाज वहाँ टापर) थागये। मैंने उनसे साश्च्य पछा-आऑँसो से तम्हें पुरा दीराना नहीं, भलने फी नम्हारी गक्ति नही और धबासीर रोग से तम पीडि हो, इसे हालत में ककेले दर्लनार्थ केसे आये ? उन्टोने कह्ना-गुम्देव ! दर्शन वी अभिलाया दा दिनो से लग रही थी, लेकिस साधन के अभाव में उसयों पृतति नह हो सकी। एक दिन राल फ्रे समन होठा बेटा ( जो मर लगा था ) हृरिदगोचर टआ और पहने लगा, पिताजी ! सहलिये में फरवा लाहझ आपको परधेन ! मैंने पा से गर्का

है ? उसने पहा-पंतरदेखया थीयोसि में ह। भाई णार

२१०

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बबत॒त्वकला के बीज

जनागय सुखा दिये अयुन्‍्सेनापति ने सिक्ष, के वेष में आकर माफी मागी तब तीन कोस पर एक तालाब मे जल प्रकट किया -हाफमचन्द से श्रत

(क) फीकी-क इथी चीनी-राजलदेस रनिवासी मालचद- जी बंद ने चीनी (शवकर) को मन्त्र द्वारा फीकी एवं कडवी वना दिया। प्रकाश बंद का मुह बहुत देर तक तक कड़वा रहा -चूरू भें भाँखी देखा (ख) इन्ही मालचन्दजी ने दिव्य-्धक्ति से खिवाडा (मार- वाइ) में विदामाजी की दीक्षा के समय नौ सेर ग्रृड की लायसी से ३४४५ मनुष्यो को भोजन करवाया और सात सेर लापसी बचा भी ली

(ग) मारवाड जकशन में सासची गाव मे बरालचन्दजी के घर से पांच सेर बाद्यमाम की वर्फी मगवाकर लोगो को खलाई तथा लाइन में विवाह के प्ररंग पर लुद तीस सेर मिटाई खा गये और कुछ समय के वाद पुन ज्यों की स्यो दिखा दी +मालचन्दणी से श्रृत्त

फालंगणी की जावाज-विक्रम सबत २००२ पाप की वात है। आचार्यक्षी ललसी मोमासर से सरदान्थहर पधार म्त्े थे। उन दिनो आचार्यश्री के खासी का प्रकोप इतना बट रहा था कि कोई भी जौपधि काम नहीं कर रही थी ! मोमासर से &' मील दर भादासर गाँव में रात के समय खांसी चहल अधिकसता रही थी और नींद मे थाने से

पाँचवा भाग - तीसरा फोष्ठक २११

काफी परेथानी हो रही थी। उस समय अप्टमाचार्य कालू- गणी की आवाज आई-चिता मत कर, मोटकर सो जा ! आचार्यश्री सो गये खासी विकुल बन्द थी। कुछ देर बाद पुनः विचार आया कि कालूगणी की आवाय नहीं आर, केवल मन का भ्रम था। बस, खासी पहले से भी अधिक चलने लगी आज्ार्यत्री बहत खिन्न हो गये और सोचने लगे कि जो सन्देह विया वह मेरी गलती हुई। इतनान्सा सोचने के साथ ही सोंद नागई। प्रातः उठे तो खासी का नाम-नियान भी नहीं था। “आचार्यश्री तुलमी से श्रुत १८. खाद का बद्ध क्रावक-सभवत' वि. से. २००६ मिगसिर की बात है रात को हम वई साध कााचार्य श्री तलसी की सेया में बैठे थे भीर देवताओं की बातें चल रही थी। आना थी ने फरमाया कि क्षमी कुछ दिन पहले 'साटू से एज प"्र धावत्रा दर्णनार्थ यहाँ द्वापर) आगये मैंने उनसे साध्च् परछा-आँसों में न॒म्हें पूरा ठीशाता नहीं, चलने की नम्हारी थक्ति नहो और ठवासीर रोग से तुम पौटिय हो, टै्स ह्रालन में पकने दर्शनार्थ केसे लाये ? उन्होंने कहा-गुरदेव ! दर्शन की ०शिलासर्ग इद्त दिनो से लग रप्री शो, हेशिन साखन मे क्षमाव भें उसकी पृलति नह हो सकी एक दिन रात के संझय सोडा बेटा | जो मर खा रा ) हगदियोचर हा भौर रहने लग, पिनाजी ! स्जिये नम एरवा खा आपनो दर्शन ! मैंने प्धा तू वहां हे? उससे फानपसरदिवसा पीीयोसि में हं। वाई बार

२०

वकक्‍तृत्वकना के बीः

अपने मित्रदेव के साथ आचार्य श्री के पास जाया करत हू, मैंने कहा तू मुझे दर्शन कैसे करवाएगा ? उसने कह आग टिकिट लेकर केवल गाडी में बेठ जाइए फिर : अपने आप सभाल लूंगा गुरुदेव ! मैं उसका विश्वाः करके गाडी में वंठ गया, गाडी रवाना होते ही मैं पूए स्वस्थ हो गया और आपके चरणो मे पहुँच गया -धममु।

श्रीभिक्षुस्वामी के स्मारक की उपलब्धि--

जेनम्वेताम्बर तैरापथ के आचार्य श्रीमिभस्वामी के स्वर्गंवास वि० स० १८६० भाद्र सुदी १३ के दिन सिरयार (मारवाड) में हुआ था। १३ खडी मी बनाई गई, १४ गाँवों के आदमी इकट्ट हुए एवं नदी के किनारे अफमि संस्कार किया गया वहा एक स्मारक बनाया तो गद था, लेकिन सिरियारी के श्रावकों की स्थिति बदल जाने (कहा जाता है कि सिरियारी में तेरापथी श्वावकों के जो ७०० घर थे दे प्रावः दक्षिण भे ब्यापार्थ चले गये और बब वहाँ केवल ३०-१५ घरही रह गये है।) उसकी सार, सभाल यहा तक नहीं हुई कि बढ़ स्मारक कहां है और कोनसा है? यह भी पता नहीं रहा | तेरापथ-प्रिश्यताव्दी के अवसर पर पुराने म्मारवी का अन्वेपगावार्य सुबकवर्ग ने सभाला। मम्पतकमार गर्वेया एवं मन्नालाल बरडिया आदि सिरियारी पहने काफी सोल वी गँ, फिर स्मारह़ का पता नही लूगा। लिमे लोग क्षीमिक्ष स्वामी छा स्मारबा माल रह

पाँचवा भाग , तीसरा कोष्ठक २१३

थे, उस पर वहाँ के 'गुरासा' हमारे पूर्वजों का है।!' ऐसा दावा करने लगे | रात को स्मारक की चर्चा करते- करते सब सो गये प्रात उठकर वे युवक लोग शौचार्थ जज्ुल गये चर्चा वही चल रही थी, वे नदी के किनारे एक वीरान पहाडी-ढाल पर पहुँचे और स्मारक की खोज में हाथ-पेर मार रहे थे , इतने मे सफेद बाल, भुकी कमर और चमकीली आखोवाला एक बूढा (जगली-सा) आदमी पहाडी से उत्रकर नीचे आया और पूछने लगा--भाई क्या दूढ रहे हो ?

सबने सिर भ्ुकाकर कहां बाबा! स्वामी जी का स्मारक !'

बाबा--'कौनसे स्वामीजी का ?

युवक--तैरापथ के आदि गुरु श्रीभिक्ष्‌ स्वामी का ।! बावा-- हाँ-हाँ, था तो सही, भाई ! मैं अपने दादागुरु के साथ यहाँ अनेक वार आया करता था और दादागुरु कहते भी थे कि जिसने एक नया पथ चलाया है यह उस बाबे' का चवूतरा है ।”

युवक--बावा ! वह कहाँ है ?'

बावा ने अँगुली लगाकर कहा--'इस स्थान पर होना चाहिए ।'

बस, सभी युवक जुट गये और लोटो से मिट्टी खोदने लगे। कुछ ही क्षणों मे एक ईट निकली और बाद में चबूतरा भी प्रकट हो गया, जो तीन तरफ ठीक था, एक

'पाँचर्वा भाग तीसरा कोष्ठक श्श्प्चू

जयपुर गये | वे छोटे-मोटे सभी इंजीनियरो एवं सरमिर्जा से भी मिले लेकिन उत्तर यही मिला--“जों कुछ तय किया गया है, वही ठीक है।” श्रीचौपडाजी ने सुख्य- भन्त्री से निविदत किया--कपया, एक बार मौका तो देख लीजिये। बति आग्रहवश झुख्यमंत्री ने मौका देखना स्वीकार किया पता लगते ही पुलिस गएत लगाने लगी, पैमायश करनेवाले फीते लेकर स्मारक के चारों तरफ घूमने लगे थे | इजीनियर पसीना-पसीना हो रहे थे कारण यह था कि उनका नाप ठीक नहीं बेठ रहा था दूसरे सब निशान ठीक थे, लेकिन श्री जयगणी का स्मारक जिसका एक तिहाई हिस्सा सडक मे आने से 'रेडमार्क' से विभूषित था, सडक से तीन-चार फीट दूर हो गया था। सरमिर्जा के आते ही चीफ इजीनियर ने कहा--'साहब ! घरती पलट गई विस्मित मिर्जा साहब के हाथ जुड गये, बूट खुल गये और वे सिर झुकाकर वोले--'सचम्रुच॒ वह एक महान्‌ पुरुष था। मैं उसे अदव से सलाम करता हैं। मिस्टर चौपडा, थेक्‍्स !

इस सम्बन्ध में पुराने लोगो का कहना है कि श्री जयाचार्य के सस्कार के बाद वहाँ एक चदन का वृक्ष प्रकट हुआ, जो तीस-चालीस साल तक रहा बाग के माली को वहाँ अनेक बार भर्धरात्रि के समय श्वेतवस्त्रधारी दिव्यपुरुष के दर्शन हुये थे एक वार प्रत्यक्ष होकर माली से कहा भी गया था--यहाँ गदगी होने दी जाय कई लोगो

२९४ वब्तृत्वकत्ा के बीज

तरफ ढहा हुआ था इधर मुड़कर देखा तो बूढा बावा नजर नहो आया था काफी प्रयत्न करने पर भी पता नही लगा कि वह कौन था एवं कहाँ से आया था |

वस, पता लगते ही स्वर्गीय श्री बस्तीमलजी छाजेड आदि शहर के अनेक श्रावक वहाँ पहुँचे एव युवकों को धन्यवाद देने लगे फिर समाज ने चवूतरे पर संगमरमर का स्मारक-भवन' वनवा दिया, जो इस समय विद्यमान है। --बंगलौर से प्रकाशित स्मारिका के आधार पर

श्रीजयाचाये के स्मारक का चमत्कार--

सन्‌ १९४३ के अगस्त मास मे जब जयपुर के नक्शे का आमूलचूल परिवर्तन किया जा रहा था और नयी सडके निकाली जा रही थी, 'म्युजियम भवन की एक सड़क के कटाव में, लूशियाजी के बाग में विद्यमान श्री ज॑. एवं: तेंरापय के चतुर्थपृज्य श्रीजयगणी का स्मारक (चतू- तरा) भी गया उसका एक तिहाई हिस्सा तोइना तय हुआ वहाँ के श्लावकों ने काफी प्रयत्त किया, विन्‍तु सफ- लता नहीं मिली क्योंकि गुख्यमन्ती श्री मि्जास्माश्ल ने बड़े-बड़े महल, मदिर एवं मकबरे भी तृड्वा टाले थे। फिर स्मारक की तो बात ही क्या थी। 5

उस समय आचार्य श्रीतलसी का चातुर्मास गगायह था। यह समाचार सुनकर सेठ ईप्वरचउजी चोपड़ा क्षादि

समाज वे इखिया लोग परस्पर मिले सबको सला

अनुसार मेड साथियों सहित श्री तिलोतचदजी चोयडा

पाँचर्वा भाग : तीसरा कोष्ठक रश्१प्र्‌

जयपुर गये वे छोटे-मोटे सभी इजीनियरो एवं सरमिर्जा से भी मिले लेकिन उत्तर यही मिला--“जो कुछ तय किया गया है, वही ठीक है।” श्रीचौपडाजी ने मुख्य-

मन्त्री से निविदन किया--क्पया, एक वार मौका तो दंख लीजिये। अति आग्रहवश मुख्यमन्नी ने मौका देखना स्वीकार किया पता लगते ही पुलिस गदत लगाने लगी, पेमायश करनेवाले फीते लेकर स्मारक के चारो तरफ घूमने लगे थे इजीनियर पसीना-पसीना हो रहे थे का रण यह था कि उनका नाप ठीक नही बंठ रहा था दूसरे सब निशान ठोक थे, लेकिन श्री जयगणी का स्मारक जिसका एक तिहाई हिस्सा सडक मे आने से 'रेडमार्क' से विश्रषित था, सडक से तीन-चार फीट दूर हो गया था। सरंमिर्जा के आते ही चीफ इजीनियर ने कहा--'साहब ! घरती पलट गई ।' विस्मित मिर्जा साहब के हाथ जुड गये, बूट खुल गये और वे सिर भझुकाकर बोले--' सचमुच वह॒ एक महान्‌ पुरुष था। मैं उसे अदब से सलाम करता हैं। मिस्टर चौपडा, थेक्‍्स !

इस सम्बन्ध में पुराने लोगो का कहना है कि श्री जयाचार्य के सस्कार के बाद वहाँ एक चदन का वृक्ष प्रकट हुआ, जो तीस-चालीस साल तक रहा बाग के माली को वहाँ अनेक वार अर्घरात्रि के समय श्वेतवस्त्रधारी दिव्यपुरुष के दर्शन हुये थे एक वार प्रत्यक्ष होकर माली से कहा मी गया था--यहाँ गदगी होने दी जाय कई लोगो

२१६ वकठुृत्वकला के बीज

ने वहाँ प्रकाश-पु भी देखा था। आज भी अंधेरे-अंधेरे जाने कौन वहां अर्चन करने आता है। अस्तु !

श्री जयाचार्य का स्वर्गंवास वि सं. १६३८ माद्ववदी १२ को हुआ था एवं अन्‍्त्येप्टिजुलुस राजकीय सम्मान के साथ अजमेरी गेट से निकाला गया था। उक्त स्मारक पहले चूने का था; अब संगमर्भर का है एव उसके ऊपर एक छोटी-सी छतरी भी वनादी गई है के

चोथा कोष्ठक तियेझच संसार

नारक, मनुष्य और देवो को छोडकर सब सासारिक जीव- जन्तु तिर्यञच कहे जाते है।

तियेञ्च पांच प्रकार के होते हें7१ एकेन्द्रिय, रे ह्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पड्चेन्द्रिय

एकेन्द्रिय तिर्यज्च पाँच प्रकार के होते हे--प्ृथ्वीकाय, अप्‌काय, तेजस्काय, वायुकाय, # वनस्पतिकाय | प्चेन्द्रिय तिर्यज्च दो प्रकार के हे-सर््रव्छिम ओर गर्भज | दोनो ही मुख्यतया तोन-तीन प्रकार के है-जलचर, स्थलचर और खेचर

-लोकप्रकाशपुजञ्ज ईे चर्जाह ठरोंहि जीवा तिरिक्खजोणियत्ताए कम्म पररेत्ति, जहा--माइललयाए, नियडिल्लयाएं, अलियवयणेण कूडतुलकूडमारणोणं -स्थानाड्ध ४४४।३७३ चार कारणों से जीव तिर्यडन्वयोनि के योग्य कर्म बाँघते है--

माया-छल से, गूढ माया से, रे असत्य बोलने से, भूठा तोल-माप करने से

२१७

पाचवा भाग : चौथा कोष्ठक २२०

५. अद्भुत तरबूज-ताजिकिस्तान के तरबूज उत्पादक, ५५ किलोग्राम वजन तक के तरबूजो को पेदा करने में सफल हो गए हैं। [ विशेषज्ञों के मतानुसार तरबूजो का वजन सामान्यत १६ किलोग्राम तक ही होता है ओर उनमे ११ प्रतिशत मिठास होती है] ऐसे तरबूज 'दुशानवे में आयो- जित एक प्रदर्शनी में रखे गए हैं, इनमे मिठास की मात्रा

भी २० प्रतिशत है -- हिंदुस्तान, & सितम्बर, १६७१

आश्चरयंकारी तिर्य#च

(क) गाय-अमेरिका मे एक गाय का १६० रत्तल दूध था | एवं साड की कीमत ४॥ लाख रुपए थी।

(ख) बाव (गुजरात) के पास एक गाँव मे महीनों की पाडी दूध देती थी।

(ग) एक गाय के पीठ पर भी चार स्तन थे, जिनसे दूध की धारा निकलती थी --संक लित

घोड़े-उदयपुर महाराणा के यहाँ कई ऐसे घोडे थे, जो एकादशी के दिन उपवास करते थे एवं “गयारसिया'" नाम से सम्बोधित किए जाते थे ग्यारस के दित यदि उनके सामने कभी दाना रख दिया जाता तो वे अपना मूह मोड लेते --सतो ने आँखो से देखा हाथी-

(क) हाथी की सूड मे चार हजोर माँसपेणियाँ होती हैं उसका दिमाग मनुष्य के दिमाग से चारगुना तथा शरीर लगभग टन का होता है। प्रतिदिन का भोजन ५० किलो पानी और ७० किलो धास-पात, पेडो की हरी पत्तिया आदि है

+-सर्जना तथा विश्वकोष भाग फे आधार से २२१

र्र२ ववक्‍तृत्वकला के बीज

(ख) कनाडा में भारत से लाया गया एक ऐसा हाथी था जो पैरो मे जुते पहने बिना वाहर नही निकलता था >>सरिता, सितम्बर, द्वितीय, १६७१ (ग) संसार का विशालकाय हाथी--

कन्घे के पास से ऊचाई १२ फुट नौ इंच थी, चमडी (खाल) का वजन दो टन था इस विद्ञालकाय हाथी को अफ्रीका के जंगलो में हुगरी के एक शिकारी ने सन्‌ १६५४ में मारा था | हाथी का अस्थिपजर 'स्मिथ सोनिएल इन्स्टीट्यूट

की नेचरल हिस्ट्री कालेज' मे रखा गया है --कादविनी, दिसम्वर १६६४

(घ) प्रतापगढ़ (3० श्र०) जिले का एक पालतू हाथी एक वार क्रोधित होकर अपने चालक (पीलवान) को पेरो तले दाब कर सू से चीर डाला दुखित पत्नी विकल होकर अपने इकलौते पुत्र को क्र्‌द्ध हाथी के आगे फंक दिया मदोनन्‍्मत हाथी ने उस वच्चे को सूंड से उठांकर पीठ पर बेठा लिया कहते है कि तवसे वही र्च्चा उस हाथी का चालक पीलवान) बन गया। उसकी अनु१स्थिति में हाथी पागलो की भाति हाथ-पेर पटकता, चिग्घाडता वह यावज्जीवन उस लडके के इचारे पर चलता रहा

# इसी जिले में एक वारात में गये हुये हाथी के चालक से वरातियो द्वारा लेन-देन के मामले में विवाद हो उठने से हाथी मदोन्मत होकर सारे वरातियों पर टूट पडा। कुछ

पाँचवा भाग * चौथा कोष्ठक श्र३े

मरे, कुछ घायल हुये वहुत सारा सामान नष्ट-अ्रष्ट हो

गया अन्त में एक व्यक्ति ने उस हाथी को गोली से मार

कर शान्ति स्थापित की ““गोडा निवासी भरी हनुमानबस्शसिह से प्राप्त ४. घर्मिष्ठ कुत्ते -

(क) दुर्गापुर मे एक बृद्ध कुत्ता एकादशी के दिन कुछ नही खाता-पीता और सोलह दण्ड-उपवास करता है। पारणो के दिन माँस नही खाता

(ख) गोहाटी के एक सरकारी अधिकारी का भोल्‌ नामक कुत्ता अमावस्या-पूृणिसा एवं एकादशी-ऐसे महीने से तीन उपवास करता है। उपवास के दिन भूलकर कोई उसे रोटी दे दे तो भी वह नही खाता।

गे) बस्तर के पास भैरदीमन्दिर मे आरती के समय एक कृत्ता हर रोज आता है एवं एक घण्टा तक आँखे बन्दकर प्रतिमा के सामने खड़ा रहता है, फिर सात वार परिक्रमा देता है यह सब कर लेने के बाद ही वह कछ खाता-पीता है

(घ)आयदविद्वानणास्त्रार्थमहारथी पण्डितविहारी लाल शास्त्री की दादी का क॒त्ता मंगलवार को ब्रत रखता था

(ड) देहरादून के तपोवन-आश्मम में ठाकुर रामसिंहजी का कत्ता एकादशी का बक्रत करता है, उस दिन रोटी डालने पर पीछे हट जाता है और बाघ्य करने पर मुह मे रोटी लेकर वृक्ष के नीचे छिपा आता है एवं

र्र्४ बवतृत्वकला के बीज

दूसरे दित निकालकर खा लेता है “-नवभारतटाइम्स, २५ अप्रेल, १६६५

चोरी डकंती का पता लगानेवाले कुत्ते-

(च) पुलिस डिपार्टमेट मे कई ऐसे कुत्ते होते है, जो चोरो- डाकुओ या चुराए हुए घन को खोज निकालते हैं खगडिया (बिहार) मे रात के समय नौकर से मिलकर कई गुण्डो ने एक सेठ को कत्ल कर दिया उसका सारा घन (लाख सवा लाख का) लेकर वें तीन मील दूर जगल में गए और वहाँ खड़ढा खोदकर उसे दाट दिया फिर तत्काल उस पर एक ईंटो का खाम्भा चिनकर गे कही भाग गये। सुबह पुलिसथाने मे खबर दी गई पुलिस के साथ दो कुत्ते आए उन्होने कत्ल किए हुए सेठ को सूघा। फिर शहर मे और आस-पास के जगल में खुब चक्कर लगाए दूसरे दिन एक कुत्ता वही पहुँच गया ओर चिने हुये खभे को सूघ कर उस पर पजे मारने लगा पुलिस ने खभे को हटाया तो उसके नीचे सारा धन मिल गया।

--संचियालालजी नाहटा से शुत्त

(छ) गिल्डा कुत्ता- अमरीका में आगाखाँ की भूतपूर्व पृत्रवधू एवं 'प्रिस अलीखा' की श्रूतपूर्व पत्नी विष्व की विख्यातसुन्दरी अभिनेत्री 'रिताहेनर्थ' का कुत्ता 'गिल्डा' हे उसकी खाने की मेज हजार की है बैठने का सोफा १२

पाँचवा भाग * चौथा कोष्ठक २२५

हजार का है, विस्तर-पलग लाख-डेढ लाख के है तथा वस्त्र एज साज-श्य गार ४० हजार से लाख तक है गिल्डा दिन भे सात बार कपडे बदलता हे विद्व-सौन्दर्य प्रतियोगिता में सर्मप्रथम आने से स्वामिनी ने बृहत्‌ प्रीति-मोज दिया ४५० मेहमान आए, सभी गिल्डा को चूमना चाहते थे २०० से एक हजार तक चुम्बनशुल्क रखा गया था लेकिन होड लगने लगी आखिर पेरिस की कुमारी “निवाला” ने ५० हजार देकर सर्नप्रथम चुम्बन किया गेबी (कुतिया) से गिल्डा का विवाह हुआ, पाचि लाख रुपए लगे। उससे होनेवाली प्रथम सतान का.मूल्य लाख तक चढ गया गिल्डा सबेरे टोस्ट के साथ चाय पीता हैँ। बारह बजे नहाकर भोजन करता हे, तीसरे प्रहर एक गिलास अगर का रस पीता हैं और रात को बजे फिर खाना खाता है। भोजन के समय गिल्‍्डा रेडियो सुनता है एव

गाने का बहुत रसिक हे --मवनीत, सितम्वर १६५३ से

प्र बन्दर-

(क) बुवानीखेडा में बदरों को मारने के लिये विष मिलाकर खीर का कुण्डा एक छत पर रख

दिया गया, बदर सूघ-सूघ कर चले गयें एक बंदर

जगल से एक लकडो लाकर उससे खीर को हिलाने श्श्‌

२२६ बवदुत्वकला के बीज

लगा | हिलाता गया और सूंघता गया आखिर सब मिलकर उस खीर को खा गये। ( लकडी में विप नष्ट करने की शक्ति थी )

(ख) इन्दौर मे बदर के बच्चे को साँप ने काट खाया। अनेक बदर इकट्ठ हुए, एक बूढ़े बदर ने गेदे (फूल) की जड़ लाकर बच्चे के मुह मे उसका रस डाला एवं बच्चा जी गया | --न्दौर मे वंद्यजी से भरत

(ग) बुवानीखेडा में छोटे बच्चे को एक बंदरिया उठाकर ले गई। ओर रोटी देने पर वह वच्चे को धीरे से छत पर छोड़कर चली गई --च्रुवानीखेडा में श्रूत्त

५. नेवलों का चमत्कार--

(क) भद्गपुर (नेपाल) से लगभग दस मील दूर सेंदरी गाव का एक राजवशी-किसान कहता है कि नेवले साँप को टुकडें-टुकडे करके उसमें से खाने का द्रव्य खा लेते हैं, फिर शेष टुकडो को वराबर रख कर जगल से कोई जडी-बूटी लाते हैं ओर खण्ड-खण्ड हुए साप के शरीर पर उसे लगांकर साप को जीवित कर देते हैं। यह बात बिल्कुल असम्भव सी लगती है। परन्तु उस किसान का कथन है कि मैंने अनेक वार यह खेल अपनी आँखों से देखा है

ख) सुनने में आया है कि जब साप और नेवले की लडाई होती है, उस समय साप उसके शरीर पर काफी जोर

पाँचवा भाग * चौथा कोष्ठक २२७

से डक मारता है लेकिन जडी के प्रभाव से वह पुन सज्जित होकर भिडता है और अन्त में उसे मार डालता है। (नेवले के पास एक जडी होती है जिसे छूते ही साप का जहर उतर जाता है एव घाव मिट जाता है। )

साँप-

(क) मेरठ मे बदन पर बालवाला एक साप था। वह सात फुट तीन इंच लम्बा एव पाच फट मोटा था। जहरीला इतना था कि डक मारते ही मनुष्य के कपडे जल गए एवं उसके शरीर के दो टुकडे हो गए

--हिच्ुस्तान, २५ सितम्बर, १६५२

(ख) अफ्रीका मे ५० फुट लम्बे साप पाये जाते है। जावा के निकटवर्ती द्वीप मे उडनेवाले भी साप पाये जाते है

“हिन्दुस्तान, २९ मार्च, १६९७१

(ग) सपिणी की ससभदारो--भद्रपुर (नेपाल) से ४-५ मील दूर रामगढ गाव के निकट एक खेत में सपिणी के बच्चे पड़े थे उस खेतवाले को दया आई एवं एक कुडे मे डाल उन्हे खेत की खाई मे रख दिया। पीछे से सपिणी आई और अपने बच्चों को देखकर व्याकुल हुई खेत मे इधर-उधर काफी दौड-घूप की लेकिन बच्चे मिले। उसे बहुत ज्यादा प्यास लगी ! खेत में पडे हुए घडे से से पानी पीया और जाते समय उसमे जहर डाल गई | फिर अपने बच्चो की खोज करती हुई चह खाई में पहुची बच्चे मिले, उन्हे लेकर वह उस पानी के

श्र्८ बवक्‍तृत्वकला के बीज

घडे के पास आईं और अपनी पूँछ के प्रहार से उसे औधा कर दिया समवत मतलब यह था कि उसका पानी पीकर कोई मर जाये

---भंवरलाल चंडालिया से श्रुत

(घ) सांपो का हमला--बगदाद, १६ मई (राय) कुर्दीपिश्न अलताखी' के एक समाचार के अनुसार उत्तरी इराक के एक गाव कूर्दी जाल के निवासियों पर पिछले दिनो लगभग २०० पीले सापो ने अचानक हमला किया | गाँववालो ने छंडा और नंगी तलवारों से उनका सामना करके उनमे से ६४ को मार डाला | शेष भाग गए

-हिन्दुस्तान, १८ मई, १६७१

७. चूहै-

(क) विद्व॒स्वास्थ्य-सगठन के विशेषज्ञों के मतानुसार चूहे- चुहिया के एक जोडे से पेदा हुई सन्‍्तानों से तीन वर्षों में १५ करोड चूहे हो सकते हैं। लेकिन सौभाग्य की वात है कि ऐसा होता नही चूहा-इहिया का एक जोडा प्रति वर्ष ७० बच्चे पैदा कर सकता है। अगर वे सभी जीवित रह जाएँ

तो उनसे तीन वर्षों में ३५ करोड चूहे हो जाए --हिन्दुस्तान, १६ जनवरी, १९६८

(ख) वम्बई में ऐसे चूहे देखने में आए, जिनसे डर कर बिल्लियाँ भी भाग जाती है --धनमुर्ि

पाँचवा भाग : चौथा कोष्ठक रस

८. मेढक- (क) महेन्द्रगज में एक बडा मेढक १८ इज्च लम्बे साप के साथ लडा एवं उसे मार कर निगल गया --वम्बई समाचार, २७ सितम्बर १६५० (ख) दक्षिणी अमेरिका में एक प्रकार का मेढक पाच फूट लम्बे साप को खा जाता है “--फकादम्बिनी, मई, १६६४ €. जलजन्तु- (क) देवमासा मछली तीन दिन मे ८०० माइल तेरती हैं --बम्बईसमाचार, २१ अगस्त १६५० (ख) ह्वल मछली १४० फुट लम्बी और १४० टन भारी होती है। उसके मुंह में २४ हजार दाँत होते हैं तीन-तीन सौ दातो की 5८० कतारें होती हैं

--तवभारत टाइस्स, २८ मार्च, १६५१ (ग) अमरीका का समुद्री घोधा प्रति वर्ष ४० करोड अण्डे देता है कुछ सीपियाँ और खर हैं, जो प्रतिदित ४१

हजार एवं एक वर्ष मे १४४ करोड अण्डे देते हैं -+कादम्बिनी, सई, १६६४

१०. कई अन्य पशु-पक्षी-- (क) पशुओं मे चीता ७० मील प्रतिघटा दौड सकता है, किन्तु अधिक लम्बा नही दौड सकता

--साप्ताहिक हिन्दुस्तान, ३१ अक्टूबर १६७१

२३० वक्‍तृत्वकला के बीज

(ख) शतुर्घर्ग की गति प्रति घटा २६ मील तक है। उसकी छोटी से छोटी पाख की कीमत ३०-४० रुपये है (ग) कबूतर ६० मील और चिडिया कोई-कोई ३०० मील प्रतिघटा उड सकती है -नवभारतटाइम्स, २८ साचे, १६५१ (घ) लंदन के अजायबघर मे सुमात्रा से एक अदूभुत छिपकली लायी गयी थी, वह १४ फुट लम्बी थी और उसकी जीभ १४ इंच लम्बी थी 4

हृश्यमान विश्व में पशु-पक्षो

विश्व के पशुओ को दो वर्गों मे रख सकते है--प्रथम वर्ग मे पशु जो मनुष्य के भोजन के साधन हैं, जैसे-गाय, भेस, भेड, बकरी, सुअर और मुर्गी आदि हितीय वर्ग में पशु जो बोझका ढोने अथवा सवारी के काम आते हैं, जंसे-घोडे, गघे, खच्चर, बेल, ऊंट, याक आदि। प्रो* मामोरिया के अनुसार पृथ्वी पर ३५०० प्रकार के पश्चुओ में से केवल १७ पद्मु, १३००० प्रकार की चिडियो मे से केवल चिडियाँ और ४,७०,००० कीडो मे से केवल दो प्रकार के कीडे पालतू बनाये गये है नीचे की तालिका मे विद्व के कति- पय पालतू पशु-पक्षियो की सख्या देखिये --

पशु संख्या पशु-पक्षी सख्या भेड ६८ करोड ऊंट ६० लाख गाय-वेल ७१ ,, रेनडियर (वारहसीगा) २० लाख सुअर २६ ,, लामा आदि २० लाख बकरी ११ ,, मुर्गियाँ अरब €० करोड़ चोड़े ६, बतखें ११ करोड़ गघे ह.५ ,, हस करोड ३: लाख खच्चर १५ ,, दर्की करोड़ ३० लाख

२३१

मनुष्य-संसार

सनुष्य-

मत्वा-हिताहित ज्ञात्वा कार्यारिं सीव्यन्तीति मनुष्या

अपने हित-अहित को समभकर काम करते हैं, इसलिए मनुष्यों

का नाम मनुष्य है।

यो वे भ्रूमा तदमृत, अथ यदल्पं तद्‌ मर्त्यम्र

--छादोग्योपनिषद्‌, ७४२४

जो महान्‌ है, वह अमृत है--शाशवत है और जो लघु है, वह मस्व॑

है--विनाशशील है (मत्यं नाम मनुष्य का है)

पात्रे त्यागी गुण रागी, भोगी परिजन सह

शास्त्रे बोद्धा रणे योद्धा, पुरुष' पच्च लक्षण “--सुभाषितरत्नभाण्डागार, पुष्ठ १४८

(१) पात्र को देनेवाला, (२) ग्रुणो का अनुरागी, (३) परिजनों के साथ वस्तु का उपभोग करनेवाला, (४) शास्त्रज्ञ, (५) युद्ध करने मे वीर पुरुष के ये पाँच लक्षण हैं

मनुष्य का मापदण्ड उसकी सम्पदा नहीं, अपितु उसकी

बुद्धिमत्ता है --टी एल. बास्वानों

हर आदमी की कीमत उतनी ही है, जितनी उन चीजो की

है, जिनमें वह सलग्न है --आरिलियस २३२

पाँचवां भाग * चौथा कोष्ठक २३३

5

न्श्च्छ

अगर त्‌ृ अपनी कीमत आकना चाहता है तो धन-जायदाद- पदवियों को अलग रखकर अत्तरग जाँच करले ! >सेनेका

आदमी की कीमत का अदाज इससे लगता है कि खुद अपनी नजर में उसकी क्‍या कीमत है मनुष्य समाज से तिरस्क्ृत होने पर दार्शनिक, शासन से प्रताडित होने पर विद्रोही, परिवार से उपेक्षित होने पर महात्मा और नारी से अनाहत होने पर देवता बनता है। --महर्षिरसण मनुष्य जो कुछ खाते हैं उससे नही, किन्तु जो कुछ पचा सकते है, उससे बलवान बनते हैं। घन का अर्जन करते है, उससे नही, जो कुछ बचा सकते है, उससे धनवान वृनते हैं। पढते हैं उससे नही, जो कुछ याद रखते है, उससे विह्वान्‌ होते हैं। उ-देश देते हैं उससे नहीं, जो आचरण मे लाते है, उससे धर्मवान बनते हैं--ये बड़े परच्तु साधारण सत्य हैं इन्हे अतिभोजी, अतिव्ययी, पुस्तक के कीट और पाखडी लोग भूल जाते हैं -जलार्ड वेकल यो निर्गत्य नि शेषा-मालोकयति भेदनीम्‌ अनेकाइ्चर्यसम्पूर्णा नर कूपददुं

--चंदचरित्र, पु ८६ जो घर से मिकलकर जनेक्माइचयंपूर्ण पृथ्वी का अवलोकन नही करता, वह कुए का मेढक हैं अगनि उघाडी ता खटे, जल फूल्या बिगड त। नारी भटकयाँ बीगड़ं, नर भटक्‍्याँ सुघरत॥

र्३े४ बबतुत्वकला के बीज

१२९. आदमी-आदमी में अन्तर, कोई हीरा कोई कंकर ! -- हिन्दी कहावत १३. मिमख रो काम मिनख सू सौवार पड --शाजस्थानी कहावत १४. मानवजाति दो बातो से नष्ट हुई है “: विलासिता से और हू से --शेक्सपियर १५. गणित को अपेक्षा से मनुष्यों के चार आश्रसो का रहस्प- (१) ब्रह्मचर्याश्रम जोड (+) है--इसमें वीर्य-विद्या-कला कौणल आदि इकट्ठे किये किए जाते हैं (२) ग्रहस्थाश्रम बाकी (-) है--इसमे संग्रहीत वस्तु का खर्च होता है। (३) वानप्रस्थाश्रम ग्रुणाकार (५८) है--इसमे हर "प्रकार से गुणो की बृद्धि की जाती है (४) सनन्‍्यास-आश्रम भागाकार (--) के तुल्य है--इसमें प्राप्त किये हुये तप-जप-ज्ञान-ध्यान आदि बाटे जाते हैं अर्थात्‌ उनका लोगो में प्रचार किया जाता है। "सकलित

दा

मनुष्य का स्वभाव

पुलुकामों हि मर्त्य --ऋणगवेद ११७६४ मनुष्य स्वभाव से ही बहुत कामनावाला होता है।

उत्सवप्रिया हि मनुष्या --अभिज्ञान शाकु तल मनुष्य नित्य नये आनन्द के प्रेमी हुआ करते है

(क) मनुष्या स्खलनशीला --सस्कृत कहावत (ख) टू ईरर इज ह्य मन --अग्रेजी कहावत मनुष्य भूल करने की आदतवाले होते हैं

पुढों छुदा इह माणवा | --आचाराग ५॥२

ससार में मानव भिन्न-भिन्न विचारवाले होते हैं।

अणेगचित्त खलु अय पुरिसे।

से केयरा अरिहुए पूरिण्णए --आचारांग ३२

यह मनुष्य अनेक चित्त है, अर्थात्‌ अनेकानेक कामनाओ के कारण

मनुष्य का मन विखरा हुआ रहता हैं। वह अपनी कामनाओ की

पूत्ति क्या करना चाहता है, एक तरह छलनी को जल से मरना

चाहता है

पकने पर कड्रुआ होनेवाला एक फल है--मनुष्य'

मनुप्य अप॑नी श्रष्ठता को आतरिकरूप से प्रकट करते हैँ

और पशुता को बाह्यरूप से --रूसी कहावत रश्भ्५

२३६ वक्‍तुत्वकला के बीज

८. सिर्फ आदमी ही रोता हुआ जन्मता है, शिकायत करता

हुआ जीता है और निराश होकर मर जाता है। -+सर बाह्दर टेस्पल

६. अनायंता निष्ठुरता, क्र्‌्रता निष्क्रियात्मता। पुरुष व्यज्जयन्तीह, लोके कलुषयोनिजम्र्‌ >मनुस्पृति १०४५८ अनार्यता, निष्ठुरता, क्रूरता और निप्क्रियात्मता-आलसीपन-नये कार्य मनुष्य को न्ीचयोनि से उत्पन्न है--ऐसे प्रकट करनेवाले हैं ११. नदी बहना नही छोडती, समुद्र मर्यादा नही छोडता, चाँद- सूर्य प्रकाश देना नही छोडते, ब्रक्ष फलना-फूलना नहीं छोडते, फूल सुगन्धि नही छोडता, तो फिर मनुष्य अपना स्वभाव-ग्रुण क्यो छोडता है ?

१२. आदमी की शक्ल से अब डर रहा है आदमी , आदमी को लूट कर घर भर रहा है आदमी | आदमी ही मारता है, मर रहा है आदमी , समझ कुछ आता नही,क्या कर रहा है आदमी ? आदमी अब जानव की, सरल परिभाषा बना है, भस्म करने वि्व को,वह आज दुर्वासा बना है। क्या जरूरत राक्षसो की, चूसने इन्सान को जब , आदमी ही आदमी के, खून का प्यासा बना है --खुले आकाश मैं

मनुष्य का कतेव्य

१. पुमान्‌ पुमास परिषातु विश्वत')।. “तग्वेद &७५१४ एक दूसरे की रक्षा-सहायता करना मनुष्य का पहला क॒तंव्य है। २. आनृशस्य परोधर्म --वाल्मी किरामायण ५॥३८३६ मानवता का समादर करना मनुष्य का परमधर्म है ३. अगरबत्ती की तरह जलकर भी दूसरो को सुगन्धित करना मनुष्य का कर्तव्य है यओज्दों मह्याइ भइपी जॉयम्‌ वहिएता -यरन हा डें८ा५ मनुष्य के लिए यह सबसे अच्छा है कि वह जन्म से ही पवित्र रहे मनुष्य के तीन मुख्य कर्तन्य हैं-- (१) दुश्मन को दोस्त बनाना, (२) दुष्ट को सदाचारी बनाना, (३) अशिक्षित को शिक्षित बनाना “शयस्त ला शयस्त २०१६ [पारसी घर्मग्रन्य) कि दुर्लभ ? नू जन्म, प्राप्येदमवत्ति कि कर्तव्यम ? आत्महितम हितसग-त्णगो रागरच गुरुवचने

दुर्लभ क्‍या है ? मनुष्य-जन्म इसे पाकर दया करना चाहिए ? बात्मा का हित , कुसग का त्याग और सदगरुरु की वाणी मे प्रेम

२३७ है

सनुष्य के लिए शिक्षाएं

- मनुष्य आक्ृति से जन है, उसे सज्जन या महाजन बनने की कोशिश करनी चाहिए, किन्तु दुर्जन वनने की कभी नही | उसे ऊपर चढते रहना चाहिए, वरना नीचे गिर जाएगा « हर एक आदमी भक्षक है, उसे उत्पादक होना चाहिए -एमसंन तीन कारणों से मनृष्य दूसरे के पास जाता है--सहायता देने, सहायता लेने और कुछ सीखने यदि सहायता देने गया हो तो ऐसा हो कि उसका बोका बढ जाए। यदि सहायता लेने गया हो तो वाप बनकर नहीं ले सकता। यदि कुछ सीखने गया हो तो सुने-विचारे, लेकिन ऐसा हो कि उल्टा सिखाने लगे - विद्वाब्चेत्‌ पठनोद्यतानु सरलया रीत्या झुदा पाठय , शिल्पी चेदुचिताब्च शिक्षय कला निष्कामबृत्त्याखिला' वक्ता चेद्सि दर्णय प्रवचने सन्नीतिमार्ग सदा, वेद्यस्चेत्‌ कुरु रोगनाशनकृते तेषा व्यवस्था शुभाग रे मनुष्य | यदि तू विद्वान्‌ है तो पढने के इच्छुक न्यक्तियों को सरल श्३े८

बॉलमा भाग : चोभा कोष्ठक श्रे६

रीति से पढा, यदि डिल्पी हैं तो नि स्वार्थभाव से दूसरो को सत्‌- कलाओ की शिक्षा दें, यदि वक्‍ता है तो अपने प्रवचनों द्वारा नीति-

, मार्ग का प्रदर्शन कर और यदि वँद्य है तो दुनियाँ में रोगनताश की शुभ व्यवस्था कर )

मनुष्य का महत्त्व

- गुह्य ब्रह्म तदिद वो ब्रवीमि , नमानुषाच्छेष्ठतरं हि किचित्‌

--महानारत शान्तिपर्व २६९।२० तुम लोगो को मैं एक बहुत भ्रुप्त बात बता रहा हूँ, सुनो ! मनुष्य से बढकर ओर कुछ भी श्रष्ठ नही है |

- पुरुषों वे प्रजापते ने दिष्टमू ।. >शतपथब्राह्मण २।५॥१६ सब प्राणियों में मनुष्य सृष्टिकर्ता परभेश्वर के अत्यन्त समीप है - बुद्धिमस्सु वरा श्रेष्ठा मनुस्मृति १।६६

बुद्धिमानों मे मनुष्य सबसे श्रष्ठ है * नरो वे देवाना ग्राम:

--तत्तिरीय ताराष्यमहाब्राह्मण ६।६।२ मनुष्य देवो का ग्राम है अर्थात्‌ निवासस्थान है मुसलमानों के 'हदीसा' मे अल्ला ने फरिस्तो से कहा है कि तुम इन्सान की सेवा करो गधे, घोडे, गाय, भेश आदि पथ्ु नही समझते कि यह राज- महल है या ठाकुर जी का मन्दिर है शथवा जीहरीवाजार

है, यहाँ मल-मृत्र का त्याग नहीं किया जाता जवकि र४०

पाँचवा भाग चौथा कोष्ठक २४१

११.

१२-

१६

साधारण से साधारण मनुष्य भी इस बात को समभता

है क्योकि मनुष्य मे विवेक है

राष्ट्र की सम्पत्ति त्तो मनुष्य है, रेशम, कपास, स्वर्ण नही -रिचार्ड हॉंवें

यदि तुम पढना जानते हो त्तो प्रत्येक मनुष्य स्वय एक पूर्ण-

ग्रन्थ है -चैंसिंग

» संसार को स्वाद बनानेवाला एक नमक है-मनुष्य

मिनखो माया, बिरखा छाया

आदमी री दवा आदमी, आदमी रा शेतान आदमी -राणस्थानी कहावतें

सानवीय सस्तिष्क-

सुनार की पेटी मे विराजमान चादी का प्याला बोला--

“बस ! मैं तो मैं ही हूँ !”

स्वर्णपात्र-चुप ! मेरे सामने तेरा अभिमान भूठा है

हीरा-क््या मेरा तेज नही देखा, जो घमंड करता है ?

पेटी-तुम सारे, क्यो मैं-मैं कर रहे हो, आखिर रक्षिका तो

मैं ही हूँ

ताला-चुप रह, वाचाल ! मेरे विना तेरे मे क्‍या है ?

चाबी-तू तो मेरे इशारे पर नाचनेवाला हे क्यो गरज

रहा हे ?

हाथ-पगली ! मेरे विना तो तू हिल भी नहीं सकती हे !

के

चक्र

सुनार वोला-अरे भाई ! यह सब मानवीय मस्तिष्क का प्रभाव हे अतः बडा तो मानव ही है

१३ मनुष्य के पीछे संसार-

१४

कागज पर एक तरफ ससार का चित्र था और दूसरी तरफ मनृष्य का। पिता ने फाडकर उसके टुकडे-टुकड़े कर दिए फिर अपने छोटे पुत्र से उसे जोडने के लिए कहा बच्चे ने ससार का चित्र जोडने का काफी यत्न किया, किन्तु जुड नही सका ! तब दूसरी तरफ मनुष्य का चित्र देखा ! ज्योही उसे जोडा, संसार भी जुडगया। वास्तव में ससार मनुष्य के पीछे ही हे

मनुष्य से विधाता सी चकित-

कहते हैं कि भाग्यफल सुनाकर विधाता ब्रह्मलोक से १२ मनष्य, मनष्य-लोक मे भेज चुके थे। तेतीसवें का भाग्यफल उस प्रकार सुनाया जा रहा धा्यह धनी- खानदान में जन्म लेकर सव तरह से सुखी होगा पन्द्रह वर्ष की आयु मे दुर्घटना-वश गूगा वहरा होगा, माँ बाप मर जाय॑ंगे, घन नष्ट हो जायगा, फिर भिखारी के रूप में भटकता-भठकता अघा एवं कोढी भी वन जायगा, ऐसे पूरे सौ वर्ष तक दु खमय जीवन व्यतीत करेगा | बीच ही में मनुष्य वोल उठा-क्या सौ वर्ष ? वस, इतना कहने के साथ ही वह चीखता हुआ गिर पडा और मरगया |

पाँचवा भाग चौथा कोष्ठक २४३

भाग्यफल सुनते-सुनते मरने का यह पहला ही अवसर

था। विधाता देखते ही रहगये एवं उस दिन के बाद

भाग्यफल सुनाना बद कर दिया फिर भी मनुष्य ज्योति-

षियो द्वारा उसे सुनने लगा और विधाता के लेख को बदलने का प्रयत्न करने लगा।

+-जाह्ववी, जनवरी ६८ से

रा

रे मनुष्य की दस अवस्थाएँ

१. वाससयाउयस्स पुरिसस्स दस दसाओ पण्णात्ता, जहा- बालाकिड्डा मदाय, बला पन्ना हायणशी

पव॑ंचा पव्मारा य, मुम्मही सायणी तहा। ->स्थानाग१०।७७२

सौ वर्ष की आयु की अपेक्षा से मनुष्य की दस अवस्थाएँ कही हैँ --(१) वाला (२) क्रीडा (३) मदा (४) वला (५) प्रज्ञा (६) हायनी (७) प्रप॑चा (८) प्रागुभारा (६) मुम्मृही (१०) शायिनी

(१) बाला-- उत्पन्न होने से लेकर दस वर्ष तक का प्राणी वाल कह- लाता है उसको सुख-डु-.खादि का विशेष ज्ञान नही होता अतः यह बाल-अवस्था कहलाती है

(२) फीडा---इस अवस्था को प्राप्त होकर प्राणी अनेक अ्रकार की क्रीडा करता है, किन्तु काम-भोगादि विषयो की तरफ उसकी तीव्र बुद्धि नही होती

(३) मन्दा--इस अवस्था को प्राप्त होकर पुरुष अपने घर में विद्यमान भोगोपभोग--सामग्री को भोगने में समर्थ होता है, किन्तु नये भोगादि का अर्जन करने में मन्द यानी असमर्थ रहता है इसलिये इस अवस्था को मदा कहते हैं

(४। बला--तंदुरुस्त पुरुष इस अवस्था को प्राप्त होकर अपना बल (पुरुषार्थ) दिखाने में समर्थ होता है। इसलिए पुरुष की यह अवस्था वला कहलाती है

र४ढ

पाँचवा भाग * चौथा कोष्ठक रण

(५) प्रज्ञा--प्रज्ञा बुद्धि को कहते हैं। इस अवस्था को प्राप्त होने पर पुरुष मे अपने इच्छितार्थ को सम्पादन करने की तथा अपने कृटुम्ब की वृद्धि करने की बुद्धि उत्पन्न होती है

६) हायनी--इस अवस्था को प्राप्त होने पर पुरुष की इन्द्रियाँ अपने- विषय को ग्रहण करने मे किचित हीनता को प्राप्त हो जाती है

(७) प्रपञ्चा--इस अवस्था में पुरुष की आरोग्यता गिर जाती है और उसे खासी आदि अनेक रोग घेर लेते हैं

(८) प्रागभारा--इस अवस्था मे पुरुष का शरीर कुछ भूक जाता है। इन्द्रिया शिधिल पड जाती हैं। स्त्रियो को अप्रिय हो जाता है और बुढापा आकर घेर लेता है।

(&) मुम्मुही--जरारूपी राक्षसी से समाक़ान्त पुरुष इस नवमी दमा को प्राप्त होकर अपने जीवन के प्रति भी उदासीन हो जाता है और निरन्तर मृत्यु की आकाक्षा करता है।

(१०) शायनी--इस दसवी अवस्था को प्राप्त होने पर पुरुष अधिक निद्रालु वन जाता है। उसकी आवाज हीन, दीन गौर विकृत हो जाती है

(यहाँ सौ वर्ष के मनुष्य की दस अवस्थाएँ कही गई हैं। यदि अधिक आयु हो तो उसके हिसाव से दस भाग कर लेने चाहिए ।)

दसा डावडो, वीसा बावलो, तीसा तीखो, चालीसा फीको' पच्चासा पाको, साठा थाको, सत्तर सडियो, अस्सी

गलियो, नब्बे नागो, सोवा भागो ।_ -र/जस्थानी कहावत चालीस वर्ष की अवस्था जवानी का बुढापा है और पचास वर्ष की अवस्था बुढापे की जवानी -आररिन माँ मेले

प्र

मनुष्य के प्रक/र

मणस्सा दुविहा पत्रत्त। त॑ जहा-समुच्छिम गण स्‍्सा गव्भवकक्‍्कंतिय मणसस्‍्सा ये --प्रज्ञापना सूत्र मनुष्य दो प्रकार के कहे हैं--समृच्छिम और गर्भज माता के गर्भ से पैदा होनेवाले गर्भजमनुष्य कहलाते हैं मौर उनके मल- मूत्र से उत्पन्त होनेवाले समूच्छिममनुष्य कहलाते हैं गठतवक्‍क्तियमणस्सा तिविहा, पन्नता, जहा-कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अतरदीवगा -प्रज्ञापना सूत्र गर्भजमनुष्य तोन प्रकार के कहे हैं-कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तर्द्गीपज ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, जहा-आरिया मिलक्खुय -प्रज्ञापना सूत्र कर्मभूमिज-मनुष्य दो प्रकार के कहे हैं--आर्य और म्लेच्छ आरिया दुविहा पण्णत्ता, जहा-इंड्डिपत्तारिया अरिडिढ्पत्तारिया -प्रज्ञापना सूत्र आर्यमनुष्य दो प्रकार के हैं--ऋद्धिप्रोप्त और अनद्िप्राप्त। ऋद्धिप्राप्त भारय हैं-- अरिहत, चक्रवर्ती, गयुदैव, वलदेव, चारण,

विद्याघर ! २४६

पाचवा भाग * चौथा कोष्ठक २४७

मनद्विप्राप्त आर्य नव प्रकार के हैं- क्षेत्रजार्य , जातिआर्य, कुलआर्य, कर्मआर्य, शिल्प- आर्य, भाषाआर्य, ज्ञानआर्य, दर्शनआर्य, चारित्रञार्य तीन प्रकार के मनुष्य-- (१) अच्छा ग्रहरा करनेवाले-पशु (२) अच्छा करने की इच्छा रखभेवाले-मनुष्य (३) अच्छा बनने की कोशिश करनेवाले-देवता ६. मनुष्य के तीन प्रकार-- (१) भलाई का बदला बुराई से देनेवालि--राक्षस (२) भलाई का बदला भलाई से देनेवाले--मनुष्य (३) बुराई का बदला भलाई से देनेवाले--देवता तीन प्रकार के मनुष्य-- (१) पतनशील (२) स्थितिशील (३) उन्नतिशील सनुष्य के तोन वर्ग-- (१) विपरीतगामी (२) स्थिर (३) अग्रगामी +जजलेवेटर &. मनुष्य के तीन रूप-- (९) जेसा वह स्वयं समझता है। (२) जैसा उसे लोग समभते है (३) जंसा वह स्वय है १० सनुष्य की तीन कोटियाँ-- हीवकोटि--अपनी प्रद्मसा करनेवाले मध्यमकोटि--जिनकी प्रशसा मित्र करते हैं उत्तमकोटि--जिनकी प्रशसा शत्रु भी करते है

र्‌४५८ वकक्‍तृत्वकला के बीज

११. एके सत्पुरुषाः परार्थटका स्वार्थ परित्यज्य ये , सामान्यास्तु वरार्थमुद्यमभृत स्वर्थाविरोधेत ये तेड्मी मानुप राक्षस परहित स्वार्थाय निध्नन्ति ये ,

ये निध्नन्ति निरर्थक परहित ते के जानीमहे --भर्त हरि, नोतिशतक ७५

स्वार्थ छोडकर दूसरे का काम करनेवाले सतृपुरुष हैं। स्वार्थ रखते हुए दूसरे का काम निकालनेवाले सामान्य पुरुष हैं तथा स्वार्थ के लिए दूसरों का काम विगाडनेवाले मनुष्यरूप मे राक्षस हैं। लेकिन उन मनुष्यो को किस नाम से पहचानें, जो विना मतलब ही औरी का काम विगाडते रहते हैं

१२. चार प्रकार के मनुष्य-- (१) हैवान (आर्त्तध्यानी) (२) गेतान (रौद्रध्यानी | (३) इन्सान (धर्मध्यानी) (४) भगवान (शुक्लध्यानी)

१३. चार प्रकार के मनुष्य-- (१) कीट-पतग जेसे--(कलाबिहीन) (२) पशु-पक्षी ज॑ंसे--(उदरपरुति के लिए शिल्प आदि कला

सीखनेवाले)

(३) मनुष्य जेसे--(धर्मकला सीखनेवाले) (४) देवता जैसे--(इूसरो मे धर्म का प्रचार करनेवाले)

१४. चार प्रकार के मनुष्य-- (१) निक्ृष्ट--मेरा सो मेरा और तेरा भी मेरा (२) मध्यम--मेरा सो मेरा और तेरा सो तेरा

पाँचवा भाग : चौथा कोष्ठक २४६

(३) उत्तम-तेरा सो तेरा और मेरा भी तेरा (४) ब्रह्मश्--मा कुछ तेरा, ना कुछ मेरा। जग का यह सब मूठा भमेला १५. चार प्रकार के मनुष्य-- (१) चीनी की मक्खी ज॑से-स्वाद लेकर उड जानेवाले --(भरत चक्रवत्तिवत्‌) (२) गुड के लाट की मकखी जेसे-स्वाद लेते-लेत उसी में मर जानेवाले ।--(ब्रह्मदत्त चक्रवत्तिवत्‌) (३) विष्ठा को मक्खी जेसे-स्वाद लिए विना ही उड जाने- वाले ।--(हरिकेणी मुनिवत्‌) (४) इलेष्म की मक्खी जेसे-स्वाद लिए बिना इलेष्म मे फस कर मर जानेवाले ।--(कालसूकर कसाईवत) १६ चार प्रकार के सनुष्य-- (१) जो आप खाए, दूसरो को खिलाए--मक्खीचूस (२) जो आप खाए, पर दूसरों को खिलाए--कंजुस (३) जो आप भी खाए, दूसरो को भी खिलाए--उदार (४) जो आप खाकर दूसरो को खिलाए--दाता -अफलातुन १७ चार प्रकार के मेघ होते हैं-- (१) गरजते हैं, वरसते नही, (२) गरजते नही बरसते हैं, (३) गरजते भी है, बरसते भी है(४)गरजते भी नही वरसते भी नहों

२५०

श्८.

वक्‍्तृत्यकला के बीज

मेघ के समान चार प्रकार के मनुष्य हैं--

(१) बोलते हैं, देते नही, (२) बोलते नही, देते हैं (३) बोलते

भी हैं, देते भी है, (४) बोलते भी नही, देते भी नही -स्थानाज़ ४४३४६

पाँच प्रकार के मनुष्य--

(१) अपना स्वार्थ चाहनेवाले-मिट्टी के समान

(२) कुटुम्ब का हित चाहनेवाले-वृक्ष के समान

(३) समाज का हित चाहनेवाले-पशु-पक्षी के समान

(काक भी जीमनवार दंखकर काँव-काँव करके अपने

समाज को इकट॒ठा कर लेता है )

(४) राष्ट्र का हित चाहनेवाले-मनुष्य के समान |

(५) समूचे ससार का हित चाहनेवाले-भगवान्‌ के समान

१६९. प्रकार के मनुष्य--

(१) सर्वोत्तम-नितम्ब्रारूढ स्त्री की भी इच्छा करने- वाला। छद॒मस्य-वीत राग, उपशम-क्षपक- अं णीवाला

(३) उत्तमोत्तम-स्त्री की इच्छा होने पर पद्चात्ताप से निवृत्ति करनेवाला-अप्रमत्तसयत

(३) उत्तम-मुहूर्त-प्रहर यावत्‌ इच्छा होती है फिर भी मंथुनसेवन करनेवाला--प्रमत्तसयत

(४) मध्यम-परस्त्री का त्याग करनेवाला--श्रावक

(५) अधम-परस्त्री-स्वस्त्री दोनो का भोग करनेवाला

पाँचवा भाग - चौथा कोष्ठक र५१

२०

(६) अधसाधम-माँ, बहन, विधवा, कुमारी तथा साध्वी से भी टलनेवाला -महानिशीय

आठ प्रकार के सनुष्य-

(१) आसन्नहृष्टि-ये बालक, बन्दर मक्खियो की तरह अद्रदर्शी होते है

(२) दूरहृष्टि- वयपरिणत व्यक्तियों की तरह दूर की सोचनेवाले

(३) रागहृष्टि--अपने पुत्र, पति, दामाद, स्त्री आदि जिन पर राग है। वे चाहे कंसे ही कुरूप, मूर्ख एवं कव्य- सनी हो, अच्छे ही लगत हैं। रागहृष्टिवाले अच्छे- बुरे को नही समझ सकते |

(४) हूं षहब्टि-ये गुणो को भी दोषरूप मे लेते हैं

(५) गुणदृष्टि-ये श्रीकृष्णवत्‌ गुण को ही लेते हैं

(६) दोषहष्टि-ये जोक, मक्खी कागवत्‌ दोपग्राही होते हैं

(७) गुण-दोषहृष्टि-ये डाक्टर, मास्टर, वकोल, न्याया- घीण, नेता, वक्ता, लेखक, व्यापारी, राजा एवं तपस्वी की प्रणसा करके अन्त मे एक दोप ऐसा दिखलाते हैं कि पिछली प्रशसा पर पानी फिर जाता है।

(८) आत्महृष्टि-ये आत्मा के दोष देखते हैं। लग इनकी प्रणसा करते है तब नाचते, मयूरवत्‌ अपने पेर (दोष) देखकर रोते है एव आनन्दघनजीवत्‌ अपने शिष्यों को अच्तर्दर्शन करवाना चाहते है

रर्२ वक्‍तृत्वकला के वीज

२१ येषा विद्या नतपो दाने , ज्ञानं शील गुणो, धर्म ते मर्त्यलोके भ्रुवि भारभ्ता , मनुष्यरूपेण. मुगाश्चरन्ति -भर्तृहरि नीतिशतक १३ जिन्होंने तप नही किया, विद्या नहीं पढी, दान नहीं दिया एवं ज्ञान, शील, ग्रुण और धर्म का अम्यास नही किया, वे मनुष्य

मर्त्यलोक मे पृथ्वी के लिये भारभूत हैं तथा मनुष्य के रूप मे विचरते हुए भी साक्षात्‌ पशु हैं

११ सनुष्य जन्म की प्राप्ति

१, कम्माण तु पहाणाए, आशुपुब्बी कयाइ ) जीवा सोहिमयप्पत्ता, आययति मंण॒स्सय ॥। -- उत्तराषण्ययच २१५७

क्रमश कर्मों का क्षेय होते से शुद्धि को प्रात जीव कदाचिंत्‌ वहुत

लम्बे समय के परेचात मनुष्य जन्म को प्राप्त होता है

२. चर्ठाहिंठाणेहिजीवा मणुस्सत्ताएकम्म पगरेति तजहा-पग३ः भद्दयाए, पगइविणशोययाए, साणुक्कोसयाए अमच्छरियाए

-स्थानाग डीडीरे७३ चार कारणों से जीउ मनुष्यगति की आयुष्यबाघते हैं, सरल प्रकृति से, विनीत-प्रकृति में, दयाभाव से और अनीर्ष्पाभाव से माणसत्त भवे मूल + लाभो देवगई भवे मूलच्छेएश जीवाण, णरग-तिरिखत्तण थुव --उत्तराध्ययन ७॥१६

मनुष्यजन्म भोप्ते करना मूलघन की रक्षा है। देवत्व प्राप्त करना लामम्वरूप है और मरक-तिर्य>च में जाना मूलवन को खो देना

है) भर

रध्रे

१२ मनुष्य जन्म की श्रेष्ठता

१. मनुष्यजन्म से ही मुक्ति मिल सकती है, अत- यह जन्म सवश्र ष्ठ है २. स्वर्ग के देवता भी इच्छा करते है कि हमे मनुष्यजन्म मिले, आर्य देश मिले और उत्तम कुल मिले “>स्थानाग ३३३।१७८ ३. जेसे सामग्री के अभाव मे राजमहल की अपेक्षा खेत की भोपडी अच्छी है, उसी प्रकार घर्मसामग्री का अभाव होने से स्वर्ग की अपेक्षा मनुष्यलोक श्रेष्ठ है। कहा जाता है कि भक्ति से प्रसन्न होकर गोपियो के लिए इन्द्र ने विमान भेजा, तव गोपियों ने कहा-- 'त्रज बहालु मारे बेकुठ थी जावु' त्या नदन्ोलाल क्या थी लावु ---वैष्णवी मान्यता अमेरिका के डाक्टर थोमर कहते है कि तुम्हारा भार उठानेवाली पृथ्वी से स्वर्ग को अधिक मानो तो तुम्हे इस पृथ्वी पर पेर भी नही रखना चाहिए। ५. मनृष्यजीवन अनुभव का झास्त्र है “-विनोबा ६. मनुष्यजीवन की तीन वंडी घटनाएँ विवाद से पूर्णतया

परे है--जन्म, विवाह और मृत्यु २५४

पाँचवा भाग चौथा कोष्ठक सर्प

मानवजीवन के पाँच रत्न हैं--(१) प्रेम अर्थात्‌ मिलनसारी,

(२) मित्रता--अक्रोघन्भाव, (३) शान्ति-मभाव-क्षमा (४) समम--नियमितता (५) समता-सतोष

पात्रे दान सता सद्भ , फल मनुष्यजन्मन

€,

--सुक्तरत्नावली मनुष्यजन्म का फल है---सुपात्र को दान देना और सत्सग करना। जिद्द प्रह्मीभव त्व सुकृति-सुचरितोच्चा रणो सुप्रसन्‍्ता, भूयारतामन्यकीति श्र्‌ति रसिकतया मेड्यकर्णों सुकर्णों वीक्ष्याउन्य प्रौढलक्ष्मी दर तमुपचिनुत लोचने ! रोचनत्व,

ससारेडस्मिन्ोसारे फलमिति भवता जन्मनो मुख्यमेव ॥। --शान्तसुधारस, प्रसोदभावना १४

है जीभ ! धाभिको के दानादि भुणो का मान करने मे अत्यन्त

प्रसन्न होकर तत्पर रहो | कानो ! दूसरो की कीर्ति सुनने मे रसिक

होकर सुकर्ण (अच्छे कान) वनो | नेत्रो ! दूसरो को बढती हुई

लक्ष्मी को देखकर प्रसन्नता प्रकट करो इस असार-ससार में जन्म पाने का तुम्हारे लिए यही मुख्य फल है

सनुष्य-जन्म की दुलेभता माणुस्स खु सुदुल्लह -5त्तराष्ययन्न २०१११ मनुष्यजन्म मिलना अत्यन्त कठिन है।

कबीरा नोबत आपुनी, दिन दस लेहु बजाय यह पुर-पट्‌टन यह गली, बहुर देखो आय।

वडे भाग्य मान॒ष तनु पावा,

सुरदुर्लभ सदग्रर्न्थाह गावा --रामचरितमानस दुर्लभ त्रयमेवेतद्‌ , देंवानुग्रहहेतुकम्‌

मनुष्यत्व मुमृक्ष,त्व, महापुरुष सश्रय --शकराचार्य ये तीन चीजें दुलंभ एवं सदभाग्य की कृपा के कारण हैं मनुष्यता, मुमुक्ष॒ता और महापुरुषो की समति

चत्तारि परमगारि, दुत्लहाणीह जतुणो।

माणुसत्त सुई सद्धा, संजममि वीरिय ॥। ->उत्तराध्ययन ३॥१

संसार मे सव जीवो के लिए चार परम अंग (उत्तम संयोग) दुलभ हैं--(१) मनुप्यता, (२) धर्म-श्रवण, (३) धर्म में श्रद्धा, (४) सयम मे वीर्य-पराक्रम करना

२५६

१४ दुर्लभ मनुष्यदन्स को हारो मत !

दुल॑भ प्राप्य मानुष्य, हारयध्व मुधेव मा। -पाईर्वनाथचरित्र

दुलभ मनुष्यजन्म को पाकर व्यर्थ मत गवाओ

२. नर को जनम वार-बार ना गवार सुन ,

अजहु सवार अवतार ना बिगोइये। लीजेगो हिसाव तब दीजेगो जबाब कहा ,

कीजे जु सताव तो सतावे शुद्ध होइये। पाप करके अज्ञानी सुख की कहा कहानी ,

घृत की निशानी कित पानी जो विलोइये स्वारथ तजी जे परमारथ किंसन कीजे ,

जनम पदारथ अख्यारथ खोइये नदी-नाव को सो योग मिल्‍यो लख लोग तामे,

काको-काको कीजे झोक काकू-कार्कू रोइये को है काको मित्त तापे काह काकी चित परी ,

सीतपति मन में निन्रित होय सोइये ध्याइये विमुख उपाइये कंते दु खे ,

वोइये वीज जोपे आक वीज वोइये।

श्प्र्८

पाँचवां भाग चौथा कोष्ठक र्प्र्६

स्वारथ तजीजे परमारथ किसने कीजे, जनम पदारथ अख्यारथ खोइये | “--किसनदावतोी ३. रात गमाई सोय के, दिवस गमाया खाय , हीरा जन्म भअमोल यह, कोडी वदले जाय

४. स्वर्गास्थाले क्षिपति रजः पाद शौच विधत्ते, पीयूषेश प्रवरकरिण वाहयत्येन्धभारम्‌ चिन्तारत्व विकिरति कराद्‌ वायसोड़ायनार्थ , यो दुष्प्राप्प गमयति मुधा मरत्यंजन्म प्रमत्त-। “सिन्दूरप्रकरण जो व्यक्ति आलस्य-प्रमाद के वच्य, मनुष्य जन्म को व्यर्थ गंवा रहा है, वह अज्ञानी मनुष्य सोचे के थाल मे मिट्टी भर रहा है, अमृत से पर धो रहा है, श्रंष्ठ हाथी पर ईन्वचन ढो रहा है और चिन्तामणि रत्न को काय उडाने के लिए फेंक रहा है।

प्र

१५ मानंवता

१. इद मान्‌षं सर्वेषा भूताना मधु ! “ब्हदारण्यकोपनिषद्‌ २५१३ यह मानुृष्यभाव-मानवता-सव प्राणियों को मधु के समान प्रिय है २. मानवता के चार लक्षण- १. धर्म की तरफ लेजाने वाली नीति, नम्नता, निर्भयता परोयकारिता +प्लेटो ३, मानवता के चार श्रग- १. विवेकाशीलता, २. न्यायप्रियता, ३. सहिष्णुता, वीरता प्लेटो ४. मिले मोकला मिनख पणा, मिले मिनखाचार फोगट फोनोग्राम ज्यू, वाता रो व्यवहार ! सानदता की मॉग- जेनों के उत्तराध्ययन मे, वौद्धों के धम्मपद में, शकर के विवेकन्चूडामणि मे, क्रिश्चियनों के वाइविल में, मुसल- मानो के कुरान मे, वेदिको के वेदो-उपनिपदों मे, वंष्णवों के रामायण-महाभारत मे-इन सभी शास्त्रों में मानवता

की याचना की गई है २६०

पाँचवा भाग . चौथा कोष्ठक २६१

तू वकील, डाक्टर, न्यायाधीज, प्रधानमन्त्री राजा है या मनृष्य ? मा के पेट से क्‍या निकला था और आखिर तेरा क्या नाम रहेगा ? मनष्य ! यदि मनुष्य है तो फिर जीवन मे मनृष्यता को प्रधानता देती चाहिए या राक्षसीवृत्ति को ?

मनुष्य की मनुष्यता के प्रति अमानवता दूसरों को रुला

देती है -वर्न्स

बादशाह का इुशाला-

बादशाह ने वजीर को एक कीमती दुणाला दिया | वजीर से उससे ताक पोछा। किसी ने चंगली खाई। श्ञाह ने क्रद्स्‍ध होकर वजीर को वरखास्त कर दिया। मन्ुृष्यजन्म- रूप दुशाले से पाप किया गया तो मनृप्यजन्म से वरखास्त होकर नरक में जाना पडेगा।

8

१६ आश्चयंकारी मनुष्य

वीएना में एक ऐसा मनुप्य है, जो आखो से सुन सकता है एवं दवाने से उसकी आख से मीठा स्वर भी निकलता है। २. एक आदमी की गर्मी २४० वोलटर है, उसके साथ हाथ मिलाने वाले को धक्का लगता है जब वह चुटकी बजाता

है या सडक पर चलता है, तब चिनगारियाँ उछलती हैं -“विश्वमित्र, १६९५२, तवस्वर (क) जोधपुर के लूगी गाँव में एक आदमी है, जिसके दिल के नीचे की ओर तीन इच लम्बा और ढाई इच

चौडा भूरे रग की सीग है !

(ख) पूर्वी पाकिस्तान (बागला देश) के “ख,्यन” थाने के कालेवगी गाँव मेपाँच इच लम्बी पूछवाला लडका है

(ग) मिर्जापुर जिले के दक्षिणी क्षत्र में कुछ समय पहले नो फुट लम्बा एक डरावना आदमी मिला था

(घ) दक्षिणी अमेरिका के सिहगो जहर मे दो सिरवाला एक आदमो था, एक सिर कधों पर था और दूसरा काख में था, जिसमे वह कुछ बोल सकता था, काख वाले मृह से साँस लेता था पर खा नहीं सकता था “हिन्दुस्तान, मई, १६६२

स्ध्र

पाचवा भाग - चौथा कोपष्ठक २६३

है. हो

६,

(क) रोम से एक ऐसा आदमी है जो सिर के बल चलता है, तथा उसका कहना है कि उल्टे होकर देखो तो दुनिया सीधी दिखाई देगी

(ख) एशिया का सबसे लम्बा आदमी १० फुट इच है।

--सर्जना, पृष्ठ ३३ छियानवे इच की मूछ-सौराष्ट्र मे लाटी ग्राम का रहीश जाति का अहीर एवं नाम अजु डागर था। उसको मूछ

६६ इच लम्बी थी। वह १६३३ के बिदव मेल, में अमेरिका

गया था

बगाल-बेलकोबा ग्राम मे एक मनृप्य का पग २२ इच था।

७. सात अगुलि वाले-

सखेरा-डी-वीटरेगो नामक स्पेत के एक गाँव मे प्रत्येक आदमी के हाथो-पेरो के सात-सात अगुलियाँ (छ' अगुलियाँ भौर एक अयूठा) हैं उनके गादी-विवाह भी सात अग॒ली- वालो में होते है| पाँच अगुली वाले मनुष्यों को देख कर वे अचम्मा करते हैं --हिच्दुस्तात १३ जून, १६७१

८. तीन साँप खानेवाला आदमी-

व्वालियर मे सिनेमा के ओवरटाइम में एक आदमी वीन वजाकर सापों को अपने सामने खड्ा कर लेता था एव बुडका भरकर उन्हें खरा जाता था। उसने कई दिनो तक

गे साँप खाकर लोगो को चमत्कार दिखाया | -+इन्दरचन्द नवलखा से शुत्त

र्र्४ वक्‍तृत्वकला के बीज

तुर्की के इसतम्बूल शहर मे रहनेवाला अहमद नामक व्यक्ति सर्पों को जीवित ही निगल जाता है। ऊऋाविचित्रा, वर्ष ३, अक ४, १६७२ १०. जेक्शन द्वारा काले नाग का विष निकालने वाले वैद्य- वि.स १६९५ की वात है। हम कई साधु कारणवश सुजानगढ मे ठहरकर दवा ले रहे थे। वहाँ चोपडा औप- धालय में एक काला नाग निकला | वडनगर वाले वेद्य-- श्रीभमगवतीप्रसाद जी ने उसे पकड़ा एव इजेक्शन द्वारा उसकी दाढ से जहर निकाला। भाइचर्यचकित सेकडो लोगो ने उस चमत्कार को देखा पुछने पर वंद्यजी ने कहा--काले साँप का ऐसा बुद्ध जहर मिलना बहुत मृह्किल है यह समय पर अमृत का काम करता है। मरते समय जब मनुष्य की जवान बन्द हो जाती है, इसकी एक मात्रा देने पर तत्काग मनृष्य एक वार बोलने लग जाता है -“ए्रधनमुत्ति ११ विचित्र सर्प फार्स चलाने वाले अमेरिकन नवयुव॒क- अमेरिकल सवयुवक-विटेकर रौम्यूलस-जिन्हे वचपन से ही साथो से अपूर्व स्नेह रहा है, केवल वर्ष की आयु में ही सा से ऐसे हिल-मिव गये थे मानो वे उनके अतरग साथी हो | सायो के साथ इतना निकट वा लगाव होने के कारण वे १६६३ से १६६५ तक मियाभी के विश्वविख्यात सर्प-अनु- सन्धान फाम में सहकारी डाइरेक्टर वन कार्य करते रहे १६७० वर्ष के आरम्भ में विटेकर को अन्तर्राष्ट्रीय पशु-

पाँचवा भाग , चौथा कोष्ठक रद

(र्‌

१३.

संरक्षण-सस्था से आथिक सहयोग प्राप्त हुआ। फलत उन्होने मद्रास में अपना विचित्र सर्प-फार्म खोला। इस एक एकड के सर्प फार्म मे लगभग ३० जातियों के ३०० से भी अधिक साप हैं। यहाँ साँपो का जहर निकाला जाता है इसकी विष निका लने की प्रणाली भी अद्भुत एवं खतरनाक है। साप्र को एक पतली छड से जिसके सिरे पर मुंडा हुआ 'हुक' लगा होता है, सावधानी से पूरा दवोच लिया जाता है। फिर गर्दत से पकड़ कर साप को एक पतली भिल्‍्ली से मढे हुए काँच के शीशे पर डक मारने को मजबूर किया जाता है, साथ ही साथ गर्दन पर दवाव किया जाता है, जिससे मटमेले रग का तरल विष शीशे में उतर आता है। यह विष यथाज्षीघ्र वम्बई के हाफकिन इन्स्टीट्यू में भेज दिया जाता है वहाँ उसकी अल्पमात्रा धोडे के शरीर में सुई द्वारा प्रविष्ट की जाती है | क्र घोड के रक्त में जहरमोहरा पंदा हो जाता है, जिसका प्रयोग साथ द्वारा काटे हुये व्यक्ति पर किया जाता है।

--साप्ताहिक, हिन्दुस्तान, अगस्त १६७२ रूपानिया का 'करोलग्न नामक व्यक्ति अभी तक सोया है और उसको कपकी ही आई है।

“हिन्दुस्तान, १३ जून, १६७१ साठ साल से नही सोदा--भंड्िड २६ सितम्बर) कृपि-फार्म मे काम करनेवाला ८८ वर्षीय 'ेलेन्टिन

२६६ वक्‍्तृत्वकला के बोज

मेडिना' गत ६० सालो से नही सोया है। वह २४घण्टेकाम करके तिग्रुना वेतन प्राप्त करता है| मेडिना २४ घण्टो में दो बार तनाइता, दो बार लच तथा दो बार डिनर खाता है। -हिन्दुस्तान, २८ सितम्बर, १६६४

१४. जोधपुर मे 'भोपालचन्दजी लोढा' के सरकारी आरोप लगने से, दिल पर ऐसा धक्का लगा कि वे बेहोश हो गये वर्ष बाद एक दिन अचानक ताने आई और उनकी बेहोशी दूर हो गई -जोधपुर मे श्रुत

१४ भारत के प्रसिद्ध साइकिल-चालक एवं कलाकार “श्री एम. कुमार जौनपुरी' ने हिण्डौन में लगातार १०४ घण्टे तक साइकिल चलाने का प्तफल प्रदर्शन कर हजारो दर्गको की प्रशसा अजित की उनके विविध प्रदर्शनों को देखने के लिये चार दिनो तक गावों तथा नगर के हजारो लोगो का ताता लगा रहा। श्री जौनपुरी ने साइकिल चलाते हुए स्तान करना, वन्त्र बदलना, जलपान करना भादि अनेक रोचक कार्यक्रम प्रदर्शित किये

-हिन्दुस्तान, २४ अगस्त, १६७१

१६ बेल्जियम का अलाइस क्रिपी” नामक ढोल बजाने वाला सुबह बजे से जाम के वजे तक लगातार (आाघे घण्टे की खाने की छठी के अलाबा) ढोल बजाता था और इन बारह घंटों मे ५५ मील पेदल चलता था।

-सरिता, अक ३६५, सितम्बर, १६९७१

१७ पिलवर्न के विवजियम टेनरी! नेत्रह्टीन थे पन उन्होने अधेपन

पाँचवा भाग चौथा कोष्ठक रद्छ

के बावजुद अपनी जिन्दगी मे १० लाख मील की यात्रा की, इसमे से उन्होने दो लाख मील घोडे की पर यात्रा की। सरिता अक-३६५, सितम्बर १६७१

१८. पेदल चलने का नया विश्व रिकार्ड--इग्लेड के दूर पंदल यात्री ५३ वर्षीय वाकरजौनसिक्लेयर ने ऑकलेड के निकट ग्राण्ड फ्री रेस ट्रंक में लगातार चलते हुए २१८ सील ६० गज सफर किया (उसका पिछला रिकार्ड २१५ मील १६०० गज का था) उसने ५० घण्टे ४२ मिनिट लगाए -हिन्दुस्ताव, अप्रेल, १६७१

१६, ताजे-मोर्ट सनृष्य-- हु (क) अमरीका के फ्लोरिड्म के जेक्सोनविल का “चार्ल्स

स्टेन मेटज” ५२ स्टोन १२ पौंड (७४० पौड) का था। वह ३८ वर्ष की आयु में मरा | मरते समय उसकी कमर १११ इच की थी

(ख) अमरीका के उत्तरी कारोलीना का 'माइन्स डारडेन! का वजन १००० पोड था। वह फूट इंच ऊँचा था |

(ग) एक अमरीकी नीग्रो महिला दुनियाँ की सबसे भारी ओन्‍्त हैं। वह ८४० पौड की है

(घ) अमरीका के इण्डियाना का 'रौवर्ट अर्ल हाय जस' १०६७ पौड का था। अस्पताल के दरवाजों मे से उसका घुसना असम्भव था। उसके लायक कोई चारपाई भी थी -हिन्दुस्तान, ११ जुलाई, १६७०

र्ष्८ वक्‍्तृत्वकला के बीज

(ड) अमेरिका के एक आदमी का वजन ४८८ पौंड एवं उसकी स्त्री का वजन ४5८८ पौड था। पुरुष की लम्बाई पाँच फीट चार इंच थी एवं उसका सीना फीट चार इच चौडा था

२०. पाषाणयुगीन कबीला--मनीला (फिलिपाइन) से ५०० मील दक्षिण की ओर मिण्डानाओ द्वीप में एक ऐसे कबीले का पता चला है जो पाषाणयुग के लोगो की तरह रहता है। इन लोगो को भाषा का ज्ञान है, ही इन्होने कभी चावल, चीनी या रोटी खाई है और नमक चखा है। ये लोग मास या जगली घास खाते हैं एवं चमडा पहनते है। इस कवीले का नाम तासाडस है एवं विश्व में इन लोगों की सख्या बहुत ही थोडी है। इनके हथियार पत्थर या बाँस के होते हैं

-हिन्दुस्तान १० जुलाई १६७१

२१ विश्व का सबसे छोटा मनुष्य--आण्ट्र लिया निवासी जार्ज डावी का कद फूट इच अर्थात्‌ २१ १/३ अगुल का है आयु ४६ वर्ष की है। द्वितीय महायुद्ध में जार्ज एक कुभल गुप्तचर (सी आई डी) का काम करते थे। महायुद्ध के बाद उन्होने अपना अधिकाश समय होटलों में व्यतीत किया अनोखा विवाह--श्रीमती जार्ज की जार्ज से पहली भेट पेरिस मे हुई थी। उन्होने देखते ही कौतूहलवन् जार्ज को गोदी मे उठा लिया और पूछा--क््या मेरे घर चलोगे ?

पाँचवा भाग चौथा कोष्ठक २६५६

मद मुस्कान बिखेरते हुए जाज ने उत्तर दिया- तुम चाहों तो मैं आजीवन तुम्हारे पर रह सकता हूँ त्रेम जागृत

बना लिया) श्रीमती जा की कीदे फीट लबा था! इस अदभुत जोडे की दो सतानें हैं किन्तु वे दोनों माता के समान लम्बी है!

_वीर अज्जु साप्ताहिक १०९ मई १६६६ के आधार से

जिनको उन्होने

रखा था |) तिकेट के पेड प्र. उडा दिया और जब दुबारा बुलाया तो वे सारी मबुमविंखरयाँ सिलसिलेवार दाढीनुमा उनके चेहरे पर चिपक गयी मधुमविखयों को जाने और बुलाने की

१७ आश्चयेकारी मनुष्यणियां

१. १८ साल से अन्न-पानी लेने वाली मसहायोगिनी-- हैदराबाद से €० माइल दूर “यानगुदी” गाँव के निकट एक पहाडी पर साधना मे लीन माणिकस्मा नाम की एक योगिनी है | आयु ११ साल की है, १८ साल से उसने कुछ भी नहीं खाया-पीया। इस सम्बन्ध में हैदराबाद- लोकसभा के सदस्य शकरदेव विद्यालकार ने एक पुस्तक प्रकाशित की है -हिन्दुस्तान, १२ अक्टूबर, १६६३

२. जोधपुर [राजस्थान_] के एक गाँव मे एक वहन रहती थी। लोकवाणी के अनुसार वह लगभग २३ वर्ष से कुछ नहीं खाती-पीती [शरीर स्वस्थ था] वि २०२१ पौष मास मे जव वह आचार्य श्री तुलसी के दर्शन करने जोधपुर आई, तब उसे देखने का मौका मिला था “धनमुनि

दक्षिणी अफ्रीका में एक स्त्री पति की मृत्यु के समाचार सुनते ही सत्‌॒ ३१ में सोई, और सच्‌ ४१ में उठी | वह सूखकर काँटा हो गई थी उसे अस्पताल मे दो-दो घण्टे वाद खुराक दी जाती थी

र७र

जाती थी ' उसे भोजन आदि काष्ठ में दिया

जाता था जे ठर्षाक्ति उसे युवती | करता तो एक जोर ऋटका (शॉक) लगता था

६. ओहियो अमेरिका में स्वर की वस्तुएं बसनिवाले एके

कारखाने रोज कही मे कही ओोटीः आग बड़े

प्य ढंग से लगे जाती थी + मालिक ने भो “रोबिन

बीच” को जाँच (लए बुलवा भेजी सारी

बात सुतकर प्रो- साहव नें एक-एक कर सभी मजदूरों की चातु की एक चादर पर खडे होने के लिए, कहा मजदूरों में एक जवान औरत जब धीर्द की चादर पर आकर खडी हुई तो अचानई मीटर की सुई ने एक गहरी छलांग लगाई उसके शरीर में २११९९” बोल्ट की लेक्ट्री- स्टेटिक विजली और ४९० ५० एच- एम- एस. की प्रतिरोध शक्ति (रेसिस्टेंट) मौजूद थी।

श्८ज

२७४ वक्‍्तृत्वकला के बीज प्रो. बीच ने घोषणा की-“इस कारखाने मे अग्नि-विस्फोट की जड यहो है।” -विचित्रा वर्ष ३, अंक ४, १६७१

आस्ट्रिया के ड्यूक फ्रंडरिक पचम की पत्ती के हाथ इतने मजबूत थे कि वह लकडी के मोर तख्ते में मुक्का मारकर कील ठोक देती थो

-सरिता, सितम्बर अंक ३९५, १६७१

प्र

मय में ज्ञातव्य बातें-

सनुष्य के विष साबुन की सीते टिंकियाँ

१८, के शरीर में भप्ते चर्बी से सी बनायी जा सकती हैं ' २. मनुष्य के शरीर में इतना जल होता है कि उससे दस गैलन का वर्तेन भर सकता हैं मनुष्य के शरीर से भरते कार्वत से सुरस्‍्मे की नौ हजीर पेसिले बनाई जा सकती हैं के शरीर की यदि चमडी उचेडी जाय तो वह साढे अठारह वर्ग फुट होगी का दिल रेए चण्टों में * ०३ईिपथे वीर घडकता है ' के शरीर को कडा भाग दातें के ऊपर की

पालिश हाती है मच्छर को अगारे के सभी लाल दिखाई

७. मनुष्य की शरीर ००४३४ रे सैटीमीटर

पर. मनुष्य

देता है मनुष्य के नाखून २४ घण्टों में बढते हैं मनुष्य के वाल रऐ४ घण्टे में १०००१४७ सैंटीमीटर बढ्ते हैं। १८. मनुष्य क्वे दो लाख बालो की चुटिया से बीस देने उठाया जी सकता हैं

रछप्‌

२७६ वक्‍्तृत्वकला के बीज

११

१२. - मनृप्य के शरीर मे ७५० मास-पेशियाँ होती है

१४. ४. मनुष्य के बालव नाखून काटते समय दर्द इसलिए नही

नप्फ

१६

१७.

श्८.

१६

२१.

र्‌र.

मनुष्य की धमनियों मे रक्त की गति सात मील प्रति घण्टा है मनुष्य के शरीर में कुल २०६ हडिडयाँ होती है

मनष्य के नेत्र एक मिनट में पच्चीस बार भपकते हैं

होता कि उनमें नें नही होती ! मनष्य के फेफडो मे लगभग १०,६०,००,००० छेद है मनृष्य की आँखे दूरदर्शक यन्त्र से ३००० तारे देख सकती हैं मनुष्प के हाथ की पॉचो अंगुलियों पर बराबर चोटे की जायें तो बीच की उगली पर सबसे अधिक चोट लगेगी मनुष्य के मस्तिष्क का वजन तीन पौंड और स्त्री के मस्तिष्क का वजन दो पौंड होता है मनुष्य के दिमाग तथा हड्डियो पर भोजन की कमी का कोई प्रभाव नही होता

-दीनदयाल डीडवानिया, सर्जना, पृष्ठ ४६

मनुष्य समुद्र में ४२० फूट डुबकी लगा सकता है “विश्वदर्षण, पृ. ४०

जब शरीर के ७२ पुट्ठे एक साथ अपना कार्य करते है तब ही मनुष्य एक गव्द बोल पाता है

. मनुष्य हारा खासी से निकली हवा का वेग २४५ मील

प्रति घण्टा होता है। >सरिता, सितम्बर, अंक ३६५, १६७१

१. सनुष्यलोक

३. जैन-आगमाजुसार सतुष्यलोक7 जहाँ हम रहते हैं. वह रत्न प्रभा व्री की छत है उसके मध्य में सुदर्शत नीम का भेरुपर्वेत हैं उसके ठीक बीच मे गोस्तव के आकीर के आठ रुचक-प्रदेश हैं बहाँ से नव सौ योजन ऊपर और. लव सौ योजन नीचे ऐसे अठारह सौ योजन का मोटा एवं एक रज्जु-जैंसेड्य योजन का लम्बा: चौडा मध्यलोक-तिरछालोंक है। मध्यलोक की सीमा से ऊपर ऊर्वलोक हैं और नीचे अधोलोक है! मध्यलोक में जम्बू आदि असख्य हीप हैं और लवरा आदि अस समुद्र हें जम्बूहीप, घातकीखण्डदीप और अर्धपुप्करदीप, ऐसे ढाई द्वीपो में तथों लवशसमझंद्र के कुछ भोग मे मनुष्यों का निवीस है इसी की ताम मनुष्यलोक है यह पैतालीस लॉ योजन विस्ताखाला है इसको चारो

तरफ से चेरे हुए. भा पर्वत हैं जम्बूद्वीप में भरत आदि सात क्षेत्र है!

(१) देखिए लोकंत्रकाश पुज ४)

२७3

र्छ८ वक्‍तृत्वकला के बीज

; मनुष्यों की सं मु २. मनुष्यों की संख्या--जेन शास्त्रानुसार मनृष्यलोक में सज्ञी-मनुष्यो की सख्या उनत्तीस अद्धी जितनी मानी गयी है वे अड्धू इस प्रकार हैं-- ७६२२८५१६२, ५१४२६४३, २७५६३५४, २३६ प्०३३६॥। --अनुयोगद्वार, प्रसाणाधिकारसूत्र ६०

फ्रा

२०, वज्ञानिकों के मतानुसार पृथ्वी आदि का जन्मकाल

पृथ्वी का जन्मकाल २०० करोड वर्ष पूर्व, प्राणियों का उद्भव ३० करोड वर्ष पूर्व, मनुष्यो का जन्म तीस लाख वर्ष पूर्व, ज्योतिष विद्या तीस हजार वर्ष पूर्व, दूरवीक्षण यस्त्र आधुनिक विज्ञान ३०० वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए

--सर जेम्स जीम्स “बेंगश्ी” से

भू-शास्त्री जेली के मतानुसार सागर की न्यूनतम आयु ७० करोड एवं अधिकतम दो अरब ३५ करोड वर्ष निश्चित की गई है | शैल-प्रमाणों से तथा हिलियम विधि से पृथ्वी की आयु दो भरव वर्ष से अधिक मानों गई हैं खगोलीय आधारो पर पृथ्वी की आयु दस अरब वर्ष, सूर्य की आठ अरब वर्ष, चन्धरमा की चार अरब वर्ष लगभग मानी गई है 'हेरोल्ड जेफरीस' के मतानुसार आज से लगभग चार अरब वर्ष पूर्व चन्द्रमा पृथ्वी से आठ हजार मील दूर था किन्तु दूरी बढते-वबढते आज लगभग ढाई लाख मील दूर हो गया “-तवनारत, मार्च, १६६६

-किदारनाथ प्रभाकर, सहारनपुर) २७६

र्‌८०

रे.

वक्‍्तृत्वकला के वीज

भूगर्भ संसार की खोज-- विख्यात शोधक और लेखक “डा. रेमोण्ड बरनाड ए. बी. एम पी-एच डी. न्यूयार्क विश्वविद्यालय” अपनी नवीन पुस्तक दी हॉलो अर्थ मे लिखते हैं कि-उडन चक्रियो का असली गृह एक विज्ञाल भूगर्भ-संसार है, जिसका प्रवेशद्वार उत्तरीय ध्रुव के एक मुखद्वार मे है। पृथ्वी के खोखले अन्तरिक्ष मे एक मानवोत्तर जाति निवास करती है। जो सतह पर रहनेवाले मनृष्यो से कोई सम्बन्ध रखना नही चाहती ! उसने अपन्ती उडनचक्रियो को तभी उडाना प्रारम्भ किया, जब मनुष्यों ने अणुबमो के विस्फोटो से दुनियाँ को त्रस्त कर दिया | डा बरनाड आगे लिखते हे कि एडमीरल वार्ड ने एक नौकादल को उक्त ध्रोवीय मुखद्वार मे प्रवेश करने का अधिनायकत्व किया तथा इस श्रृगर्भस्थित लोक मे पहुँचे यह लोक तृपार और हिम से स्वतन्त्र है। इसमे जगलाच्छादित पर्वत श्र णी है। भीले, नदियाँ वनस्पति तथा विचित्र पश्नु भी है। इस आविष्कार के समाचार को अमरीका सरकार ने रोक लिया, जिससे दूसरे देश भवान्तरीण लोक पर हक कायम कर लें। इस श्ृगर्भ लोक का क्षेत्र उत्तरीय अमेरिका क्षेत्र से अधिक विस्तृत है। पृथ्वी की सतह से ५०० मील नीचे एक नवीन ससार की खोज मानठ इतिहास की महानतम खोज है, जिसमे लाखों उच्चतर बुद्धिमान लोग निवास करते हैं

-मोहन, बाठिया “चचल जैनभारती, नवम्बर, १६६५

डेढ करोड दो हजार वर्ष पूर्व के युग में यह जनसख्या १? रोड हो गई ईसवी सन्‌ १६५० में पचास करोड १७५३ में करोड २०४४ मे एक अरब, १६०० में डेढ अरब आर १६५" में डेढ से तीत अरब हो गई अक रेरे सयुक्त रद रिपोर्ट के अनुसार सन १६६३ के

प्‌, विध्व में प्रति घटा (२३०० मनुष्य पैदा होते हैं और, ५५०० मरते दे _-हिन्दुस्तान, पते अगस्त, ९६५५

श्फर

र्पर वक्‍तृत्वकला के बीज

६. विश्व में प्रति मिनट ५६, प्रतिदिन ५५ हजार और प्रतिवर्ष

करोड गर्भपात कराये जाते है -नवभारत, सितम्बर, १६७१

७. विश्व के महासागर एवं महाद्वीप--

- १: वेज्ञानिको की हृष्टि मे इस हृश्यमान पृथ्वी के घरातल का १/३ भाग स्थल है और २/३ भाग जल है। स्थल के बडे-बडे खण्ड है जिन्हे महाद्वीप कहते तथा जल के बडे-बडे खण्ड है, जिन्हे महासागर कहते है !

२. महासागर के नाम क्षेत्रफल वर्गमीलो मे १-प्रणान्‍्त महासागर ६,१०,०१६६८ २-अन्ध महासागर ३,१०,३६,३०६ ३-हिन्द महासागर २,८३,५६,२७६ ४-उत्तरी ध्रुव महासागर ]

प्र४८ ४०,१६३ भ-दक्षिणी प्रव महासागर (आरकंटिक महासागर)

३. महाद्वीपो के नाम श्त्रफल (वर्गमील) जनसख्या (७० ) १-एशिया १,७४,६१,५८३३ १,६६,६१,६५,७८६ २-अफ्रीका १,१६,६६,५ ३४,०६,८१,६६६ ३-यूरोप ३५,रए,उभप्‌ ७०,२४,६६,६४४५

४-उत्तरी अमेरिका ६३,५७,०२६ प-दक्षिणी अमेरिका ६5,६५,०६८ ६-आस्ट लिया ३३,०३,००२ २,००,०१,६२८ ७-अटार्कटिका ५१,००,०००. आवाद नही है।

| ४६,६१,२४,७६७

र्‌प४ वक्‍तृत्वकला के बीज

इस महाद्वीप के अन्तर्गत मिश्र देश में सन्‌ १५६६ में स्वेज स्थल-डमरूमध्य” को काट कर १६० किलोमीटर लम्बी जहाजी-नहर बनाई गई उसका नाम स्वेज नहर है। वह रक्तलागर और रूमसागर को मिलाती है। उसके बनने से पहले यूरोप से भारत आदि पहुचने के लिये सारे अफ्रीका महाद्वीप का चक्कर लगाना पडता था | अब ७००० किलो मीटर की बचत हो गई है

& यूरोप--महाद्वीप यूरोप एशिया के पश्चिम मे और अफ्रीका के उत्तर की ओर स्थित है। वास्तव में यूरोप और एशिया एक ही महान्‌ भू भाग है, जिसे यूरेशिया कहते है यूरोप के उत्तर मे उत्तरी ध्रुव सागर है, दक्षिण मे रूम सागर, कृष्ण सागर और काफ पर्वत है, पश्चिम की ओर अन्ध महासागर है और पूर्व में केस्पियन सागर, यूराल पर्वत गौर एशिया महाद्वीप है। यह महाद्वीप आस्ट्रेलिया को छोडकर गेष सभी महाद्वीपो से छोटा है. परन्तु धन-सम्पत्ति, व्यापार, शिक्षा-दींक्षा और सामाजिक उन्नति की दृष्टि से ससार भर में सबसे प्रथम स्थान पर है।

उत्तरो अमेरिका-यह संसार के सात-महाह्वीपरों मे तीसरा सबसे बडा महाद्वीप है। सिर्फ एशिया और अफ्रीका ही क्षत्र मे इससे बडे हैं। जनसंख्या की हृष्टि

नोद स्थल डसमरूमध्य--ऐसे तंग भू भाग को कहते हैं, जो दो बड़े भू भागों को जोइता है

पाँचवा भाग - चौथा कोष्ठक र्षप्‌

से भी इसका नम्वर एशिया और यूरोप के बाद तीसरा है।.. उत्तरी अमेरिका अनेक देशो मे बटा हुआ है। उनमे सबसे बडा कनाडा है। उसके बाद सयुक्‍त राज्य अमेरीका है। (जिसके अन्तर्गत ५० राज्य हैं। इसीलिए इसके राष्ट्रध्वज पर ५० सितारे लगाये गये हैं।) भन्‍्य देश काफी छोटे है

& दक्षिणी असरोका-दक्षिणी अमरीका महाद्वीप उत्तरी अमरीका से छोटा हैं, किन्तु यूरोप से लगभग दुगना है। दक्षिणी अमरीका छोटे-बडे अनेक देशो मे विभक्त है। इनमे सभी तरह के देश हैं सबसे बडा देश ब्राजील जो सबसे छोटे देश फ्रच गायना से लगभग २००० ग्रुत्ता है। इन देशो मे स्पेनी और पुर्तगाली भाषाओं का प्रयोग होता है। ये दोनो ही भाषाएँ लेटिन भाषा से निकली हैं इसीलिए इन्हे लातिन-अमरीकी देश कहा जाता है

& सध्य अमरोफा--उत्तरी अमरीका का मेक्सिको से दक्षिर वाला पत्तलानसा भाग दक्षिणी अमरीका तक चला गया है इस भाग को मध्य अमरीका कहते है | मध्य अमरीका में मेक्सिको आदि अनेक देश है लगभग दस मील चौडी जमीन की पट्टी, जिसमे से होकर पत्रामानहर बहती है, अमेरिका के अधिकार मे है मध्य अमेरिका के अधिकतर निवासी पूर्ण या आशिक रूप से इंडियन-आदिवासी हैं

& आस्टू लिया--यूरोप वालो को आस्ट्रेलिया महाद्वीप का पता सब महाद्वीपो के अंत्त मे लगा | सन्‌ १७७० में कप्तान

२८६

वक्‍तृत्वकला के वौज

कुक ने इसकी खोज की ! यहाँ विशेष रूप से गेह की खेती होती है और सोने-ताँबे-चाँदी शीशे आदि की खाने हैं तथा भेडो को बडे पेमाने पर पाला जाता है। कुल मिलाकर यहाँ १३००००००० भेडे है। दुनियाँ की एक तिहाई ऊन आस्ट्र लिया से ही आती है। “नवीन राष्ट्रीय एटलस तथा सचित्र विव्वकोश

भाग १० के आधार से-

वर्तमान विश्व के देश, उनको जनसंख्या एव राजघानियाँ-

(एशिया--जनसंख्या १,६६,६१,६५,७८९)

छू 0 #८ ८७८ #ए 0) «७

डी

१०. ११. (२.

देश जनस ख्या अफगानिस्तान १,६०,००,००० वबहराइन २,०२,००० « ब्रुनेई १,५०,००० वर्मा २,६३,६०,००० कम्बोडिया ६६,६०, ००० श्रीलका १,२५,००,०००

चीन (जनवादी) ७४,००,००,०००

« चीन (गणतन्त्र १,४४८,७६,४७८

ताइवान)

« होगकोग ४०,र३२६,७०० भारत ५३,७०,००,००० इडोनेथिया ११,३०,००,००० ईरान २,६६,६५,०००

राजधानी काबुल वहराइन ब्र नेई रगुन नोमपेन्ह कोलम्ब्रो पेकिंग ताईपेई

होगकोग नई दिल्‍ली जवार्ता तेहरान

पाँचवा भाग * चौथा कोष्ठक

१३ ईराक

१४ इजरायल

१भू जापान

१६. जॉर्डन

१७ कोरिया (उत्तरी) १८ कोरिया (दक्षिणी) १६ कुवेत

२०. लाओस

२१ लेबनान

२९२ मकाऊ

मलयेशिया

२४ मालदीव

२५ मगोलिया

२६ मस्कट एवं अमन २७ नेपाल

२८ पाकिस्तान

२६ फिलिपिन्स

३० बवेटर

३१. रयूवयू द्वीपसमूह ३२ सऊदी भरव ३३ सिगापुर

३४. दक्षिण यमन (गणराज्य)१३/००,००९

३५. सीरिया

लि अप मम 8 अल अभी इस्लामाबाद

र्८३9

वगदाद जेख्शलम टोकियों अम्मान प्योगयाग सियोल कुवेत विय्वेनतियान बेरुत मकाऊ कुआलालम्पुर माले ऊलानवातर ओमन काठमाँडू रावलपिंडी” मनीला डोहा ओकितनावा रियाघ सिंगापुर अदन दमिश्क

र्पद

३६.

३७ डेध

३६.

है]

४१ ४२

४३. ४४. ४५.

४६

सवाह (मलयेशिया) ६,१६,००० सारावाक(मलेशिया) ६,४५,०६१ थाइलेड ३३,७००,००० तिमोर(पुर्वगाली ठापू). ५,६०,००७ आवृूधावी (ब्रिटिश उपनिवेश) सारजाह [ब्रि उ.) ण्ट दुबाई टापू (ब्रि. उ.) ्ट्की ३,३५,४५,०००

वियतनाम उत्तरी २,१०,९०,००० वियतनाम (दर््षिणी) १,७४,६०,००० यमन ६०,००,०५००

२. (अफ्रीका--जनसख्या ३४६६७१६६६)

खि &छ #>€ 06

ना 0

अफार्स एन्‍्ड १,५०,००० इसास (फ्रंच)

अलजीरिया १,२६,४८ ०००

अगोला प्र३,६२,०२०

एसेंसियनद्वीप (ब्रिटिश) १,६७२ बोट्सस्वाना ६,२०,००० बुरुष्डी ३४,७५,०००

के मेरून ५५,७०,००० केनेरीद्वीप समूह १२,५०,००० केपवर्ड द्वीपसमृह २,४५४ ४१४

« मध्यअफ्रीकन गणराज्य १५,००,०००

घकक्‍तुृत्वकला फे बीज

कोटाकिनवालू कूच्गि

वेकाक

डिलि आवृधावी

सरजा दुबाई

अकारा हनोई सेगौन साना

जिबूटी

अल्जीयर्स लुआन्डा एसेंसियन गवरुत बुजुम्वरा याउण्डा ट्नेरिफ प्राईमआा वागुई

पाँचवा भाग चौथा कोष्ठक

११.

२. कोमरो द्वीप समूह

१३

१४ १५

१६ १्छ

चाड

कागो जनवादी गणतत्र

कागो गणराज्य संयुक्त अरब गणराज्य

गिनी गणराज्य इंथियोपिया गेवन

गौस्विया

घाना

गिनी पुर्तगीज गिनी

. आइवबरी कोस्ट

केन्या लिसोथो लाइवेरिया लिविया मेडरा मेलेगासी मेडागास्कर मलावी

४०,० 30०० २,६१,३८२

दृ८घ,००,०००

८,८घ०,०००

लाए

हि २० +0०,००० २,८5२,००० बरः ३४ #7०,००० ४, ८०,०२० ३,५१,००० प२,०२,००० ;१,४३०,००० इ३८५,००,००० ४१,२०,००० १,१०,००,००० ६,१२,००० ११,३२,५०० १८,०८,००० २,७०,०००

छठ #20०0,00०0

४४, ध्प )९००

सर्प 8 फोर्टलामी

कोमोस किनशाशा

ब्राजाविले काहिरा

फर्नान्‍डोपो आदिस अबावा लिब्न विले वार्थेस्ट

अकरा

विसाड कोनाक़ी

आविदजान नरोबी मासेरू मोनरोविया तिपोली फूचल तैनानारिव

ब्लान्ट्रीयर

३१ माली

३५ मौरीतानिया ३३ मारीशश ३४ मोरकक्‍्को ३४५ मोजाम्बिक ३६ नाइजर ३७ नाइजीरिया ३८ रयूनियन ३९ रोडेशिया ४० रवाण्डा ४१ सहारा

४२ साओटॉम एप्रिसिप

४३ सेनेगाल ४४. सिचेलीज

४५. सियरोलियोन

४६ सोमाली

४७ दक्षिण अफ्रीका

४८ संटहेलेना ४९ सूडान ५० स्वाजीलेंड प्र१ ताजानिया ५२ टोगो

प२, ट्रिस्ट्न-डान्कुन्हा

भ४८ टुयूनीशिया

'४८५,००,०००

१५,००,०००

८छ,२०,००० १,५०,००,००० ७२ | प्र 30०० 0 300,00० ६,२६,५०,००० ४,२५,०००

प१ ८८,४००

३५,००,०००

६५,४०० ३६,७२ ००० ४६,५०० २३,००,०००

२७,४५४ 3०००

१,६२,००,०००

४,८१५

१2,४७,७४५,०००

१४,००,००० 9 कि ६,००,००० १६,५५,६१६

७१५

४६, ६०,०००

ववक्‍्तृत्वकला के बीज

बोमाको

नोवाकचोट मारीशग रवात लोरेंसमार्किस नियामी ला रस लारियूनियन सालीसवरी किगाली आइडन साओटॉम डकार विवटोरिया फ्रीटाउन मोगा्ीज्षु जोहासवर्ग सेंट्टैलिना ओमडर्मन मबावान दारेस्मलाम लोम ट्स्विनन्डा-झुन्हा ट्यूनिश

पांचवा भाग * चौथा कोष्ठक

श्र ५द्‌ ५७ प्र्८

यूरोप-जनसख्या ७२ २४,६६, ६४४५

हु

शा

यूगाडा घ८घ१,४०,००० अपरवोल्टा ५१,५६,००० जाम्विया ४०,६४,००० डहोमी २५,७२,०००

अल्वानिया २०,२०,००० अण्डोरा ल१७,२२० आश्दिया छ७३,६१,००० अजोस [पुत॑० उप०) ३,५०,००० बेल्जियम 8६,६१,००० बलगारिया ८४,७६,२०६ साइप्रस ६,२५,००० चेकोस्लोवेकिया १,४४,७४,७०४ डेन्माक ४६,०७,०००

फारोई द्वीपसमूह (डेनिश) ३८,३०० फिनलैण्ड फ्रास

जमंनी (पश्चिमी) ६,१ ४,२६,००० जमंनी (पूर्वी) १,७०,०४,०९०

४६,६५,०००

४१,०७,००,०००

जिश्ाल्टर २४,३००

ग्रंट् ब्रिटेन ५,४५,२ १,२०० गीस (यूनान) हार्लेंड

८घ६,००,०००

है ३० डे ड४७

२६१

कम्पाला ओगाडोगू लुसाका कांटोनू

तिराना अण्डोरा वियेना अजोर्स ब्रसेल्स सोफिया निकोसिया प्राग कोपेनहैगन तोरशावन हेलमिकी पेरिस बोन चलन

एथेस हिल्वरमम

२९२

रए २) » ०७

१६९ हगरोी

२०, आइसलेंड २१. आयरलंड २२ इठली २३. लक्सम्बर्ग २४ माल्टा २४५. मोनाको २६ नावें

२७, पो्लंड

२८. पुत्त गाल २६. रूमानिया ३० सानमारिनो ३१. स्पेन

३२. स्वीडन ३३. स्विट्जरलेड ३४. सोवियतरूस ३५, धाटिकन ३६ यूगोस्लाविया

१,०३,००,००० २,०३, २६५ २६,२२,००० ४,४६,० १,६८३ ३,३६,१०० ३,२५,५१३ २३,१०० ३०,६६,४६५ ३२,७२७, ६०० &६५ +7 प्र +7?००

30०,००,०००

हे ३५ +0०९,००० ८०,४०,२०८ ६२,००,००० २४, ००,००,००० १,०००

हर 5 09 रू ॥। हे ्े # 4 0.0९

बक्‍्तुत्वकला के थीः

घुडापेस्ट

रेइकजावेक डब्लिन रोम लक्सम्वर्ग माल्टा मोन्टेकारलो ओस्लो वारसा लिस्थन बुखारेस्ट सानमारिनों मेड्िड स्टाकहोम वन

मास्को वाटिकन बेलग्र

४. उत्तरी अमेरिका-जनसंख्या २२९,४४,५६, १००

कनाडा ग्रीनलेंड

बरमूडा (ब्रिटिण)

२७,०००

२,१२,७७,०००

४०,६००

सेटपियरेटमाइक्वेलन (फ्रत्त)

हेमिल्टन ओटावा गुडथाव

जे का | #

पाँचवा भाग चौथा कोष्ठक २६३ संयुक्त राज्य अमेरिका २०,२६,७६,००० वाशिंगटन प्‌. दक्षिणी अमेरिका-जनसख्या १८,२६,१७,२०८ अजेन्टाइना २,३६,२०,०००.. व्युनसआयसे बवोलिविया ड४ड,४१,००० लापाज ३. ब्राजील ६,१०,००,००० रियोडिजनेरो ४. चिलो ६३,५२,००० सौंदियागो ५. कोलविया १,६८,२८,००० बोगोठटा इवबवेडोर ५७,००,००० क्विटो ७. फाकलेड द्वीपसमूह २,०६८ स्टानले गायना ७,१८,११० जाज टाउन फ्रंच गायना ४५,००० कायेने १० पैराग्रुए २२,२५,५०० असुस्सियन ११ पेरू १,२७,७५,००० लीमा १२ सुरीनाम ३,७५,५००. पैरामेरिवों यूरग्वे २८,२५,००० मोटिविडियो १४. वेनुजुएला ६७,००,००० करेकस ६. सध्य अमेरिका एवं केरेबियन द्वीप जनसख्या-८५,६०,५१,४८६ कोस्टारिका १६,६५,००० सानजोस अलसल्वाडोर ३२,६७,५०० सनतमल्वाडोर ग्वाटेमाले ४८5,६४,००० ग्वाटेमाला होडदुरास (ब्रिटिण) १,२०,००० बेलिज

होडुरास

२9५,३६,०००

तेयूशिगल्पा

२९४

१० ११ १२

मेक्सिको निकाराग्रुआ पनामा बहामास वबारबडोस बयूवा डोमिनिकन (रिपब्लिको) गुआडेलूप हैटी

जरमका लीवार्ड द्वीप समूह मार्टीनीक्यू

, नेदरलंण्ड्स एटिल्स

प्यूरटोरिको

४,६०,००००० १८, ४४,००० १३,७२,०००

१,६८,००० २,* 30०० छः, १०,०००

४०,११,*८६

३,३६,००० ४६,७७,००० १६,१५,००० १,७५,००० 3,३४,००० २,१५,०००

झ् (४७,००, ७००

ट्रिनिडाड एड टोवेगों १०,३ १,००० टर्क एन्ड केकम द्वीप समूह ५5९० वर्जिन हीपसमूह (ब्रिटिश) ६५,६००० ब्जिन-द्वीपसमूह (अमेस्किन)

६१,००० विडवार्ड द्वीपसमूह ३,७३,००० एंगुइला ७,०००

वक्‍्तृत्वकला के बीज

मेक्सिको मानाग्रुआा पनामा नसाऊ बारवंडोस हवाना सेटोडोमिगो

अनु विले केपहेटियन किग्सटन अटीगुमा

फोर्ट डिफ्रास बोनारी

हाटोरे

पोर्ट ऑफ स्पेन ग्रेंडटर्का टोस्टोला

सेट टामस ग्रनदा

एग्रुइला

__-बल्ड रेडियों गो वी. हैंडबुक १६७१ सस्करण

पाचवा भाग * चौथा कोष्ठक श्ध्प्र

आस्ट लिया एव प्रशास्त-सहासागरीय-देश जनसंख्या-२,००,०१,९४८-:

देश जनसख्या राजधानी आस्ट्रेलिया १,२५,५१,३०० केनवरा कुक्द्वीपसमूह २०,६५० रारोटोगा ३. फिजी 7१,०७,००० सूवा

छालवर्ट एवं एलिस द्वीप समूह (अमेरिकन) प्५,२०० ताराबवा

हे पा ५. गुआम १,६०,००० गुआम ढ़ हवाई ८,४१,००० .. होनोबूलू फ़ , माइकोनेशिया ६६,००० [कई हे] टोगा 5१,५०० न्युकुओल्फा न्यू केलेडोनिया (फ़ेंच) ६१५००९ नोमिया १० न्यू हेब्राइड्स ८०,४०० विला ११ न्यूजीलंण्ड २८,१०,१०० वेलिगटन | १२० नाऊछ ६,६०२ नाऊल 2 (८ नव पध्ध [5 नीयूहीप 9,३४० नीयूहीप क्षिछ १४ नोरफो के ढीप १,५२५... किगस्टन _|ह ५५ पापुआ एवं न्यू गिनीया (आस्ट्र लिया) २३,००,००० कोनेडेयू २१६ समोआ २७,००० पागोपागो 2 ्य पा __ छि 6६

१७ समोना (पश्चिमी) 9 ४६,००० आपिया

जा वक्‍्तृत्वकला के बीज

१८ सोलोमन द्वीपसमूह (ब्रिटिश) १,४२,००० होनियारा

१६. ताहिती (फच) १,०५,००० पापीति अंदार्कटिका-- इसमे कोई आबादी नहीं है। इसके निकटवर्ती नावें देश में स्थित न्ोडकिन अन्तरीप मे महीने दिन-रात सुरज चमकता रहता है और महीने सूरज दिन मे भी दिखाई नही देता।

& उपरोवत गणना के अनुसार वत्त मान विश्व मे २०३ राष्ट्रों की स्थिति इस प्रकार है-- एशिया मे ४६, अफ्रीका मे ५४८ यूरोप में ३६, उत्तरी, दक्षिणी एवं मध्य अमेरिका मे ४४ एवं आस्ट्रंलिया में १९ (सभव है कि कई राष्ट्‌ गणना मे नही भी सके हो ।) ६. वर्तमान विश्व की लम्बी नदियाँ--

कऋ० नदी लम्बाई (मोलो मे) नील (मिश्र) ४०३७ मिसीसिपी (उ० अमेरिका) ३६८३ अमेजन (ब्राजील) ३६६० ४. याग्टीसीक्याग (चीन) ३२०० ५. ओव (सोवियत सघ) ३२०० कागो (कागो) ३००० लीना (रूस) २००० ८, ग्रेनिसिई (सोवियत संघ-लस) ४८६००

772

अमूर (सोवियत सघ चीन) श्‌ध००

पाँचवा भाग * चौथा कोष्ठक र€७

१० परानाला प्लाता [ब्राजील-अर्जन्टीना) २७२० ११. वोल्गा (रूस) २४०० श्र डन्यूब (यूरोप) श्ज्र्प्‌ १३. सिंघ (पाकिस्तान) १७०० १४ ब्रह्मपुत्र (भारत) ६६८० १५. गगा (भारत) २५००

>>सचित्॒ विश्वकोश भाग तथा हिन्दुस्तान २१-२-७१

ववतृत्वकला के बीज

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चौथा कोष्ठक

पांचवा भाग

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पौँचवां भाग - चौथा कोष्ठक

११ संसार के बड़े शहर और उनकी आबादी

शहर

न्यूयाक

न्यूयाक (जहर) तोकियों

तोकियो (जहर) व्यूनस आयर्स व्यूनस आय (हर) पेरिस

पेरिस (शहर) लन्दन

मास्की

मास्को (शहर) कलकत्ता कलकत्ता (शहर) शंघाई

लास एजिल्स लास एजिल्म (शहर ) लॉगबीच लागबीच (शहर) दिकागों

लिकामो डिहर) बम्वई फिलडेल्फिया

२०१

देश आबादी यू एस ए- १,१५,२०,६०० ७६ ,६४,२०७ जापान १,१३,५०,००९ ६०,९१२,००९ अजेंण्टीना ६०,७०,००० ३५/४६९६,००० फ्राम ८घ१,६६,७४४ २५,६०,७७१ ग्नोट व्विटेन ७७,६३,८००९ मल ७०,६५१,००० द्‌ ह्ड्रे 30०० भारत ७०,५४०, परे ३१ ,४र »+१८० चीन ६६,००,००० यू एस. ए-« ६८,४६३६०९९ २४,७६,०१४ ६८,४६,५०० ड४,२ दु्द् यूएस ए. विज ३४,२०५ +र१र भारत ५६,६८,४ ४६

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यू एस. ए.

ववतृत्वकला के बीज

फिलडेल्फिया (जहर) २०,३२,४०० काहिरा से अरब गणराज्य ४२,२५,७०० रिज्रोडेजेनरिओ ब्राजील ४२,०७,३२२ पीकिंग चीन ४०,१०,००० लेनिनग्राद रूस ३६,५०,००० लेनिनमाद (शहर) ३५,१३,००० सियोल कोरिया (द) ३७,६४, ६४५६ दिल्ली भारत ३६,२६,८४२ दिल्‍ली (जहर) ३२,७६,६५५ मेक्सिको यू एस ३४,८५३, ६४६ ओसाका जापान ३०,७८,०००

जिन गहरो के नास दो बार लिखे हैं, उन में प्रथम के साथ दी गई जब संख्या मे वहाँ के अन्तर्गत आनेवानी आमीण आबादी भी सम्मिलित है। | (साप्ताहिक हिन्दुस्तान, १० अक्तुबर, १६७१) १२. वर्तमान विश्व के निरक्षर और श्रंघो को संख्या निरक्षर--यद्यपि पिछले बीस वर्षो मे ६० करोड व्यक्तियों को साक्षर बनाया गया है, तथापि यूनेस्को-रिपोर्ट के अनु- सार दुनिया मे आज निरक्षरों की सख्या ७५,३०,००,००० है | उक्त रिपोर्ट का यह भी कहना है कि सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद अगले ३० वर्षो मे भी दुनिया में ६५,००,००,००० लोग निरक्षर ही बने रहेगे निरक्षरता व्यापक रूप से, अफ्रीका, एणिया और लेटिन

पाँचवा भाग * चौथा कोष्ठक ३०३

अमरीका में डेरा जमाये है। ये वे ही महाद्वीप है, जो विदेशी-प्रभुत्व के अन्तर्गत थे

-हिन्दुस्तान, सितम्बर १६७१

अन्धे--आज के विश्व मे अधो की कुल सस्या करोड है, जबकि अकेले भारत मे उनकी सख्या ४५ से ५० लाख के लगभग है | भारतीय चिकित्सा अनुसघान परिपद्‌ के सर्वेक्षण के अनुसार मैसूरराज्य मे अधो की संख्या सवसे अधिक है। सर्वेक्षण से पता चला है कि भारत में अन्घेपन का शुरूय कारण रोहा, कोदवा, मोतियाविन्द, ग्लाकोमा, अलसर जेसी बीमारियो के अलावा पौष्टिक खाद्य की कमी भी है

“हिन्दुस्तान अक्टूबर १६७१

१३- विश्व के प्रलयकारी भुकरप

९. एक अमरीकी सर्वेक्षण के अनुसार पिछली शताब्दियो में कलकत्ता को, भूकम्प के कारण, सर्वाधिक विनाश सहना पडा है। कलकत्ता क्षेत्र मे ११ अक्टूबर १६३७ में

आये भूकम्प में ३,००,००० व्यक्ति मौत के शिकार हुये थे

२. विश्व के इतिहास में सबसे भयानक भूकम्प २४ जनवरी १९५५ई कोचोनके णगासी नामक स्थान में आाया था, जिसमे ८,३०,००० व्यक्ति मरे थे इस णताव्ये के आरम्भ में पुन चीन एक भयकर श्रृकम्प का शिकार हुआ | १६ दिसम्बर १६२० को कासू प्रान्त में आये भ्रूकम्प में १,८०,००० व्यक्ति मौत्त के शिकार हुए थे

३०४ बक्तृत्वकला के बीज

भारतीय द्वीप मे इस शताब्दी का सबसे अधिक विनाश- कारी भूकम्प क्‍्वेटा में ३१ मई १६३५ को आया था। यह स्थान अब पाकिस्तान मे हैं इसमे ६०,०००व्यक्ति मारे गये थे

अभी ३० मई सन्‌ १६७० को पेरू मैं आया हुआ भृकम्प हाल के वर्षो में आये हुए भूकम्पो में सबसे अधिक विनाशकारी भूकम्प कहा जाता है। इसमे लाख व्यक्तियों के मरने का अनुमान है | “नवभारत टाइम्स, जून १६७०

२२ भारत एजिया महाद्वीप मे स्थित यह भारत एक विस्तृत देश है सन्‌ १६४७ में विभाजित होने के वाद भी यह संसार का सातवाँ सबसे बड़ा देश है। इसका क्षेत्रफल लगभग ३२,३६,१४१ वर्ग क्रिलोमीटर है एवं इसकी स्थली-सीमा १०,१७० किलोमीटर से भी अधिक है | इस देश के तीन नाम है--(१) भारत अथवा भारतवर्प, (२) हिन्दुस्तान, (३) इण्डिया, प्रसिद्ध राजा दुष्यन्त के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारत पडा। ईरानियों ने इस देश को हिन्दुस्तात और ग्रीक लोगो ने इसे इण्डिया कहकर पुकारा

-+आश्िक व्यापारिक भूगोल द्वारा (हुबकू-सक्सेना) पृष्ठ २६ २. भारत की आबादी

(क) भारत की आबादी पहली शताब्दी मे दस करोड, १५बी शताब्दी मे १५ करोड, सन्‌ १८७३ से (जब सर्वप्रथन जन- गणना हुई) २१ करोड, सन्‌ १६२१ में २५ करोड, १६५१ मे ३४ करोड ५० लाख एवं १६६१ में ४३ करोड थी |

-जैनभारती अंक २३

(ख) सारत की जनसस्या (?२ अप्रेल १६७० तक) ४५४ करोड, ६६ लाख ५५ हजार नो सौ पेतालीस है पुर्पष २८४ करोड ३० लाख और स्त्रियां ३६ करोड़ ३६ लास से कुछ अधिक २७

9६ बवतृत्ववला के वीज

हैं। विगत दस वर्षो मे (१६६१ से १६७१ तक) १० करोड ७७ लाख के लगभग जनसख्या वढी है।

(ग) गत ७० वर्षो में आबादी की वृद्धि की दर

नीचे तालिका मे १६०१ से लेकर प्रति द्शाव्दि जनसंख्या वृद्धि

की दर दी गई है “-- वर्ष आबादी प्र श. वृद्धि १६०१ के बाद की दशाब्दि से प्रश पृद्धि

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१६७१ ४४६६४५५६४५ -+-+२८५७ नाी१२६ ४६

(घी भारत प्रतिदिन ५० हजार से अधिक एव प्रतिवर्ष लगभग करोड़ ब्रच्चे जन्म लेते हूँ और 5० लाख मनुण्य मस्त >। अत करोड लाख व्यक्ति प्रतिवर्य वढ़त॑ हू

भारतीय अर्थशास्त्र खण्ड २, पृष्ठ ३, सन्‌ १६७०

३०७

चौथा कोष्ठक

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पाचवा भाग

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पाँचवा भाग चौथा कोणष्ठक ३११

(ख' भारत की जनसख्या का आयु विवरण (१६६१ के आधार पर)

आयु समृह (वर्षो से) फुल जनसख्या का प्रतिशत वर्ष तक के मनुष्य १५ से १४ वर्ष तक के मनुष्य २६० शश्सेर४ ,, » * १६ शरभ्से ३४ ,, ,, हि पड इसे ४४८ ,, + ११० डश्से ,, ड़ ध्ध० भभ ये ६४ ,, , है ड्प ध्श्से ७४ ,, , 580 ७५ से अधिक ,, हर १० योग १०००

(ग) भारत मे दंबाहिक स्थिति-

(संख्या हजारो मे)

भआयु वर्ग (वर्षो मे) विवाहित महिलाएं. विधवा महिलाएँ १७ वर्ष से १४ वर्ष तक ४,४२६ ३०

शेप 3 «१. 537 १२,०२२ ६१

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--भारत फा आथिक भूगोल तया भारतोय अर्येगास्त्र द्वितोय खण्ड पृष्ठ ५८, ५६

वक्‍तृत्वकला के वीज

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पाँचवा भाग चौथा कोणष्ठक ३११

(ख' भारत की जनसंख्या का आयु विवरण (१६६१५ के आधार पर)

आयु समृह (वर्षो मे) कुल जनसस्या का प्रतिशत वर्ष तक के मनुष्य १५७० से १४ वर्ष तक के मनुष्य २६० श्पुसेर४ ,, १६ सश्से३४ ,, |) (्श्४ ३५्से ४४ ,, + हा ५१७ अप्से ५४ ,, , के ८० भपए मे ६४ ,, , 4 ध्ध्सछ४ , हा 3९ से अधिक » हि १० योग १०००

(ग) भारत मे बंवाहिक स्थिति- (सटया हजारों मे) आयु चर्म (वर्षों मे). विवाहित महिलाएँ विधवा महिलाएँ

१० बर्ष से १४ वर्ष तक ४,४२५ ३० २५ ढ़ श्र 732... 73 श्सण्य्र ५९ मठ 3 पे 39 35 १७,४५२ म्ष्८

_भारत का आर्थिक भूगोल तथा भारतीय अर्थशास्त्र द्वितीय

सण्ड पुष्ठ श८,

३१२ पक्तृत्वकला के बीज

(४) भारत के गाँव और शहर--

(क) सन्‌ १६६१ की जनगराना के अनुसार भारत मे लाख ६६ हजार ८७८ गाँव है, जिनमे ६२ प्रतिशत व्यक्ति निवास करते है शहरो की संख्या २६६ हे और उनमे १५ प्रतिशत व्यक्ति रहते है। -भारतीय अर्थशास्त्र, खण्ड पृष्ठ १३,५४ सन्‌ ७० (ख) भारत के सहानगर और उनकी आबादी(सन्‌ ७१) कलकत्ता-७०,४०,३२४५ अहमदाबाद-२,७,४६,११ बवम्बई-५६,३१,१८९ वगलोर-१६४८२३२ दिलली-३६,२६,८४२ एप कानपुर-१२,७३,०४२ मद्राप्न-२४,७०,२४८ पूना-११,३३,३६६ हैदराबाद-१७,६८,६१० नोट--+दस लाख से अधिक जनसाख्यावाले नगर महानगर कहलाते हैं |) -हिन्दुस्तान-१४ अप्रेल ७१

(५) भारत मे बेघर ओर घरवाले-- सन्‌ १६६१ की जनगरणाना के अनुसार भारत में ५० लाख व्यक्ति वेघर है उनमें से प्रतिणत शहरो में रहते है एक बम्बई मे इनकी सख्या ७६ हजार है | देश में कुल घर 2० करोड़ लाख है उनमे करीड लाख परिवार रहते एक परिवार एक रसोई का प्रयोग करता है नथा उसके थौसत » व्यक्ति सदस्य हे करोड परिवारों के पास एक कमरा है ३६ पतिशत के पास-पास कमरे है २३३ प्रतिशत के पास | या अधिक कमरे है ५६६

पाँचवां भाग - चौथा कोष्ठक ३१३

प्रतिशत लोग कच्चे गारो के मकान में रहुते है, ४४ प्र,झ के अपने घर है और ५२५४ ञञ॒ किराये के मकानों में रहते है ! -हिन्दुस्तान २३ अप्रेल, १६६४

(६) भारत में पशुधन-- सन्‌ १६६१ की पशुगरणना के अनुसार भारत में गाय-बेल लगभग १७॥ करोड, भेसे करोड, वकरिया ६॥ करोड, भेड करोड, मुगियाँ ११२० करोड, ऊंट लाख से अधिक और घोड़े १३॥ लाख है।

(७) भारत से दृध-- भारत में अन्य देशो की अपेक्षा यद्यवि अधिक गाय है, किन्तु यहाँ की जौसत गाय प्रतिचर्प अन्य देशो की अपेक्षा बहुत कम दूध देती हे देखिए, नीचे की तालिका--

देश प्रति गाय दूध देश. प्रति गाय दूध

(प्रति वर्ष ) (प्रति दर्द )

नोदरलेड्स ८,००० पौड ढ़ समय ५,४०० पौध ४२ आन्ट्रेलिया ७,३०० ,, अमेरिका

स्वीन ६,००० , पर. उभारत (३ पौटठ

भारत में कुल उत्पादन का लगभग ८० प्रतिणत भाग दूब गायो से प्राप्त होता है, ५८ प्रण दूध भेसों से और प्रथ दब बकरियों से ऊपर की ताल्कि से स्पप्ठ है कि भारत में प्रति गाय ऑसतरूप से वर्ष में लगभग ४९३ पौह दूध देती है। परन्तु भेस कॉसतरूप से भारत में १,१०० पड वापिक दूध देती है

३१४ वक्‍तृत्वकला के वीज

यद्यपि दूध उत्पादन की सात्रा की दृष्टि से विश्व मे सयुक्त राष्ट्र अमेरिका के बाद, भारत ही सबसे अधिक दूध उत्तादन करता है, परन्तु यहाँ की घनी आबादी को देखते हुए यह मात्रा बहुत कम है| भारत मे प्रतिवर्ष लगभग करोड मन दूध होता है, जबकि “अमेरिकन रिपोर्टर के अनुसार सयुकत राष्ट्र अमेरिका भे प्रतिवर्ष अरब मन से भी अधिक दूव होता है इस कथन के अनुसार इतना दूध होता है कि ४५२५ किमी लम्बी, १९ मोटर चौड़ी और मीटर गहरी नदी का दूब से सुगमता पूर्वक भरा जा सकता है

ठीद स्वास्थ्य के लिए प्रति व्यक्ति को प्रतिदिन कम से कम १५४ २० ओस दूध की आवद्यकत्ा है, किन्तु भारत में प्रति व्यम्ति को प्रतेदिग औसतन ५५ औस (३॥ छटाक) दूब मिलता है, जबकि अग्य देशों में कही उसकी सातगुनी और दसगुनी से भी अधिक उपलब्धि है। देखिए, नीचे

की तालिका--

देश उपलब्धि देश उपलब्धि कनाडा ५६ आस डेनमार्क ४० औस न्यूजोवेंड ४५ ,, सरा

आस्ट्रेलिया ४४ ,, अमेरिका ३५ ,,

इगलेड ४०... भारत प्रप ,,

-आदथिक व्यापारिक भूगोल (हुबकू-समसेना) प्रष्ठ १६४

पाँचवा भाग चौथा कीष्ठक की 0 बी.

(८) भारतीय इतिहास की प्रसुंख पतथियाँ-:

ईसा पूर्व

६५००१४०९ सधु सभ्यता २४५०० आर्यो का भर्विति में आगमन आरिभ के १४००-२१ ऋग्वेद की रचना

ख्‌ १०००९ महाभारत युद्ध ४. ५६८-२१७ बद्ध मान महावीर की जन्म और निर्वाण ५. ६५६४८ गौतम देखे जन्म और निर्वाण ६. ३४७-रेरर: आारत पर ससकत्दर कीं आक्रमण कश्प्नरेल चन्द्रगुप्त मौर्य का शीसन

3दे-शेदे+ अभोक को शासन

ईस्वी से

छपन-रिरिरे कनिप्क की हासन

के रूप में चीस थे न्पि स्त और उन्होंने चेशावर को अपनी राजवनि री बनाया कदमीर, गर्म बंगाल, वीर च्ची आदि देशो की जीतकर सम्राट वनों एव बौद्ध्र्म स्वीकीर के भारतीय कली लगा इक राज्य में अदइवधोप जि मे इसमे बी श्षुम॑ स्वीकीर दिया थी): बसुमित

एवं नागाजु ने अस अनेक पसिर्क बीदध-दाश नर लिखेंक थे) दौद्ध बनने के वाद कनिप्क में अनेक विश! तथा स्यूपों वा (नर्माण करवाया सुप्रनिक करत बा मम्मेलनी की योजना भा ने की ही सर्भीति में बीद्धवर्म पर नये भाप्स

३१६

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२६.

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३३४-२७५ ३७६-४१३ ४० ४०४१६ ६०६-६४७

१०००-२०२६

हरपवर्धन अन्तिम हिन्दू सम्राट था। इसकी कन्नीज थी सम्राट स्वयं कवि था और कवियों का सम्मान भी वहूत करताथा। वाणभट्ट (कादम्बरी के निर्माता) इसी के राज्य दरवार के रत्न थे

+

वक्‍त त्वकजा के बोौज

गुप्तवश का शासन, भारतीय कला और साहित्य का स्वर्ण-युग समुद्रगुप्त का शासन

चद्रगुप्त विकमादित्य का शासन फाहियान की भारतन्यात्ना

हर्पवरद्ध तन का शासनों

भारत पर महमूद गजनवो के आक्रमण पृथ्वीराज की पराजय और मृत्यु उत्तर भारत में मुस्लिम शासन आग्म्भ भारत पर चगेजखा का आक्रमण भारत पर तंमूरतग का आक्रमण अकंवर का शासन

हल्दीघाटी की लड़ाई

महाराणा प्रताप की मृत्यु

भारत मे ईस्ट इडिया कपनी का शासन जहागीर का शासन

सूरत मैं अग्र जो की पहली कोठी की स्थापना

शाहजहाँ का शासन

रॉजवानी

पाँचवा भाग चौथा कोष्ठक ३१७

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रह

३०

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१६५८-१७०७ ओऔरगजेब का शासन

१७३६ भारत पर नादिरशाह का आक्रमण

१७८० महाराजा रणजीतमिंह द्वारा सिक्ख राज्य की स्थापना

श्पप्८ ईस्ट इण्डिया केम्पनी का शासन

समाप्त और ब्रिटिश सरकार का सीधा शासन प्रारम्भ

१८७४ बंगाल में भयकर भमकाल

१८८५ बम्बई में इण्डियन नेशनल कायस का प्रथम अधिवेशन

१६२० लोकमान्य'वाल गगाबर तिलक की मृत्यु

१६२ महोत्मागात्री द्वारा असह्योग आन्दो- लेन आरम्भ

१६२७-२८ साइमन कमीशन का बहिष्कार,

लाला लाजपतराय की मृत्यु

नादिरणाह का आक्रमण--निरकश ब्र,र और आव्याचारा शासन के लिए प्राय नादिग्थाही' शब्द का प्रयाग हाता है नादिरशाह फोरस का ञासक था और १७३४६ ई० में उसने दिल्‍ली पर आक्रमण करके वहाँ एत्लेआम करवाया था। दिल्दी से वह पन्द्र करोड न्‍पये नकद सा पचास वराड म्पये से भी अधिक के रत्न-आभूषण आदि लृदकर से गया था जनमे विश्व-विस्यात टीरा वोहेंदूर और घधारजहाँ वा रत्त-

पटिस सिहामन तस्लेन्ताकृर्सा भी था। --तचित-विद्वकोष £, प्रृष्ठ ४६

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वक्‍्तृत्वकला के वीज

काग्र द्वारा लाहौर अधिवेशन मे पूर्ण स्वराज्य की घोषणा

“भारत छोडो” आदोलन

सुभाषचन्द्र बोस द्वारा सिग्रापुर में आजाद हिन्द फौज की स्थापना

भारत स्वाबीन हुआ तथा देश का विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना काइमीर पर पाकिस्तान का आक्रमण महात्मा गाघो की हत्या

भारत नये संविधान के अनुसार गणराज्य वन गया। सरदार पटेल के. मत्यु

भारत में पहला आम चुनाव

भारत की फ्रासीसी वस्तियों का भारत में विलय

भाषा के आधार पर भारतीय राज्यों का पुनर्गठन

योआ पर मारत का अधिकार

भारत पर चीन का आक्रमण प्रधानमन्त्री जवाह रलाल नेह की मृत्यु लालबहादुर यास्त्री प्रवानमन्त्री बने

भारत-पाक युद्ध

दवा भाग * चौथा कीर्ष्ठे

४8 रैथिए 5

३२०

केरल

दिल्ली गोआ-दमन-दीव अडमान-निकोवार

लक्षद्वीप मिनिकाय अमीन द्वीप

पाडिचेरी तमिलनाडु महाराष्ट्र गुजरात पजाब

प॒ बंगाल मणिपुर मैसूर हिमाचल प्रदेश भ्रिपुरा असम मेघालय नागालेट हरियाणा उड़ीसा आन्ध्र मन्य प्रदेश

> पदत्तर प्रदण

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2:03 -2-थ ४२ ७५ ३०७२५ ३३६३

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वक्‍तृत्वकला के वीज

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४३३६ 3836 ३६९०६ ३५७ ३३३६ ३३ ०४५ ३3२८० ३3१"४७ 3१३२ ३०८७

रद ७४

चौथा कीण्ट विहार श८छ डे रजस्थात १५२१ जम्मू-कश्मीर ११ ०२ दादरा और ] हक सगर हवेली तेफा ७१३ भारत की बडी चीज

अधि बअरफलवाली राज्य अधिक जन ख्यावाला राज्य अधिक चने (जनस डथा बाला राज्य अधिक नगर बडा बदरगाह बडी संडर्क अधिक (र्ध्षित

पुल लम्वा प्लेटफार्म बडी भील

बडी खारी फ्लील

बचा डेल्टा

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१६ ६७ १८७ &

१८२३९ १४८६

६२३४

१४ अभ ल। १६७३१

मध्य प्रदेश

दिल्ली कलकती

ग्राड टूंके रोड सोन सदी

सोनपुर दिष्व मे) बुलर कील (कश्मीर) भर (राजस्थानी मन्दरत्रत

टाटा का वी खाना (जमशदफुर )

३२२ ववतृत्वकला के वीज

सुन्दर भवन ताजमहल वडी मृ्ति गोमतेब्वर की सूर्ति (मेसूर) ऊँची मीनार कुतुब मीनार (दिल्ली) बडी गुम्बद गोलगुम्बद (वीजापुर) बडा पुस्तकालय राष्ट्रीय पुस्तकालय (कलकत्ता) बडा चिडियाघर अलीपुर (कलकत्ता) वडा अजायवधघर इंडियन म्यूजियम (कलकत्ता) सवसे ऊँचा पर्वत शिखर माउट एवरेस्ट लम्बा वाँध हीराकुण्ड बाँध

सबसे अधिक वर्पा वाला क्षेत्र चेरापूँजी (आसाम)

--आश्थिक व्यापारिक भृगोल पृष्ठ ३३, द्वारा हुघकू, सबसेना

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२३, भारत की कतिपय विशेष ज्ञातव्य बाते

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(क) औसत आयु ४५२ वर्ष (ख) प्रति व्यक्ति औसत वाधपिक आय चालू मूल्यों पर ५५२ रुपये और १६४८-४६ के मूल्यों पर ३२४*४ रुपये (ग) खाद्यान्नो की उत्पत्ति लगभग १०करोडटन (१६६६-७०) (घ) प्रति व्यक्ति खाद्यानह्नो की खपत १५४ औसत प्रतिदिन (१९६६-७० ) (च) प्रति व्यक्ति के लिए उपलब्ध कलोरी (८४०४९५) २१४५ प्रतिदिन (छ) प्रति व्यक्ति वस्त्र की उपलब्धि १६ मोटर वापिक (ज) प्रति सहन वापिक जन्मदर ४३ प्रति सहस्र मृत्यु दर १७२। +भारतोय अर्यशास्त्र खण्ड २, पृष्ठ २६ और ४३ भारतवर्ष मे लगभग ५९ लाख कुए है, ७५ हजार तालाब है और नहरो की लम्बाई लगभग लाख ४४ हजार किलोमीटर है भारतवर्ष मे नदियों का पानी केवल ५६ प्रतिशत भाग सिचाई आदि के उपयोग में आता है, शेप यो ही समुद्र मे चला जाता है| ३२३

३२४ वक्‍्तृत्वकला के बीज

भारत मे केवल ३६ करोड ६० लाख एकड जमीत में खेती होती है जबकि अमेरिका मे ४७ करोड 5५० लाख और रूस में ५५ करोड ६० लाख एकड जमीन खेती के उपयोग में आती है।

५. भारत में (सन्‌ ६६ से ६६ के आकडो के अनुसार) प्रति वर्ष गेह लगभग ११५, लाख टन, चावल करोड ७९ लाख टन, मक्का ५० लाख टन, बाजरा ३८ लाख टन, चना ४५० पौड प्रति एकड, गन्ना €५ लाख हजार टन, कपास की ६७ लाख गाठे (३६२ पौड की एक गाठ), जुट भी ८४ लाख हजार गाँठें (४०० पौड की गाठ), चाय ३७ ५४ करोड किलोग्राम, कहवा ६८ हजार मीट्रिक टन, मू गफली ५६७ लाख टन, तम्बाकू ३॥ लाख टन, गक्‍्कर (चीनी) ४३ लाख टन, रबर ६४ ४५ हजार टन, लोहा १४८ लाख मीट्रिक टन, अश्रक २५ हजार टन, सोना ३७४० किलोग्राम हीरा पाँच लाख करठ, मंगनीज (भूरे रग की धातु) १६ लाख टन, कोयला ७१ करोड टन, पेट्रोलियम (चद्मान से

निकला हुआ तेल) २० लाख टन, इस्पात ४४५८ लाख टन,

सीमेट ११० लाख टन और कागज ५१५ लाख टन पेदा हुए।

भारत में सूती कपडे की ६०० मिले है (अमरीका में

१२०० है) उनमे ७२५ करोड के भूल्य का ०६ अरब गज

कपडा प्रतिवर्ष बनता है, उसमे ६२ करोड का विदेश

जाता है उनके चार कारखाने है। रेशम के छोटे छोटे

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सनक भकत०-ल पी जे. +अमन्‍ू>>मन्‍मम ॥० --- - --

पाँचवों भाग चौथा कोष्ठक इर२ए

अनेक कारखाने है और वडे चार है) प्रतिवर्ष १८७१ लाख किलोग्राम (१ करोड गज) चकली रेशम बनता है। १३ लाख टन जूट प्रतिवर्ष उत्तन्न होता है लाख टन जुट का सामान विदेश जाता है, उससे भारत को १५० करोड की आमदनी होती है '

भारत मे रेल-डजिन के दो कारखाने है--एक तो चिंतरजन नगर मे और दूसरा जमणेदपुर में। दोनो कारखानों में सन्‌ १८६०-६१ तक एक हजार से भी अधिक इजिन तेयार हो चुके थे। आधुनिक इंजिन मे लगभग ५३५४० पुर्जे लगते है। उनमे ८० प्रतिणत पूर्ज तो चितरजन नगर के कारखाने में ही बनते है और दस प्रतिणत वाहर से मेंगवाये जाते हू एक इजिन पर लगभग चार लाख रुपये लगते है।

सन्‌ ६०-६१ में यहा (भारत मे) चार लाख टेलीफोन बनते थे। एक टेलीफोन में ५३८ पुर्जे लगते हैं। उतमे ता १६ पुर्जे तो अन्य उत्पादको से प्राप्त किये जाते हें और तोन पूर्जे विदेशों से मंगवाये जाते हें :

+>व्यापारिक आध्िक भूगोल, सन्‌ ६६ के आधार से

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वक्‍्तृत्वकला के बीज

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पाँचवा भाग

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ग्रन्थ सूची

अद्भ त्तर निकाय भगिरास्मृति अग्निपुराण

अथरवंवेद

अर्थशास्त्र

अध्यात्मसार अध्यात्मो पनिषद्‌ अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिशिका अनुयोग द्वार अपरोक्षानुभूति अभिधम्मपिटक अभिधानराजेन्द्र अभिवानचिन्तामणि अभिन्नान शाकुन्तल अभितिगति श्षावकाचार अप्ततध्वनि

अमर भारती (मासिक) अवेस्ता

अनिस्मृति

अप्टाग हृदय-निदान

आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन आचाराज्सूत्र

आशिक व्यापारिक भूगोल आप्त-मीमासा आत्मानुशासन आवश्यकनियुक्ति

आवश्यक मलयगिरि आवश्यक सूत्र

आत्म-पुराण

आत्मविकास

आतुर प्रत्याख्यान आपस्तम्वस्मृति

आवा अद्धी सुर्‌यण्त ओऔपपातिक सूत्र

इतिहास समुच्चय ईशोपनियपद्‌

इस्लामधर्म

इप्टोपदेश

ईश्वरगीता

उत्तररास चरित्र

उत्तराध्ययत सूत्र उत्तराध्ययन बुहद्वृत्ति उदान

उपदेश तराज्धिणी उपदेशप्रासाद उपदेणमालाी उपदेशसुमनमाला उपासक दशा ऋग्वेद ऋषिभासित ऐतरेय बाह्ण क्रटोपलिपद्‌ कथासरित्सागर कल्याण (मार्सिक) कवितावली कात्यायन स्टृति किशन बावनी किराताजु नीय फीतिकेयानुप्रेला कुमारपालल रित्र कुमार सम्भव कुरानशरीफ कुरुक्ष

कूटवेंद

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क्केनोपर्तिषद्‌ कौटिलीय अ्थेशास्त्र खुले आकाश मे गच्छाचीर प्रकीर्णक गूरुंड पुराण गृहस्थधर्म

गीता

गीता भाष्य गुजेरमजनपुष्पावनी गुरुग्र्थ साहिव गोम्मट्सार गीतमस्फर्ति गोरक्षा-शतक घटचपैटठपजरिकी चन्द्रप्रज्ञप्ति सूरत खत्द-वरिरत

चरक सहिता चरित्र य्क्षा चरकसूत्र चाणवयनीर्ति चाणवयसूत

खित्राम कीं चोपी चीनी सुभापित छान्दोग्य उपनिषद्‌

जपुजी साहि+

जागृति (मासिक) जातक के जावालश्र॒ति जाह्नवी

जीतकल्प जीवन-लक्ष्य

जीवन सौरभ जीवाभिगम सूत्र जैनभारती जैनसिद्धान्त दीपिका जैनसिद्धान्त वोलसंग्रह टॉड राजस्थान इतिहास टी वी हैण्डबुक डिकेन्स

डेलीमिरर

तत्त्वामृतत तत्त्वार्थ-सूत्र तन्दुलवेचारिकरगाथा तत्त्वानुशासन ताओ-उपनिपद्‌ ताओं-तेह-किंग तात्विक त्रिशती तिरुकुरुल

त्तीन वात

तैत्तरीय उपनिषद्‌

( ४)

दशाश्र्‌ त-स्कन्ध दशाश्र त-स्कन्धवृत्ति दक्षसहिता

दर्शनपाहुड दान-चन्द्रिका दिगम्बर प्रतिक्रमण त्रयी दीर्घनिकाय दोहा-सदोह

द्वात्रिशद्‌ द्वात्रिशिका द्रव्य-सग्रह

घन-वावनी घ्यानाष्टक

धम्मपद

धर्म विन्दु

घर्मयुग

घमंसग्रह

धर्मरत्न प्रकरण घर्मशास्त्र का इत्तिहास धर्मो की फुलवारी तेत्तिरीय ताण्डय महा ब्राह्मण तोरा

थेरगाथा दशवेकालिक सूत्र दर्शन-णुद्धि

धर्म-सूत्र

नविश्ते

नवभारत टाइम्स (देनिक) लवनीत (मार्सिक)

नवीन राष्ट्र एटलस नारद पुराण

मारद नीति

तारद प्रिद्बाजकोपनिपद्‌ निर्णयसिन्धु

लियमसार

निरुक्‍्त

मिशीथ चूणि

लिशीयथ भाष्य निरालम्बोपनिपद्‌ नीतिवावयामृत

तैपधीय चरित्र

पचतन

पचा[स्तिकाय

पजावकेशरी

बज रत

जलओचडीओ